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________________ लता-लवणाम्बोधि ३३६ : जैन पुराणकोश काल चौरासी का गुणा करने से प्राप्त संख्या प्रमित होता है । मपु. ३.२२५-२२६, हपु० ७.२९ लता-चौरासी लाख लतांग प्रमित काल । महापुराण के अनुसार यह लतांग काल में चौरासी लाख का गुणा करने से प्राप्त संख्या प्रमित होता है । मपु० ३.२२६, हपु० ७.२९ लतावन-समवसरण का लता समूह से युक्त एक वन । मपु० १९.११५, २२.११८ लम्बाभिमान-राजा वसु की वंश-परम्परा में हुआ राजा वज्रबाहु का पुत्र । वह राजा भानु का पिता था । हपु० १८.१-३ लब्धि-(१) भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग इन दो रूपों में प्रथम रूप । हपु० १८.८५ (२) सम्यक्त्व प्राप्ति की पूर्व सामग्री। यह पाँच प्रकार की हैक्षयोपशम, विशुद्धि, प्रायोग्य, देशना तथा करण । इनके प्राप्त होने पर जो आत्मविशुद्धि के अनुसार दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय करता है उसे सर्वप्रथम औपशमिक, पश्चात् क्षायोपशमिक और तत्पश्चात् क्षायिक-सम्यक्त्व प्राप्त होता है । हपु० ३.१४१-१४४ लम्पाक-(१) एक मांगलिक वाद्य । यह राम की सेना के लंका की ओर प्रस्थान करते समय बजाया गया था। पपु० ५८.२७ (२) एक देश । लवणांकुश और मदनांकुश दोनों भाई लोकाक्षनगर के राजा कुबेरकान्त को पराजित करने के पश्चात् नौकाओं के द्वारा यहाँ आये थे और उन्होंने यहाँ के राजा एककर्ण को पराजित किया था। यहाँ से वे दोनों भाई कैलाश की ओर गये थे। पपु० १०१.७०-७५ लम्बिताधर-यह विद्याधर बिम्बोष्ठ का पुत्र और रक्तोष्ठ का पिता था। पपु० ५.५१-५२ लम्बुसा-रुचकगिरि के उत्तरदिशावर्ती स्फटिककूट की एक देवी। हपु० ५.७१५ दे० रुचकवर लय-तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१५१ ललाटिका-ललाट पर चन्दन की लिखी गयी अर्धचन्द्र की आकृति । यह स्त्रियों के सौन्दर्य की वृद्धि करती है । पपु० ३.१९० ललितांग-(१) राजा महाबल का जीव । यह ऐशान स्वर्ग का एक देव था । यह तपाये हुए स्वर्ण के समान कान्तिमान था। इसकी ऊँचाई सात हाथ थी। यह एक हजार वर्ष बाद मानसिक आहार और एक पक्ष में श्वासोच्छ्वास लेता था। इसकी चार महादेवियाँ तथा चार हजार देवियाँ थीं। महादेवियों के स्वयंप्रभा, कनकप्रभा, कनकलता और विद्युल्लता नाम थे। आयु के अन्त में अच्युत स्वर्ग की जिन प्रतिमाओं की पूजा करते हुए तथा चैत्यवृक्ष के नीचे बैठकर नमस्कार मन्त्र को जपते हुए स्वर्ग से चयकर राजा वचबाहु का पुत्र वज्रजंघ हुआ । यही जीव आगामी सातवें भव में नाभेय-वृषभदेव हुआ। मपु० ५.२५३-२५४, २७८-२८३, ६.२४-२९ (२) इस नाम का एक विट । जम्बूकुमार ने इसकी एक कथा विद्युच्चोर को सुनायी थी। मपु० ७६.९४ ललितांगद-त्रिपुर नगर का एक विद्याधर राजा। रथनूपुर के राजा ज्वलनजटी के बहुश्रु त मन्त्री ने राजा के समक्ष उसकी पुत्री स्वयंप्रभा के लिए इस राजा का नाम प्रस्तावित किया था। मपु० ६२.