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________________ ३६४. जैन पुराणकोश (११) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र में पद्म देश में स्थित अश्वपुर नगर के राजा वज्रवीर्य की रानी । यह वज्रनाभि की जननी थी । मपु० ७३.३१-३२ (१२) जम्बूद्वीप के हेमांगद देश में राजपुर नगर के राजा सत्यन्धर की रानी । राजा सत्यन्धर के मंत्री काष्ठांगारिक द्वारा मारे जाने के पूर्व ही यह गर्भावस्था में गरुडयन्त्र पर बैठाकर उड़ा दी गयी थी । यंत्र श्मशान में नीचे आया। यह श्मशान में रही और श्मशान में ही इसके एक पुत्र हुआ । इसने लालन-पालन के लिए अपना पुत्र गन्धोत्कट सेठ को दे दिया था। गन्धोत्कट ने पुत्र का नाम जीवन्धर रखा था। इसके पश्चात् यह दण्डकारण्य के एक आश्रम में रहने लगी थी । पुत्र को राज्य प्राप्त होने के पश्चात् इसने चन्दना आर्या के समीप उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया था । मपु० ७५.१८८-१८९, २२१-२२८, २४२-२४५, २५० २५१, ६८३-६८४ दे० जीवन्धर (१३) अपराजित बलभद्र की रानी । सुमति इसकी पुत्री थी । मपु० ६३.२-४ (१४) पोदनपुर के राजा व्यानन्द और रानी अम्भोजमाला की पुत्री । यह राजा जितशत्रु की रानी तथा तीर्थङ्कर अजितनाथ की जननी थी। इसका अपर नाम विजयसेन था । मपु० ४८.१९, पपु० ५.६०-६३ (१५) एक विद्या । यह रावण को प्राप्त थी । पपु० ७.३३० ३३२ (१६) छठें बलभद्र नन्दिमित्र की जननी । पपु० २०.२३८-२३९ विजयार्ध - (१) राजा अर्ककीर्ति का हाथी । अर्ककीर्ति ने इसी पर सवार होकर जयकुमार को युद्ध से रोका था । पापु० ३.१०८-१०९ (२) इस नाम के पर्वत का निवासी इस नाम का एक देव । चक्रवर्ती भरतेश से पराजित होकर इसने भरतेश का तीर्थजल से अभिषेक किया था । मपु० ३१.४१-४५, हपु० ५.२५ (३) भरतक्षेत्र के मध्य में स्थित एक रमणीय पर्वत । इसके दोनों अन्तभाग पूर्व और पश्चिम के दोनों समुद्रों को छूते हैं । इस पर वारों का निवास है। यह पृथिवी से पच्चीस योजन ऊँचा 'पचास योजन चौड़ा और सवा छः योजन पृथिवी के नीचे गहरा है । इसका वर्ण चाँदी के समान है । पृथिवी से दस योजन ऊपर इस पर्वत की दो श्र ेणियाँ हैं। वे पर्वत के ही समान लम्बी तथा विद्याधरों के आवास से युक्त हैं । इसकी दक्षिणश्रेणी में पचास और उत्तरश्रेणी में साठ नगर हैं। इसके दस योजन ऊपर आभियोग्य जाति के देवों के नगर हैं । इनके पाँच योजन ऊपर पूर्णभद्रश्र ेणी में इस नाम के देव का निवास है। इस पर्वत पर नौ-१. सिद्धापन २. दक्षिणार्धक ३ खण्डरुप्रपात ४. पूर्णभद्र ५. विजयार्थकुमार ६. मणिभद्र ७. तामिस्रगुहक ८. उत्तरार्ध और ९. वैश्रवणकूट । इस पर्वत की उत्तरश्रेणी में निम्न साठ नगरियाँ हैं - १. आदित्यनगर २. गगनवल्लभ ३. चमरचम्पा ४. गगनमण्डल ५. विजय ६. वैजयन्त ७. शत्रु जय ८. अरिजय ९. पद्माल १०. केतुमाल ११. रुद्राश्व १२. Jain Education International विजयार्थ धनंजय १३ वस्वोक १४. सारनिवह १५. जयन्त १६. अपराजित १७. वराह १८. हस्तिन १९ सिंह २०. सौकर २१, हस्तिनायक २२. पाण्डुक २३. कौशिक २४. वीर २५ गौरिक २६. मानव २७. मनु २८. चम्पा २९. कांचन ३०. ऐशान ३१. मणिव ३२. जयावह ३३. नैमिष ३४ हास्तिविजय ३५ खण्डिका ३६. मणिकांचन ३७. अशोक ३८. वेणु ३९. आनन्द ४० नन्दन ४१. श्रीनिकेतन ४२. अग्निज्वाल ४३. महाज्वाल ४४. माल्य ४५ पुरु ४६. नन्दिनी ४७. विद्युत्प्रभ ४८. महेन्द्र ४९. विमल ५०. गन्धमादन ५१. महापुर ५२. पुष्पमाल ५३. मेघमाल ५४. शशिप्रभ ५५ चूडामणि ५६. पुष्पचूड ५७. हंसगर्भ ५८. वलाहक ५९. वंशालय और ६०. सौमनस । दक्षिणश्रेणी के पचास नगर इस प्रकार हैं- १. रथनूपुर २. आनन्द ३. चक्रवाल ४. अरिजय ५. मण्डित ६. बहुकेतु ७. शकटामुख ८. गन्धसमृद्ध ९. शिवमन्दिर १०. वैजयन्त ११. रथपुर १२. श्रीपुर १३. रत्नसंच १४. आषाढ़ १५. मानव १६. सूर्यपुर १७. स्वर्णनाभ १८. शतहृद १९. अंगावर्त २० जलावर्त २१. आवर्तपुर २२. बृहद्गृह २३. शंखवज्र २४. नाभान्त १५. मेघकूट २६. मणिप्रभ २७. कुंजरावर्त २८.२९. सिन्धु ३०. महाक ३१. कक्ष ३२. चन्द्रपर्वत ३३. श्रीकूट ३४. गौरिकूट ३५. लक्ष्मीकूट ३६. घराघर ३७. कालशपुर २८. रम्यपुर ३९ हिमपुर ४०. किन्नरोद्गोतनगर ४१. नभस्तिलक ४२. मगधासारनलका ४३. पांशुमूल ४४. दिव्यौषध ४५. अर्कमूल ४६. उदयपर्वत ४७ अमृतघार ४८. मातंगपुर ४९. भूमिकुण्डलकूट और ५० जम्बू शंकुपुर। जम्बूद्वीप में बत्तीस विदेहों के बत्तीस तथा एक भरत और एक ऐरावत को मिलाकर ऐसे चौंतीस पर्वत हैं । प्रत्येक में एक सौ दस विद्याधरों की नगरियाँ हैं । यहाँ का पृथिवीतल सदा भोगभूमि के समान सुशोभित रहता है। चक्रवर्ती के विजयक्षेत्र की आधी सीमा का निर्धारण इस पर्वत के होने के कारण इसे इस नाम से सम्बोधित किया गया है। इस पर्वत का विद्याधरों से संसर्ग रहने तथा गंगा-सिन्धु नदियों के नीचे होकर बहने से कुलाचलों का विजेता होना भी इसके नामकरण में एक कारण है । यह पर्वत, अचल, उत्तुंग, निर्मल, अविनाशी, अभेद्य, अलंघ्य तथा महोन्नत् है । पृथिवीतल से दस योजन ऊपर तीस योजन चौड़ा है । इसके दस योजन ऊपर अग्रभाग में यह मात्र दस योजन चौड़ा रह गया है। यहाँ किसी भी प्रकार का राजभय नहीं है । यहाँ अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि ईतियाँ भी नहीं होती। यहाँ के वन प्रदेशों में कोयले कृकती हैं। भरतक्षेत्र के चौथे काल के आरम्भ में मनुष्यों की जो स्थित होती है वही यहां के मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति होती है और चतुर्थ काल की अन्त की स्थिति यहाँ की जघन्य स्थित है । उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व तथा जघन्य आयु सौ वर्ष, उत्कृष्ट ऊँचाई पाँच सौ धनुष तथा जघन्य ऊँचाई सात हाथ होती है । कर्मभूमि के समान परिवर्तन तथा आजीविका के षटकर्म यहाँ भी होते है। अन्तर यही है कि यहाँ महाविद्याएं इच्छानुसार फल दिया करती हैं । विद्याएं यहाँ तीन प्रकार की होती हैं—कुल, जाति और तप से उत्पन्न । प्रथम विद्याएँ कुल परम्परा से प्राप्त होती है, जाति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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