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________________ २१८ मैनपुराणा द्वीप की पारों दिशाओं में चार अंजनगिरि, सोलह दधिमुख और बत्तीस रतिकरों के बावन चैत्यालय प्रसिद्ध हैं । हपु० ५.६७३-६७६ रतिकर्मा - जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की मृणालवती नगरी का निवासी एक सेठ । कनकश्री इसकी पत्नी तथा भवदेव पुत्र था । पापु० ३.१८७-१८९ रतिकान्ता - रावण की एक रानी । पपु० ७७.१५ रतिकोतिर देवों के सोलह इन्द्रों में आठ व्यन्तरेन्द्र बीवच० १४.६० रतिकूट - विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी का सैंतीसवां नगर । मपु० १९.५१ रतिकूल एक मुनि सर्वज्ञ मुनि भीम ने चित्रा, विश्वेगा, पनवती और धनश्री व्यन्तर कन्याओं को इन मुनिराज का चरित्र सुनाया था । मपु० ४६.३४८-३६४ रतिनिभा - राम की आठ हजार रानियाँ थीं। इनमें चार महादेवियाँ थीं। यह तीसरी महादेवी है। पपु० ९४.२४-२५ रतिपि विदेहक्षेत्र का एक कोतवाल इसे एक सेठ के घर से बहुमूल्य मणियों का हार चुराकर वेश्या को देने के अपराध में प्राण दण्ड दिया गया था। मपु० ४६. २७५-२७६ रतिप्रभा - राजा हिरण्यवर्मा विद्याधर और रानी प्रभावती की पुत्री । इसके नाना वायुरथ के भाई बन्धुओं ने इसे मनोरथ के पुत्र चित्ररथ के साथ विवाहा था । मपु० ४६. १७७-१८१ रतिभाषा - सत्यप्रवादपूर्व में वर्णित बारह प्रकार की भाषाओं में राग को उत्पन्न करनेवाली एक भाषा । हपु० १०.९१-९४ रतिमन किन्नरगीत नगर का विद्याधर राजा अनुमति इसकी रानी तथा सुप्रभा पुत्री थी । पपु० ५.१७९ रतिमाल — विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्र ेणी के रथनूपुर चक्रवाल-नगर के राजा सुकेतु विद्याधर का भाई । इसने अपनी पुत्री रेवती मथुरा ले जाकर कृष्ण के भाई बलभद्र को दी थी । हपु० ३६.५६, ६०-६१ रतिमाला —कलिंग के राजा अतिवीर्य और रानी अरविन्दा को पुत्री तथा लक्ष्मण की आठ महादेवियों में पाँचवीं महादेवी । श्रीकेशी इसका पुत्र था विजयस्यन्दन] इसका भाई और विजय सुन्दरी इसकी बड़ी बहिन थी जो भरत को दी गयी थी । पपु० ३७.८६, ३८.१-३, ९, ९४.१८२३, ३४ रतिवर— जम्बूद्वीप- पूर्व विदेहक्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के कुबेरमित्र सेठ का एक कबूतर । इसकी पत्नी रतिषेणा कबूतरी थी। यह जयकुमार के पूर्वभव का जीव तथा कबूतरी जयकुमार के प्रबंभव की पत्नी सुलोचना का जीव थी । मपु० ४६.१९-३० दे० जयकुमार रतिवर्द्धन - (१) विद्याधरों का स्वामी । यह राम का पक्षधर योद्धा था । भरत के साथ इसने दीक्षा ले ली थी। मपु० ५८.३-७, ८८.