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________________ ४०० : जैन पुराणकोश शात्कर-शान्तिभा तिरेपन उपवास और तैतीस पारणाएँ तथा उत्तम व्रत में चार सौ होने से इनका 'शान्ति' नाम रखा था । धर्मनाथ तीर्थकर के बाद छियानवे उपवास और इकसठ पारणाएं की जाती है। हपु० ३४. पौन पल्य कम तीन सागर प्रमाण काल बीत जाने पर इनका जन्म ८७-८९ हुआ था। इनकी आयु एक लाख वर्ष, ऊँचाई चालीस धनुष और शात्कर-तीर्थंकरों की माता के द्वारा उनकी गर्भावस्था के समय देखे शरीर की कान्ति स्वर्ण के समान थी । शरीर में ध्वजा, तोरण; सूर्य, गये सोलह स्वप्नों में दूसरे स्वप्न में देखा गया वृषभ । मपु० २१. चन्द्र, शंख, चक्र आदि चिह्न थे। चक्रायुध नाम का इनकी दूसरी १३-१४ माँ यशस्वती से उत्पन्न भाई था। इनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शान्त-(१) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । शील, कला, कान्ति आदि से सम्पन्न कन्याओं के साथ इनका विवाह मपु० २४.४४, २५.१३८ किया था। कुमारकाल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर (२) शान्तिषेण नामक एक आचार्य । ये जटासिंहनन्दि के उत्तर- . इनका राज्य तिलक हुआ। पच्चीस हजार वर्ष तक राज्य शासन वर्ती थे । हपु० १.३६ करने के बाद चौदह रत्न और नौ निधियाँ प्रकट हुई थीं। चौदह शान्तन-राजा उग्रसेन का चाचा । इसके पाँच पुत्र थे महासेन, शिवि, रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड-आयुध शाला में तथा काकिणी, स्वस्थ, विषद और अनन्तमित्र । हपु० ४८.४० चर्म, चूडामणि-श्रीगृह में प्रकट हुए थे। पुरोहित, स्थपति, सेनापति, शान्तनु-एक कौरव राजा । इसकी रानी का नाम सबकी तथा पुत्र का हस्तिनापुर में तथा कन्या, गज और अश्व विजयाध पर प्राप्त हए नाम पराशर था। इसने योजनगन्धा से भी विवाह किया था तथा थे । निधियां इन्द्रों ने दी थीं । दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई इसके चित्र और विचित्र नाम के दोनों पुत्र योजनगन्धा से ही हुए देने से इन्हें वैराग्य हुआ। लौकान्तिक देवों द्वारा धर्म तीर्थ प्रवर्तन थे। इसका दूसरा नाम शन्तनु था । हपु० ४५.३०-३१, पापु० की प्रेरणा प्राप्त करके इन्होंने पुत्र नारायण को राज्य सौंपा और ये २.४२-४३, ७.७५-७६, दे० शन्तनु सिद्धि नाम को शिविका में बैठकर सहसाम्र वन गये। वहाँ उत्तर शान्तमदन-जयसेन के चौथे पूर्वभव का जीव । मपु० ४७.३७६-३७७ की ओर मुख करके पर्यकासन से एक शिला पर ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, शान्तव-वाराणसी के सेठ धनदेव और उसकी सेठानी जिनदत्ता का भरणी नक्षत्र की सायं बेला में केशलोंच करके दिगम्बर दीक्षा धारण पुत्र । यह रमण का बड़ा भाई था । मपु० ७६.३१९ । की। चक्रायुध सहित एक हजार अन्य राजाओं ने भी इनके साथ शान्ताकार-सोलहवें स्वर्ग का एक विमान । धातकीखण्ड द्वीप की संयम लिया। मन्दिरपुर नगर के राजा सुमित्र ने इन्हें आहार देकर अयोध्या नगरी का राजा अजितंजय मरकर इसी विमान में अच्युतेन्द्र पंचाश्चयं प्राप्त किये थे । सहस्राम वन में पौषशुक्ल दसमी की सायं हुआ था । मपु० ५४. ८६-८७. १२५-१२६ वेला में इन्हें केवलज्ञान हुआ । चक्रायुध सहित इनके छत्तीस गणधर शान्तारि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१६ थे। संघ में आठ सौ पूर्वधारी मुनि, इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक, तीन हजार विक्रियाधारी, चार हजार मनः पर्ययज्ञानो, दो शान्ति-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. हजार चार सौ वादी मुनि, साठ हजार तीन सौ हरिषेण आदि २०२ (२) एक विद्या। यह दशानन को सिद्ध थी। मपु० ७.३३१ आर्यिकाएँ, सुरकीति आदि दो लाख श्रावक, अहंद्दासी आदि चार लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और तिथंच थे। एक मास ३३२ (३) भरत के साथ दीक्षित एवं परमात्मपद प्राप्त एक राजा । पपु० की आयु शेष रह जाने पर ये सम्मेद-शिखर आये। यहाँ कमों का ८८.१-६ नाश कर ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन रात्रि के पूर्वभाग में इन्होंने शान्तिकृत्-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०२ देह त्याग की और ये मोक्ष गये। दसवें पूर्वभव में आय, नवें पूर्वशान्तिचन्द्र-कौरववंश का एक राजा । यह शान्तिवर्धन का पुत्र था। भव में देव, आठवें में विद्याधर, सातवें में देव, छठे पूर्वभव में बलभद्र, हपु० ४५.१९, पापु० ६.२ पाँचवें में देव, चौथे में बज्रायुध चक्रवर्ती, तीसरे में अहमिन्द्र दूसरे शान्तिव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०२ में मेघरथ और प्रथम पूर्वभव में सवार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र थे। शान्तिनाथ-अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाका मपु० ६२.३८३.६३.३८२-४१४,४५५-५०४. पपु० ५.२१५,२२३, पुरुष। ये सोलहवें तीर्थकर और पांचवें चक्रवर्ती थे। हस्तिनापुर के २०.५२, हपु० १.१८, पापु० ४.१०.५.१०२-१०५.११६-१२९, वीवच० १.२६.१८.१०१-११० कुरुवंशी राजा विश्वसेन इनके पिता और गान्धारनगर के राजा शान्तिनिष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०२ अजितंजय की पुत्री ऐरा इनकी माता थी। ये भाद्र मास के कृष्ण शान्तिपूजा-सर्व पापों को शान्ति के लिए की जानेवाली पूजा। यह पक्ष की सप्तमी तिथि के दिन भरणी नक्षत्र में रात्रि के अन्तिम प्रहर पूजा आठ दिन तक वैभव सम्पन्न विधि-विधानों के साथ अभिषेक में गर्भ में आये थे । ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी की प्रातः वेला में साम्ययोग पूर्वक की जाती है। मपु० ४५.२७ में इनका जन्म हुआ था। जन्म से ही ये मति, श्रुत और अवधि तीन शान्तिभद्र-कुरुवंशी एक राजा । यह सुशान्ति का पुत्र और शान्तिर्षण ज्ञान के धारी थे। जन्माभिषेक करके इन्द्र ने सबके शान्तिप्रदाता का पिता था । हपु० ४५.३० Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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