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________________ 'विभु - विमलनाथ पर इसने उसकी यह अज्ञानता बताई थी। इसने रावण को उसके लिए हुए व्रत का स्मरण भी कराया था तथा सीता किसकी पुत्री है इस ओर भी ध्यान दिलाया था। इसने राम को सीता लौटा देने का बार-बार निवेदन किया था। इस पर रावण ने इसे अपने देश से निकाल दिया । अपना हित राम से जा मिलने में समझकर यह राम के समीप जा पहुँचा । रावण की विद्या सिद्धि का रहस्य इसी ने राम को बताया था । सोता का सिर कटा हुआ दिखाये जाने पर इसने राम को समझाकर इसे रावण की माया बताई थी। रावण के मारे जाने के पश्चात् राम और लक्ष्मण ने इसे ही लंका का राजा बनाया था और इससे राम को सीता से मिलाया था । अन्त में साथ दीक्षित हुआ और देह त्याग करके अनुदिश विमान में देव मपु० ६८.११-१२, ४०६-४०७ ४३३-४३४, ४७३-५०१, ५१६५२०, ६१३६१६ १२-६३८ ७११ ७२१. १०७.१३३, १६४० १६५, २२५, २६४, ३३४, ८.१५०-१५१, १०.४९, १५.१, २३, २५-२७, ५२०५८, ४६.१११-१२६, ५५.११-१२, २१-२८, ७१७२, ६२.३०-३२, ७७.१-३, ८०.३२.३१, ६०, ८८.२८, ११७. ४५, ११९.३९ यह राम के हुआ 1 विभु - (१) भरतेश और सोमेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३२, २५.१०२ ( २ ) आदित्यवंशी राजा प्रभु का पुत्र । यह राजा अविध्वंस का जनक था । पपु० ५.६ हपु० १३.११ विभूषांग - कल्पवृक्ष । ये तीसरे काल में पल्य का आठवां भाग समय शेष रह जाने तक सामथ्र्यवान् रहते हैं । तब तक इनसे विभिन्न प्रकार के आभूषण और प्रसाधन सामग्री प्राप्त होती रहती है । मपु० ३. ३९, वीवच० १८-९१-९२ विभ्रम- रावण का एक सामन्त । पपु० ५७.४७-४८ - विभ्रान्त — धर्मा पृथिवी के अष्टम प्रस्तार का अष्टम इन्द्रक विल | हपु० ४.७७ विमदन - पाँचवीं पृथिवी के प्रथम प्रस्तार के तम इन्द्रक की दक्षिण दिशा में स्थित महानरक । हपु० ४.१५६ विमल - (१) रुचकगिरि की दक्षिणदिशा का एक कूट। यशोधरादिकुमारी देवी यहाँ रहती है। ० ५.००९ (२) समवसरण के तीसरे कूट के पूर्वी द्वार का एक नाम । हपु० ५७.५७ (३) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का उनचासवां नगर । हपु० २२-९० (४) राजा समुद्र विजय का मंत्री । हपु० ५०.४९ (५) रुचकगिरि की पूर्व दिशा का एक कूट, चित्रादेवी की निवासभूमि । पु० ५.७१९ (६) सौधर्म युगल का दूसरा पटल । हपु० ६.४४ दे० सौधर्म (७) आगामी बाईसवें तीर्थंकर । मपु० ७६. ४८०, हपु०६०.५६१ Jain Education International मैनपुराणको ३७५ (८) वर्तमान काल के तेरहवें तीर्थकर । मपु० २.१३१, हपु० १. १५ दे० विमलनाथ (९) जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में रम्य क्षेत्र का एक पर्वत ह ६०.६६ (१०) क्षीरवर समुद्र का एक रक्षक देव । हपु० ५.६४२ (११) मघवा चक्रवर्ती के पूर्वभव के जीव राजा शशिप्रभ के दीक्षागुरू । पपु० २०.१३१-१३३ (१२) सौमनस पर्वत का एक कूट । हपु० ५.२२१ विमलकान्तार -- असना-वन का एक पर्वत । इसी पर्वत पर विराजमान मुनि वरधर्म से सेठ भद्रमित्र ने धर्म का स्वरूप सुनकर बहुत सा धन दान में दिया था । मपु० ५९. १८८ - १८९ विमलकीर्ति - तीर्थंकर संभवनाथ के पूर्वभव के जीव - जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में कच्छ देश के क्षेमपुर नगर के राजा विमलवाहन का पुत्र । इसका पिता इसे राज्य देकर दीक्षित हो गया था । मपु० ४९.२, ७ विमलचन्द्र - ( १ ) उज्जयिनी नगरी का एक सेठ । इसकी सेठानी विमला और पुत्री मंगी थी । मपु० ७१.२११, हपु० ३३. १०१-१०४ (२) रावण का एक धनुर्धारी योद्धा । पपु० ७३.१७१-१७२ विमलनाथ - अवसर्पिणी काल के चौथे दुःखमा- सुषमा काल में उत्पन्न शलाका पुरुष एवं वर्तमान के तेरहवें तीर्थंकर । दूसरे पूर्वभव में ये पश्चिम धातकीखण्ड द्वीप में रम्यकावतो देश के पमसेन नृपतीर्थ कर- प्रकृति का बन्ध कर सहस्रार स्वर्ग में इन्होंने इन्द्र पद प्राप्त किया था ।ये सहस्रार स्वर्ग से चयकर भरतक्षेत्र के काम्पिल्य नगर में वृषभदेव "के वंशज कृतवर्मा की रानी जयश्यामा के ज्येष्ठ कृष्ण दशमी की रात्रि के पिछले प्रहर में उत्तरा-भाद्रपद नक्षत्र के रहते हुए सोलह स्वप्न पूर्वक गर्भ में आये । माघ शुक्ल चतुर्थी के दिन अहिर्बुध योग में इनका जन्म हुआ । देवों ने इनका नाम विमलवाहन रखा । तीर्थंकर वासु ज्य के तीर्थ के पश्चात् तीस सागर वर्ष का समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ । इनकी आयु साठ लाख वर्ष थी । शरीर साठ धनुष ऊँचा था । देह स्वर्ण के समान कान्तिमान् थी । पन्द्रह लाख वर्ष प्रमाण कुमार काल बीत जाने के बाद ये राजा बने । हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण विलीन होते देखकर इन्हें वैराग्य हुआ । लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य को स्तुति की । अन्य देवों ने उनका दीक्षा कल्याणक मनाया। पश्चात् देवदत्ता नामक पालकी में बैठकर ये सहेतुक वन गये । वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर माघ शुक्ल चतुर्थी के सायंकाल में से एक हजार राजाओंों के साथ दीक्षित हुए। दीक्षा लेते समय उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था । दीक्षा लेते हो इन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया । ये पारणा के लिए नन्दनपुर आये वहाँ राजा कनकप्रभ ने आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । दीक्षित हुए तीन वर्ष बीत जाने के बाद दीक्षावन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर जामुन वृक्ष के नीचे जैसे ही ये ध्यानारूढ़ हुए कि ध्यान के फल स्वरूप माघ शुक्ल षष्ठी की सायंवेला में दीक्षाग्रहण के नक्षण में इन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ । इनके संघ में पचपन गणधर, ग्यारह सौ पूर्व For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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