१-९ (२) भरतक्षेत्र की काकन्दी नगरी का राजा। इसकी रानी सुदयांना थी। इसके दो पुत्र थे-प्रियंकर और हितकर सर्वगुप्त इसका मंत्री था । वह ईर्षा वश इसका वध करना चाहता मंत्री की था। Jain Education International रतिकर्मा-पतिवेगा पत्नी विजयावली इसे चाहती थी अतः उसने अपने पति का रहस्य इससे प्रकट कर दिया जिससे यह सावधान रहने लगा था। एक दिन मंत्री सर्वगुप्त ने इसके महल में आग लगवा दी। यह अपनी स्त्री और बच्चों के साथ पूर्व निर्मित सुरंग से बाहर निकल गया और काशी के राजा कशिपु के पास गया। कशिपु और इसके मंत्री सर्वगुप्त के बीच युद्ध हुआ । सर्वगुप्त जीवित पकड़ा गया और इसे अपने राज्य की प्राप्ति हो गयी । अन्त में यह भोगों से विरक्त हुआ और इसने जिनदीक्षा धारण कर ली। मंत्री की पत्नी विजयावली मरकर राक्षसी हुई। इस राक्षसी ने मुनि-अवस्था में इसके ऊपर घोर उपसर्ग किये किन्तु ध्यान में लीन रहकर इसने उन्हें सहन किया । पश्चात् शुक्लध्यान द्वारा कर्म नाश करके यह मुक्त हुआ । पपु० १०८.७-३८, ४५ (२) कोचक मुनिराज के दीक्षागुरु एक मुनि ०४६.२७ रतिवर्मा -- मृणालवती नगरी के सेठ सुकेतु का पिता । भवदत्त इसका पौत्र था । मपु० ४६.१०४ रतिवेग - राम के समकालीन एक मुनि । इन्द्रजित के पुत्र वज्रमाली और सुन्द के पुत्र चारुरत्न के ये दीक्षागुरु थे । पपु० ११८.६६-६७ रतिवेगा (१) मृणालवती नगरी से सेठ श्रीदत्त और सेठानी म की सती पुत्री इसी नगरी के सेठ केतु का पुत्र भवदेव धन उपार्जन करके इसे विवाहना चाहता था, किन्तु विवाह के समय तक धन कमाकर न लौट सकने से इस कन्या का विवाह इसी नगरी के अशोकदेव सेठ के पुत्र सुकान्त के साथ कर दिया गया। भवदेव ने इसे पराजित करना चाहा परन्तु सुकान्त और यह दोनों शक्तिषेण सामन्त की शरण में जा पहुँचे । भवदेव उसे पराजित नहीं कर सका और मपु० ४६.९४ - ११० । निराश होकर लौट आया (२) राजपुर नगर के गम्पोस्ट सेठ की कस्तरी । पति पवनवेग कबूतर के साथ इसने अक्षर लिखना सीखा था। दोनों का उपयोग शान्त था। एक दिन किसी विलाव ने इसे पकड़ लिया। पवनवेग कबूतर ने कुपित होकर नख और पंखों की ताड़ना तथा चोंच के आघात से विलाव को मारकर इसे मरने से बचा लिया था । यह अपने पति पवनवेग को बहुत चाहती थी। इसने पवनवेग के जाल में फँसकर मर जाने पर उसके मरण की सूचना चोंच से लिखकर अपने घर दी थी । अन्त में यह पति के वियोग से पीड़ित होकर मर गयी थी तथा सुजन देश के नगरसोम नगर के राजा दृढ़मित्र के भाई सुमित्र की श्रीचन्द्रा पुत्री हुई। इस पर्याय के पूर्व यह हेमांगद देश में राजपुर नगर के वैश्य रत्नतेज और उसकी स्त्री रत्नमाला की अनुपमा नाम की पुत्री थी। इसका विवाह वैश्य गुणभित्र से हुआ था। गुमभित्र भँवर में फसकर मरा अतः प्रेमवश यह भी उसी स्थान पर जाकर जल में ब मरी थी । मरणोपरान्त गुणमित्र सेठ गन्धोत्कट के यहाँ पवनवेग नामक कबूतर हुआ और अनुपमा इस नाम की उसकी स्त्री कबूतरी हुई। हरिवंशपुराण के अनुसार यह कबूतरी की पर्याय के पूर्व इसी नाम से सुकान्त की पत्नी थी। आगे इसका जीव प्रभावती नाम की विद्याधरी हुई तथा कबूतर का जीव हिरण्यवर्मा विद्याधर हुआ । मपु० ७५.४३८-४३९, ४५०-४६४, हपु० १२.१८-२० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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