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________________ ४५२ विजयपुरी-विजया जैन पुराणकोश : ३६३ (२) जम्बूद्वीप के ऐरावतक्षेत्र महापुराण के अनुसार विदेहक्षेत्र का इसे असि प्रहार से मार डाला था। पपु० ६.३५५-३५९, ४२७, एक नगर । कृष्ण की पटरानी जाम्बवती पूर्वभव में इस नगर के राजा बन्धुषेण अपर नाम मधुषेण और रानी बन्धुमती की बन्धुयशा विजयसुन्दरी-राजा अतिवीर्य और रानी अरविन्दा की बड़ी पुत्री । नाम की कन्या थी। मपु० ७१.३६३-३६४, हपु० ६०.४८ रतिमाला इसकी बहिन और विजयस्यन्दन इसका भाई था। इसके (३) विजयार्घ पर्वत की उत्तरश्रेणी का छप्पना नगर । मपु० भाई ने इसे भरत को और इसकी बहिन रतिमाला लक्ष्मण को १९८६-८७ विवाही थी । पपु० ३८.१-३, ८-१० (४) मगध देश का एक नगर । घर से निकलकर सर्वप्रथम वसुदेव विजयसेन-मृणालकुण्ड नगर का राजा। रत्नचला इसकी रानी तथा ने यहाँ आकर विश्राम किया था। यहां के राजा ने अपनी कन्या वज्रकम्बु पुत्र था । पपु० १०६.१३३-१३४ दे०-वनकम्बु श्यामला वसुदेव को दी थी। मपु० ७०.२४९-२५२, पापु० ११.१७ ।। विजयसेना-(१) साकेत नगर के राजा जितशत्रु की रानी । यह तीर्थ (५) एक नगर । यहाँ के राजा विजयनन्दन ने वीतशीकपुर ङ्कर अजितनाथ की जननी थी। मपु० ४८.१९ नगर के राजा मेरुचन्द्र की पुत्री गौरी कृष्ण को दी थी। मपु. (२) विजयखेट नगर के क्षत्रिय गन्धर्वाचार्य सुग्रीव की छोटी ७१.४३९-४४१ पुत्री। इसकी बड़ी बहिन सोमा थी। वसुदेव ने इन दोनों बहिनों विजयपुरो-विदेहक्षेत्र के पद्मावती अपर नाम पद्मकावती देश को को गन्धर्व विद्या में पराजित किया था। अतः सन्तुष्ट होकर इनके मुख्य नगरी । मपु० ६३.२१५, हपु० ५.२४९-२५०, २६१-२६२ पिता ने दोनों कन्याएँ वसुदेव को दे दी थीं। अब र इसी का पुत्र विजयभन-(१) राजा त्रिपृष्ठ और रानी स्वयंप्रभा का दूसरा पुत्र। था । हपु० १९.५२-५९ त्रिपृष्ठ के भाई विजय बलभद्र ने इसे युवराज बनाया था। मपु० (३) अमितगति विद्याधर की प्रथम स्त्री । गन्धर्वसेना इसकी पुत्री ६२.१५३, १६६, पापु० ४.४६ दे० त्रिपृष्ठ थी । हपु० २१.११८-१२० दे० अमितगति विजयस्यन्वन-(१) राजा अतिवीर्य और रानी अरविन्दा का पुत्र । (२) जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में वत्सकावती देश की प्रभाकरी पपु० ३८.१ दे० विजयसुन्दरी नगरी के राजा नन्दन और रानी जयसेना का पुत्र । इसने पिहितास्रव (२) वज्रबाहु का बाबा । अपने नाती के दीक्षित हो जाने पर यह गुरु से चार हजार राजाओं के साथ संयम धारण किया और तप भोगों से उदासीन हो गया था। अतः इसने छोटे पोते पुरन्दर को करते हुए शरीर का त्याग करके यह स्वर्ग के चक्रक नामक विमान में राज्य सौंपकर पुत्र सुरेन्द्रमन्यु के साथ निर्वाणघोष मुनि से दीक्षा ले सात सागर की आयु का धारी देव हुआ । मपु० ६२.७५-७८ . ली थी । पपु० २१.१२८-१२९, १३८-१३९ विजयमति-हेमांगद देश के राजपुर नगर का एक श्रावक । यह इसी विनया-(१) समवसरण के सप्तपर्ण वन को एक वापी । हपु० ५७.३३ नगर के राजा सत्यन्धर का सेनापति था। जयावती इसकी स्त्री (२) रुचकगिरि की ऐशान दिशा में स्थित रत्नकूट की एक देवी । थी । जीवन्धर के मित्र देवसेन के ये माता-पिता थे । मपु० ७५.२५६- हपु०५.७२५ २५९ (३) अपरविदेहस्थ वप्रक्षेत्र की प्रधान नगरी। मपु० ६३.२०८विजयमित्र-तीर्थङ्कर वृषभदेव के बत्तीसवें गणधर । हपु० १२.६० २१६, हपु० ५.२६३ विजयराम-बलभद्र राजा राम और रानी सीता का पुत्र । इसने अपने (४) भरतक्षेत्र की उज्जयिनी नगरी के राजा की रानी। इसको विनयश्री पुत्री थी जो हस्तिनापुर के राजा से विवाही गयी थी। पिता के साथ संयम ले लिया था। मपु० ६८.६९०, ७०५-७०६ हपु० ६०.१०५-१०६ विजयशार्दूल-नंद्यावर्तपुर के राजा अतिवीर्य का मित्र एक राजा। (५) रुचकवरगिरि की पूर्व दिशा में विद्यमान आठ कूटों में प्रथम इसने विजयनगर के राजा पृथिवीधर के साथ अतिवीर्य का युद्ध वडूयंकट की दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.७०५ होने पर अतिवीर्य की सहायता की थी। पपु० ३७.५-६, १३ (६) नन्दीश्वर द्वीप की दक्षिणदिशा में स्थित अंजनगिरि की पूर्व विजयश्री-तीर्थङ्कर धृषभदेव के सैंतीसवें गणधर । हपु० १२.६१ दिशा में स्थित एक वापी । हपु० ५.६६० विजयश्रुति-तीर्थङ्कर वृषभदेव के पैसठवें गणघर । हपु० १२.६६ (७) एक यादव-कन्या । इसे पाण्डव-नकुल ने विवाहा था। हपु० विजयसागर-राजा जितशत्रु का अनुज और चक्रवर्ती सागर का पिता । ४७.१८, पापु० १६.६२ सुमंगला इसकी रानी थो । पपु० ५.७४-७५ (८) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी की बत्तीसवीं नगरी। मपु० विजयसिंह-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयाध पर्वत पर रथनपुर नगर । १९.५०, ५३ के राजा अशनिवेग विद्याधर का पुत्र । यह आदित्यपुर के राजा (९) जम्बूद्वीप के खगपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेन की विद्याधर विद्यामन्दर की पुत्री श्रीमाला के स्वयंवर में गया था। रानी । यह सुदर्शन बलभद्र को जननी थी। मपु० ६१.७० श्रीमाला के किष्किन्धकुमार के गले में माला डालने से यह कुपित (१०) एक शिविका । तीर्थङ्कर कुन्थुनाथ इसी में बैठकर दीक्षार्थ हुआ और जैसे ही अन्धकरूढ़ि के सामने आया कि अन्धकरूढ़ि ने वन गये थे। मपु० ६४.३८ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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