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________________ दिन्थ्यकेतु-विपुलवाहन २९.८८, ३०.६५-८३, हपु० १७.३६, ४०.२५-२६, ४५.११६११७, ४७.८ (३) विंध्य पर्वत के अंचल में बसा हुआ देश । यहाँ के राजा को लवणांकुश ने पराजित किया था । पपु० १०१.८३-८६ विन्ध्यकेतु-विंध्याचल के समीप स्थित विध्यपुरी का राजा। इसकी रानी प्रियंगुश्री और पुत्री विंध्यश्री थी। विध्यध्वज इसका अपर नाम था। मपु० ४५.१५३-१५४, पापु० ३.१७१ विध्यध्वज-विध्यपुरी का राजा । पापु० ३.१७१ दे० विध्यकेतु जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित गान्धार देश का एक नगर । मपु० ६३.९९ (२) जम्बद्रीप में भरतक्षेत्र के मलय देश का एक नगर । इस नगर का राजा विध्यशक्ति था । मपु० ५८.६१-८५ विध्यपुरी-विध्याद्रि के निकट विद्यमान राजा विध्यकेतु की एक नगरी । मपु० ४५.१५३, पापु० ३.१७१ दे० विन्ध्यकेतु विन्ध्यशक्ति-प्रतिनारायण तारक के दूसरे पूर्वभव का जीव-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित मलयदेश के विन्ध्यपुर नगर का राजा । इसने कनकपुर नगर के राजा सुषेण को नर्तकी गुणमंजरी को पाने को राजा सुषेण से याचना की थी किन्तु याचना विफल होने पर इसे उससे युद्ध करना पड़ा था। युद्ध में इसने सुषेण को पराजित करके गुणमंजरी प्राप्त की थी। मपु० ५८.६३-७८, ९०-९१ विन्ध्यधी-विन्ध्यपुरी के राजा विन्ध्यकेतु और रानी प्रियंगुश्री की पुत्री। वसन्ततिलका उद्यान में इसे सर्प ने काट दिया था। सुलोचना ने इसे पंच नमस्कार मंत्र सुनाया था। मंत्र के प्रभाव से यह मरणोपरान्त गंगा देवी हुई । मपु० ४५.१५३-१५६ विन्थ्यसेन-(१) वसुन्धरपुर का राजा। इसको रानी नर्मदा तया पुत्री वसन्तसुन्दरी थी । हपु० ४५.७० (२) जम्बूद्वीप के ऐरावतक्षेत्र में गान्धार देश के विन्ध्यपुर नगर का राजा। इसकी रानी सुलक्षणा और पुत्र नलिनकेतु था। मपु० ६३.९९-१०० (३) भरतक्षेत्र की कौशाम्बी नगरी का राजा। इसकी रानी विन्ध्यसेना और पुत्री वसन्तसेना थी। पापु० १३.७३-७५ विन्ध्यसेना-कौशाम्बी नगरी के राजा विन्ध्यसेन की रानी । पापु० १३. ७३-७५ दे० विन्ध्यसेन-३ विपरीतमिथ्यात्व-मिथ्यात्व के पांच भेदों में चौथा भेद । इससे ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं होकर विपरीत स्वरूप प्राप्त होता है । मपु० ६२.२९७, ३०१ विपलोवरी-दशानन को प्राप्त अनेक विद्याओं में एक विद्या । पपु० ७.३२७ विपाकविचय-धर्मध्यान के चार भेदों में चौथा भेद । इसमें कर्मों के विपाक से उत्पन्न सांसारिक विचित्रता का चिन्तन किया जाता है । शुभ और अशुभ कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो स्थिति पूर्ण होने पर स्वयं फल देते हैं और कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जो तपश्चरण आदि का जैन पुराणकोश : ३७३ निमित्त पाकर स्थिति पूर्ण होने के पूर्व फल देने लगते हैं । कर्मों के इस विपाक को जाननेवाले मुनि के द्वारा कर्मों को नष्ट करने के लिए किया गया चिन्तन विपाकविचय धर्मध्यान कहलाता है । मपु० २१.१३४, १४३-१४७ विपाकसूत्र-द्वादशांगश्रुत का ग्यारहवां अंग। इसमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के विपाक का एक करोड़ चौरासी लाख पदों में वर्णन किया गया है । मपु० ३४.१४५, हपु० २.९४, १०.४४ विपाटिनी-एक विद्या। अकंकीति के पुत्र अमिततेज ने अन्य अनेक विद्याओं के साथ इसे भी सिद्ध किया था। मपु० ६२.३९४ विपापात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १३८ विपाप्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३८ विपुल-(१) आगामी पन्द्रहवें तीर्थकर । मपु० ७६.४७९, हपु० ६०. ५६० (२) नवें कुलकर। इनका अपर नाम यशस्वान् था। मपु० ३. १२५, पपु० ३.८६ दे० यशस्वान् (३) एक उद्यान । तीर्थकर मुनिसुव्रत ने यहाँ दीक्षा ली थी । पपु० २१.३६-३७ दे० मुनिसुव्रत । विपुलल्याति-तीर्थकर संभवनाथ के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.१८ विपुलगिरि-तीर्थकर महावीर की समवसरणभूमि । हपु० २.६२ विपुलज्योति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४० विपुलमति-(१) मनःपर्ययज्ञान के दो भेदों में दूसरा भेद । मपु० २.६८, हपु० १०.१५३ (२) ऋद्धिधारी मुनि विमलमति के सहयात्री मुनि । इन्हीं मुनियों में राजा अमिततेज और राजा श्रीविजय ने अपनी आयु एक मास की शेष रह जाना ज्ञात कर मुनि नन्दन से प्रायोपगमन संन्यास धारण किया था। मपु० ६२.४०७-४१०, पापु० ४.२४२-२४४ (३) चारणऋद्धिधारी एक मुनि । प्रियदत्ता ने इन्हें आहार दिया था । मपु० ४६.७६ (४) चारणऋद्धिधारी मुनि ऋजुमति के सहयात्री मुनि । राजा प्रीतिकर ने इन्हीं से धर्म का स्वरूप और अपना पूर्वभव जाना था। मपु० ७६.३५१ विपुलवाहन-(१) तीर्थकर अभिनन्दननाथ के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.१८ (२) तीर्थकर कुन्थुनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु० २०.२८ (३) मेरु पर्वत की पूर्व दिशा में स्थित क्षेमपुरी नगरी का राजा। इसकी रानी पद्मावती तथा पुत्र श्रीचन्द्र था। पपु० १०६. ७५-७६ (४) सातव कुलकर । बड़े-बड़े हाथियों को वाहन बनाकर उन पर अत्यधिक क्रीडा करने से इन्हें इस नाम से संबोधित किया गया था। इनके पिता कुलकर सीमन्वर थे। कुलकर चक्षुष्मान् इनका पुत्र था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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