२५, ३०, ४४, ६७ लल्लक-छठी पृथिवी के तीसरे प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों महादिशाओं में आठ और विदिशाओं में चार, कुल बारह श्रेणीबद्ध बिल हैं । हपु० ४, ८४, १४७ लव-सात स्तोक प्रमित काल । हपु. ७.२०, दे० काल लवणसैन्धव-लवणसमुद्र । इसके जल का स्वाद नमक के समान खारा होता है। इसके महामच्छों का सम्मूर्च्छन जन्म होता है। ये मच्छ इसके तट पर नौ योजन और मध्य में अठारह योजन लम्बे होते हैं। तीर्थकर वृषभदेव के राज्याभिषेक के लिए इस समुद्र का जल लाया गया था। मपु० १६.२१३, हपु० ५.६२८, ६३०, दे० लवणाम्भोधि लवणांकुश-राम और सीता का पुत्र । यह मदनांकुश के साथ युगल रूप में पुण्डरीक नगर के राजा वज्रजंघ के यहाँ श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन जन्मा था। सिद्धार्थ क्षुल्लक ने इन्हें शस्त्र और शास्त्र विद्याएं सिखाई थीं। विवाह योग्य होने पर राजा वजजंघ ने इन्हें शशिचूला आदि अपनी बत्तीस कन्याएं दी थीं। इन दोनों भाइयों ने विवाह के पश्चात् दिग्विजय करके अनेक राजाओं को अपने अधीन किया था । नारद से राम और लक्ष्मण का परिचय ज्ञातकर तथा गर्भावस्था में उनके द्वारा सीता का त्याग किया जाना जानकर दोनों ने रामलक्ष्मण से घोर युद्ध किया था । राम और लक्ष्मण इन्हें परास्त नहीं कर सके थे । इस युद्ध में राम ने लवणांकुश का तथा लक्ष्मण ने मदनांकुश का सामना किया था। ये दोनों कुमार राम और लक्ष्मण का परिचय ज्ञात कर चुके थे । अतः ये दोनों तो राम-लक्ष्मण को चोट पहुँचाये बिना युद्ध करते रहे जबकि राम और लक्ष्मण ने इन कुमारों को शत्रु समझकर युद्ध किया था। लक्ष्मण ने तो चक्र भी चलाया था । अन्त में सिद्धार्थ क्षुल्लक ने इन दोनों कुमारों का राम और लक्ष्मण को परिचय देते हुए जैसे ही उन्हें सीता का पुत्र बताया कि राम और लक्ष्मण ने अपने-अपने शस्त्र फेंक दिये और दोनों सहर्ष इन कुमारों से जा मिले थे । संसार से विरक्त होने पर राम ने इसी के पुत्र अनंगलवण को राज्य सौंपा था। पपु० १००.१६-४७, ६९, १०१.१-२, ६७, १०२.३१-४५, १६९-१७०, १८३, १०३.१६, २९-३०, ४३-४८, ११९.१-२, १२३.८२ दे० मदनांकुश लवणाम्बोधि-जम्बूद्वीप को घेरे हुए दो लाख योजन विस्तारवाला लवण समुद्र । विजया पर्वत की पूर्व और पश्चिम कोटियाँ इसमें अवगाहन करती हैं । इसमें हजारों द्वीप स्थित स्थित हैं । इसकी परिधि पन्द्रह लाख, इक्यासी हजार, एक सौ उनतालीस और एक योजन में कुछ कम है । शुक्लपक्ष में इसका जल पाँच हजार योजन तक ऊँचा हो जाता है तथा कृष्ण पक्ष में स्वाभाविक ऊंचाई ग्यारह हजार योजन तक घट जाती है । यह संकुचित होता हुआ नीचे भाग में नाव के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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