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________________ ३२४ : जैन पुराणकोश रविप्रिय-राक्षस (२) प्रथम स्वर्ग के रविप्रभ विमान का एक देव । इसने सुलोचना (२) काव्य का एक अंग । ये नौ होते है-शृंगार, हास्य, करुण के शील को परीक्षा के लिए देवी कांचना को जयकुमार के पास वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र, बीभत्स और शान्त । पपु० २४.२२-२३ भेजा था । देवी ने जयकुमार से अनेक चेष्टाएँ की किन्तु वह सफल (३) रत्नप्रभा पृथिवी के खरभाग का नौवां पटल । हपु० ४.५३ न हो सकी । अन्त में कुपित होकर जब वह जयकुमार को ही उठाकर रसत्याग-निद्रा और इन्द्रिय विजय के लिए किया जानेवाला एक बाह्य ले जाने लगी तब सुलोचना ने उसे ललकारा था। वह सुलोचना के तप । इसमें नित्य आलस्य रहित होकर दूध, घी, गुड़ आदि रसों का शील के आगे कुछ न कर सकी और स्वर्ग लौट गयी। इस देवी ने त्याग किया जाता है। इसका अपर नाम रसपरित्याग है। मपु० इस देव को वह सब वृत्तान्त सुनाया। यह देव जयकुमार के निकट २०.१७७, हपु० ६४.२४, वीवच० ६.३५ गया तथा क्षमायाचना कर इसने जयकुमार की रत्नों से पूजा की ___ रसना-(१) पाँच इन्द्रियों में दूसरी इन्द्रिय-जिह्वा। मपु० १४.११३ थी। मपु० ४७.२५९-२७३, पापु० ३.२६१-२७२ (२) एक आभूषण-मेखला । इसे पुरुष और स्त्री दोनों अपने कटि (३) वानरवंशी राजा समीरणगति का पुत्र । यह अमरप्रभ का प्रदेश पर धारण करते हैं । इससे नीचे छोटी-छोटी घंटियां लटकाई पिता था। पपु० ६.१६१-१६२ जाती है । मपु० ७.२३६, १५.२०३ (४) जम्बद्वीप का एक नगर । लक्ष्मण ने इस पर विजय की थी। रसद्धि-एक ऋद्धि । यह उग्र तपस्या से प्राप्त होती है। मपु० ३६.१५४ पपु० ९४.४-९ हपु० १८.१०७ रविप्रिय-सहस्रार स्वर्ग का एक विमान । अशनिघोष हाथी मरकर इसी ___रसातलपुर-लंका का एक नगर । राजा वरुण इसी नगर में रहता था। विमान में श्रीधर देव हुआ था। मपु० ५९.२१२-२१९ पपु० १९.९ रविमन्यु इक्ष्वाकुवंशी राजा कमलबन्धु का पुत्र और वसन्ततिलक का रसाधिकाम्भोद-रसाधिक जाति के मेघ । ये रस की वर्षा करते हैं। पिता । पपु० २२.१५५-१५९ इनसे छहों रसों की उत्पत्ति होती है। ये मेघ उत्सर्पिणी काल के रवियान-राम का सामन्त । रावण की सेना को देखकर यह रथ पर अतिदुःषमा काल में बरसते हैं। मपु० ७६.४५४, ४५८ आरूढ़ होकर युद्ध करने बाहर निकला था। पपु० ५८.१८-१९ रसायनपाक-भरतक्षेत्र में सिंहपुर नगर के राजा कुम्भ का रसोइया । रविवीर्य-चक्रवर्ती भरतेश का पुत्र । इसने जयकुमार के साथ तीर्थङ्कर यह राजा को नर-मांस देकर जीवित रखता था। एक दिन राजा ने वृषभदेव से दीक्षा ले ली थी। मपु० ४७.२८३-२८४ । इस रसोइये को ही मारकर विद्या सिद्ध की थी। मपु० ६२.२०५रश्मिकलाप-एक हार। यह चौवन लड़ियों का होता है। मपु० २०९, पापु० ४.११९-१२३ रहोभ्याख्यान-सत्याणुव्रत का एक अतिचार-स्त्री-पुरुषों की एकान्त रश्मिवेग-(१) पुष्पपुर नगर के राजा सूर्यावर्त और रानी यशोधरा का चेष्टा को प्रकट करना । हपु० ५८.१६७ पुत्र । यह चारणऋद्धिधारी मुनि हरिचन्द्र से धर्म का स्वरूप सुनकर राक्षस -(१) व्यन्तर जाति के देव । ये पहली पृथिवी के पंकभाग में उन्हीं से दीक्षित हो गया था । शीघ्र ही इसने आकाशचारणऋद्धि भी रहते हैं । हपु० ४.५० प्राप्त कर ली थी। कांचनगुहा में एक अजगर ने इसे पूर्व वैरवश (२) रात्रि का दूसरा प्रहर । मपु० ७४.२५५ निगल लिया था। अतः अन्त में संन्यासपूर्वक मरण करके यह (३) पलाशनगर का राजा । इसे राक्षस-विद्या सिद्ध होने के कारण कापिष्ठ-स्वर्ग के अकंप्रभ-विमान में देव हुआ। मपु० ५९.२३१ इसका यह नाम प्रसिद्ध हो गया था । मपु० ७५.११६ २३८, हपु० २७.८०-८७ (४) एक विद्या । मपु० ७५.११६ (२) रथनूपुर के राजा अमिततेज ने अपने वैरी विद्याधर अशनि- (५) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित एक द्वीप । घोष को मारने अपने बहनोई विजय के साथ इसे और इसके अन्य राक्षसवंशी-विद्याधरों द्वारा रक्षा किये जाने से यह द्वीप इस नाम से भाइयों को भेजा था । मपु० ६२.२४१, २७२-२७५ प्रसिद्ध हुआ । इसकी परिधि इक्कीस योजन है। पपु० ३.४३, ५. (३) जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के त्रिलोकोत्तम ३८६, ४८.१०६-१०७ नगर के राजा विद्य द्गति और रानी विद्युन्माला का पुत्र । यह (६) विद्याधर मनोवेग का पुत्र । सुप्रभा इसकी रानी थी । इसके अपनी युवा अवस्था में ही समाधिगुप्त मुनिराज से दीक्षित हो गया दो पुत्र थे-आदित्यगति और वृहत्कीर्ति । इस राजा ने इन्हीं पुत्रों था । हिमगिरि की एक गुफा में योग में लीन स्थिति में एक अजगर को राज्यभार सौंपकर दीक्षा ले ली थी। यह मरकर स्वर्ग में देव इसे निगल गया था। समाधिपूर्वक मरने से यह अच्युत स्वर्ग के हुआ। पपु० ५. ३७८-३८० पुष्कर-विमान में देव हुआ । मपु० ७३.२५-३० (७) विद्याधरों का एक वंश । इस वंश में एक राक्षस नाम का रस-(१) रसना-इन्द्रिय का विषय । यह छः प्रकार का होता है- विद्याधर हुआ है, जिसके नाम पर यह वंश प्रसिद्ध हुआ। पपु० कड़वा, खट्टा, चरपरा, मीठा, कषायला और खारा। मपु० ९.४६, ५.३७८ ७५.६२०-६२१ (८) राक्षसवंशी-विद्याधर । राक्षस जातीय देवों के द्वारा द्वीप को Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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