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________________ शोलायुध-शूर थे, जिसके फलस्वरूप मरकर यह स्वर्ग गया और वहाँ से च्युत होकर इस नाम की स्त्री हुई। पपु० ८०.१७३, १९०-१९३ शीलायध-(१) राजा वसुदेव तथा रानी प्रियंगुसुन्दरी का पुत्र । हपु० । ४८.६२ (२) श्रावस्ती का राजा । तापसी चारुमती की कन्या ऋषिदत्ता इसकी रानी थी। उसका प्रसूति के बाद स्वर्गवास हो गया था। ऋषिदत्ता से उत्पन्न इसके पुत्र का नाम एणीपुत्र था। इस पुत्र को राज्य देकर यह मुनि धर्म का पालन करते हुए मरा और मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । हपु० २९.५३, २५-५७ शुक्तिमतो-(१) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। दिग्विजय के समय भरतेश चक्रवर्ती की सेना यहाँ आयी थी। मपु० २९.५४, हपु० १७.३६ (२) एक नगरी । यह राजा अभिचन्द्र द्वारा इसी नदी के तट पर बसाई गयी थी । हपु० १७.३६ शक्रप्रभ-जम्बद्वीप के सुकच्छ देश में विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी का एक नगर । विद्याधर इन्द्रदत्त यहाँ का राजा था । मपु० ६३.९१ शक्र-(१) ऊर्ध्वलोक में स्थित नौवां कल्प-स्वर्ग । इसमें बीस हजार बीस विमान हैं । पपु० १०५.१६६-१६८, हपु० ६.३७,५९ (२) महाशुक्र स्वर्ग का इन्द्रक विमान । हपु० ६.५० (३) रावण का सामन्त । पपु० ५७.४५-४८, ७३.१०-१२ शुक्रपुर-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी का उनतीसर्वां नगर । मपु० १९.४९, ५३ शुक्रप्रभा-तीर्थङ्कर शीतलनाथ की शिविका-पालकी । वे इसी में बैठ कर संयम धारण करने के लिए सहेतुक वन गये थे। मपु० ५६.४४-४५ शुक्लध्यान-स्वच्छ एवं निर्दोष मन से किया गया ध्यान । इसके दो भेदहै-शुक्लध्यान और परमशुक्लध्यान । इन दोनों के भी दो-दो भेद हैं । इसमें शुक्लध्यान के पृथक्त्वावितर्कविचार और एकत्ववितर्कविचार ये दो तथा दूसरे परमशुक्लध्यान के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ये दो भेद हैं । इस प्रकार इसके चार भेद हैं। मपु० २१.३१-४३, १६५-१७७, १९४-१९५, ३१९, हपु० ५६.५३ ५४, ६५-८२, वीवच० ६.५३-५४ परिभाषाएँ यथास्थान देखें शुक्लप्रभा-विमलप्रभ देव की देवी । मपु० ६२.३७६ शुक्ललेश्या-छ: लेश्याओं में एक लेश्या । यह अहमिन्द्रों के होती है । इसके होने से अहभिन्द्रों का पर क्षेत्र में बिहार नहीं होता । वे अपने ही प्राप्त भोगों से संतुष्ट रहते हैं । मपु० ११.१४१ शुचि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११२ शुचिदत्त-तीर्थकर महावीर के चौथे गणधर । हपु० ३.४२ दे० महावीर शुचित्रवा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२० शुद्ध-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०८, २१२ शुद्धमध्यमा-संगीत के मध्यग्राम की चौथी मूर्छना । हपु० १९.१६३ शुद्धषड्जा-संगीत के षड्ज ग्राम की चौथी मूर्च्छना। हपु० १९.१६१ जैन पुराणकोश : ४०५ शुबहार-एक लड़ी का हार । इसके मध्य में एक शीर्षक होता है । ___मपु० १६.६३ शुभंकर-कुरुवंशी राजा कुरु का पौत्र तथा कुरुचन्द्र का पुत्र । यह राजा धृतिकर का पिता था । हपु० ४५.९ शुभसाधमन्द्र द्वारा स्तुत वृषमदव का एक नाम । मपु० २५.२१७ शुभप्रदा-एक विद्या । यह दशानन को प्राप्त थी। मपु० ७.३२७ शुभमति- कौतुकमंगल नगर का एक राजा । इसकी रानी पृथुश्री थी। द्रोणमेघ इन दोनों का पुत्र और केकया पुत्री थी। पपु० २४.२-४ शुभलक्षण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४४ शुभा-(१) रावण को एक रानी । पपु० ७७.१५ (२) विदेह क्षेत्र की एक नगरी। यह रमणीय देश की राजधानी थी । मपु० ६३.२१०, २१५, हपु० ५.२६० शुभ्रपुर--भरतक्षेत्र का एक नगर । इसे राजा सूर्य ने बसाया था। हपु० १७.३२ शुधिर वाद्य के तत, अवनद्ध, शुषिर और धन इन चार भेदों में तीसरे प्रकार के वाद्य-चाँसुरी आदि । पपु० २४.२०-२१ शुष्क-माला-निर्माणकी चार कलाओं में एक कला। इसके द्वारा सखे पत्र आदि से मालाएँ निर्मित की जाती हैं । पपु० २४.४४-४५ शुष्कनदी--भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । चक्रवर्ती भरतेश का ___ सेनापति सैनिकों के साथ यहाँ आया था । मपु० २९.८४ शूद्र-वृषभदेव ने कर्मभूमि का आरम्भ करते हुए तीन वर्षों की स्थापना की थी-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । इसमें सेवा-शुश्रुषा करनेवालों को शद्र कहा गया है । इनके दो भेद बताये है-कारू और अकारू । मपु० १६.१८३-१८६, २४५, पपु० ३.२५८, ११. २०२, हप ० ९.३९, पापु० २.१६१-१६२ शूर-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१६० (२) परीषहों, कषायों और काम, मोह आदि के विजेता शूर कहलाते हैं । मपु० ४४.२२८-२२९, वीवच० ८.५० (३) भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का उत्तरदिशावर्ती एक देश । हपु० ११.६६-६७ (४) हरिवंशी राजा यदु का पौत्र और राजा नरपति का पुत्र । सुवीर इसका छोटा भाई था। इसने मथुरा का राज्य छोटे भाई को देकर कुशद्य देश में शौर्यपुर नगर बसाया था तथा यह वहीं रहने लगा था। अन्धकवृष्णि इसका पुत्र था। अन्त में यह पुत्र को राज्य देकर सुप्रतिष्ठ मुनिराज के पास दीक्षित होकर सिद्ध हुआ । हपु० १८.६-११ (५) मथुरा नगरी के सेठ भानु का पुत्र । सेठानी यमुना इसकी माता थी । अन्त में यह अपने अन्य भाइयों-सुभानु, भानुकीति, भानुषेण, शूरदेव, शूरदत्त और शूरसेन के साथ वरधर्म मुनि के पास दीक्षित हो गया था तथा घोर तपश्चरण करके यह तथा इसके सभी भाई समाधिमरणपूर्वक सौधर्म स्वर्ग में प्रायस्त्रिंश जाति के उत्तम देव हुए । मपु० ७१.२०२-२०४, हपु० ३३.९७, १२४-१३० Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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