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________________ ३४६ : जैन पुराणकोश वज्रार्गल-बनगिरि उनतीस सागर की आयु का धारी अहमिन्द्र हुआ था । मपु० ६३.३७३९, ४४-४५, ५०-७०, ८५, १३८-१४१, पापु० ५.११-१२, १७ ३६,४५-५२ वज्रार्गल-विजया को दक्षिणश्रेणी का तेरहवां नगर । मपु० १९. । ४२, ५३ वज्रावर्त-एक धनुष । राम ने इसी धनुष को चढ़ाकर स्वयंवर में सीता को प्राप्त किया था । पपु० २८.२४०-२४३ वास्य-एक विद्याधर राजा। यह विद्याधर नमि के वंशज राजा वजसंज्ञ अपर नाम वचसुन्दर का पुत्र और वज्रपाणि का पिता था। पपु० ५.१९, हपु० १३.२३ दे० वनसंज्ञ वज्रोवर-दशानन का पक्षधर एक विद्याधर नृप । यह हनुमान द्वारा दो बार रथ से च्युत किये जाने के पश्चात् अन्त में मारा गया था । पपु० ८.२६९-२७३, ६०.२८-३१ वज्रोवरी-एक विद्या । यह दशानन को प्राप्त थी । पपु० ७.३२८ वट-तीर्थकर वृषभदेव का चैत्यवृक्ष । मपु० २०.२२०, पपु० २०. ३६-३७ वटपुर-एक नगर । मधु और कैटभ यहाँ आये थे। इस समय यहाँ का राजा वीरसेन था। हपु० ४३.१६३ वटवृक्ष-वनगिरि नगर के राजा हरिविक्रम के सात सेवकों में प्रथम सेवक । मपु० ७५.४८० वणिक्पथपुर-भरतक्षेत्र का एक नगर । कौरव और पाण्डवों द्वारा राज्य विभाजन किये जाने के पश्चात् पाण्डव सहदेव ने इस नगर को अपनी निवासभूमि बनाया था। पापु १६.७ वणिज्-तीर्थकर वृषभदेव द्वारा निर्मित तीन वर्षों में दूसरा वर्ण । इसका अपर नाम वैश्य था । ये कृषि, व्यापार और पशुपालन आदि के द्वारा न्यायपूर्वक जीविका करते थे। इस वर्ण को वृषभदेव ने स्वयं यात्रा करके यात्रा करना सिखाया था। जल और स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा करके व्यापार करना इस वर्ण की जीविका का मुख्य साधन था। मपु० १६.१८३-१८४, २४४, ३८.४६। वतंसकूट-मेरु से उत्तर की ओर सीता नदी के पश्चिम तट पर भद्रशाल बन में स्थित एक कूट । यहाँ देव दिग्गजेन्द्र रहता है। हपु० ५. दिशा के विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिणी-तट पर स्थित देश । सुसीमा नगरी इस देश की राजधानी है । मपु० ५६.२ वत्सकावती-पूर्व-विदेहक्षेत्र में सीता नदी और निषध-पर्वत के मध्य स्थित आठ देशों में चौथा देश। यह दक्षिणोत्तर लम्बा है। मपु० ७.३३, ८.१९१, ४८.५८, हपु० ५.२४७-२४८ बसनगरी जम्बदीप के भरतक्षेत्र की कौशाम्बी नगरी । पदमप्रभ तीर्थकर इसी नगरी में जन्मे थे। मपु० ५२.१८, पपु० २०.४२ वत्समित्रा-एक दिक्कुमारी देवी। यह मेरु सम्बन्धी सौमनस-पर्वत के एक कूट पर क्रीड़ा करती है । हपु० ५.२२७ वत्सराज-शक सम्वत् सात सौ पाँच में हआ अवन्ति देश का एक राजा । हरिवंशपुराण की रचना इसी राजा के समय में आरम्भ हुई थी। हपु० ६६.५२ वत्सा-जम्बद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी और निषध पर्वत के मध्य स्थित आठ देशों में प्रथम देश । यह दक्षिणोत्तर लम्बा है । मपु० ६३.२०९, हपु० ५.२४७-२४८ वदतांवर-भरतेश एवं सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९, २५.१४६ वष-(१) असातावेदनीय कर्म के दुःख शोक आदि आस्रवों में एक आस्रव । हपु० ५८.९३ (२) अहिंसाणुव्रत का दूसरा अतीचार-दण्ड आदि से मारनापीटना । हपु० ५८.१६४-१६५ वधकारिणी-एक विद्या। रावण को यह विद्या प्राप्त थी। पपु० ७. ३२६ वषपरोषह-बाईस परीषहों में एक परीषह । इसमें शरीर में निःस्पृह भाव रखते हुए पीड़ा, मारण आदि जनित वेदना सहन करनी होती है । मुनि इसे निष्कलेष-भाव से सहते हैं । मपु० ३६.१२१ वषमोचन-एक विद्या । रथनूपुर के स्वामी अमिततेज ने चमरचंच-नगर के राजा अशनिघोष को मारने के लिए पोदनपुर के राजा श्रीविजय को यह विद्या भेंट में दी थी। मपु० ६२.२४२-२४६, २६८-२७१ वनक-दूसरी नरकभूमि के चौथे प्रस्तारक का चौथा इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में एक सौ बत्तीस, विदिशाओं में एक सौ अट्ठाईस श्रेणीबद्ध बिल हैं । हपु० ४.७८, १०८ .. वनक्रीडा-क्रीडा-विनोद का एक भेद । यह शिशिर के पश्चात् की जाती है। दम्पति यहाँ आकर वृक्षों की टहनियाँ हिलाकर और पत्र-पुष्प तोड़कर क्रीडा करते हैं। ऐसी क्रीडा करनेवाले यदि पति-पत्नी नहीं होते तो वे समवयस्क अवश्य होते हैं । मपु० १४.२०७-२०८ बनगिरि-(१) भरतक्षेत्र का एक पर्वत । भरतक्षेत्र में रत्नपुर नगर के राजा प्रजापति ने अपने पुत्र चन्द्रचूल को किसी वैश्य कन्या को बलपूर्वक अपने अधीन करने के अपराध में प्राणदण्ड दिया था। मंत्री स्वयं दण्ड देने की राजा से अनुमति लेकर राजकुमार के साथ इसी पर्वत पर आया था और यहाँ मंत्री ने महाबल मुनि से राजकुमार का २०८ वत्स-(१) जम्बद्वीप में भरतक्षेत्र के मध्य आर्यखण्ड का एक देश । कौशाम्बी इस देश को मुख्य नगरी थी। इस देश की रचना तीर्थङ्कर वृषभदेव के समय में की गयी थी। मपु० १६.१५३,७०.६३, पपु० ३७.२२, हपु० ११.७५, १४.२ (२) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सोता नदी के दक्षिण तट पर स्थित एक देश । सुसीमा इस देश की प्रसिद्ध नगरी है। मपु० ४८.३-४ .. (३) धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर स्थित देश । मपु० ५२.२-३ ...... (४) पुष्करवर द्वीप के पूर्वार्ध भाग में स्थित मेरु-पर्वत की पूर्व Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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