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________________ रक्षता-रतिकरि जैन पुराणकोश : ३७ रक्षिता-तीर्थकर मल्लिनाथ की जननी । पपु० २०.५५ दे० मल्लिनाथ रणधान्त-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पांचवां पुत्र । पापु० रघु-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र की कौशाम्बी नगरी के राजा मघवा और ८.१९३ रानी बीतशोका का पुत्र । यह अणुव्रतों का पालन करते हुए मरा रणोमि-अंग देश का एक राजा । नन्द्यावतपुर के राजा अतिवीर्य द्वारा और सौधर्म स्वर्ग में सूर्यप्रभ देव हुआ। मपु० ७०.६३-६४, ७९ अयोध्या के राजा भरत पर आक्रमण करते समय सहयोग के लिए अंग (२) इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न अयोध्या के राजा ककुत्थ का पुत्र । देश से बुलाये गये चार राजाओं में यह दूसरा राजा था । यह छः सौ यह अनरण्य का पिता और दशरथ का दादा था। पपु० २२.१५८- हाथियों और पाँच हजार अश्व लेकर उसकी सहायतार्थ उसके पास गया था । पपु० ३७.६-८, १४, २५-२६ रजक-(१) धोबी। यह कारु शूद्र होता है । मपु० १६.१८५ रतवती-भरतक्षेत्र की कौमुदी नगरी के राजा सुमुख की रानी। यह (२) मेरु के चन्दनवन का छठा कूट । इसकी ऊंचाई पांच सौ परम सुन्दरी थी । पपु० ३९.१८०-१८१ योजन, मूलभाग की चौड़ाई पाँच सौ योजन, मध्यभाग की तीन सौ __ रति-(१) बाईस परीषहों में एक परीषह-राग के निमित्त उपस्थित होने पचहत्तर योजन और ऊर्ध्वभाग की ढाई सौ योजन है। विचित्रा पर राग नहीं करना । मपु० ३६.११८ दिक्कुमारी देवी यहाँ निवास करती हैं । हपु० ५.३२९-३३३ (२) कुबेर की देवी। पूर्वभव में यह नन्दनपुर के राजा अमित विक्रम की पुत्री धनश्री की बहिन अनन्तश्री थी । इस पर्याय में इसने रजत-(१) कुण्डलगिरि की दक्षिण दिशा का प्रथम कूट । यहाँ पद्म देव सुव्रता आपिका से दीक्षा ली, तप किया और अन्त में मरकर आनत रहता है । हपु० ५.६९१ (२) मेरु के नन्दनवन का पाँचवाँ कूट । तोयधारा-दिक्कुमारी देवी स्वर्ग के अनुदिश विमान में देव हुई । मपु० ६३.१९-२४ यहाँ रहती है । हपु० ५.३२९-३३३ दे० रजक-२ (३) एक देवी । ऐशानेन्द्र से राजा मेघरय की रानी प्रियमित्रा के (३) रुचकगिरि की उत्तरदिशा का पाँचवाँ कूट । यहाँ आशा सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर यह रतिषणा देवी के साथ सौन्दर्य को देखने दिक्कुमारी देवी रहती है । हपु० ५.७१६ के लिए प्रियमित्रा के पास गयी थी। इसने उसे देखकर उसके अकृत्रिम (४) मानुषोत्तर पर्वत की पश्चिम दिशा का कूट । यहाँ मानुष देव सौन्दर्य की तो प्रशंसा की, किन्तु जब रानी को सुसज्जित देखा तब इसे रानी का सौन्दर्य उतना रुचिकर नहीं लगा जितना रुचिकर उसे रहता है । हपु० ५.६०५ रानी का पूर्व रूप लगा था। संसार में कोई भी वस्तु नित्य नहीं है रजतप्रभ-कुण्डलगिरि की दक्षिण दिशा का दूसरा कूट । यहाँ पद्मोत्तर ऐसा ज्ञात. करके यह रतिषणा के साथ स्वर्ग लौट गयी थी। मपु० देव रहता है । हपु० ५.६९१ ६३.२८८-२९५ रजतमालिका-भरतक्षेत्र की एक नदी । मन्दरगिरि का मनोहर उद्यान (४) किन्नरगीत नगर के राजा श्रीधर और रानी विद्या की पुत्री । जहाँ से तीर्थङ्कर वासुपूज्य ने मुक्ति प्राप्त की थी, इसी नदी का यह विद्याधर अमररक्ष की पत्नी थी। इसके दस पुत्र और छः पुत्रियाँ तटवर्ती प्रदेश था । मपु० ५८.५०-५३ थीं। इसका पति (अमररक्ष) पुत्रों को राज्य देकर दीक्षित हो गया रजनी-संगीत सम्बन्धी षड्जग्राम की दूसरी मूर्च्छना । हपु० १९.१६१ और तीव्र तपस्या द्वारा कर्मों का नाश कर सिद्ध हुआ । पपु० ५.३६६, रजस्वलत्व-संसारी जीव का एक गुण-मलिनता, जीव का कमों से आवद्ध ३६८, ३७६ होना । मपु० ४२.८७ (५) एक दिक्कुमारी देवी। जाम्बवती ने अपने सौन्दर्य से इसे रजोल्पा-दशानन को प्राप्त एक विद्या । पपु० ७.३२७ लज्जित किया था । हपु० ४.११ रजोवली-भरतक्षेत्र की एक नगरी। रूपानन्द का जीव यहाँ कुलंधर (६) विद्याधर वायु तथा विद्याधरी सरस्वती की पुत्री और प्रद्युम्ननाम से उत्पन्न हुआ था। पपु० ५.१२४ कुमार की रानी। प्रद्युम्न को यह जयन्तगिरि के दुर्जय वन में प्राप्त रज्ज-लोक को नापने का एक प्रमाण विशेष । मध्यलोक का विस्तार हुई थी । हपु० ४७.४३ एक रज्ज़ है । समस्त लोक की ऊँचाई चौदह रज्जु है । मपु० ५.४४- (७) सहदेव पाण्डव की रानी । हपु० ४७.१८, पापु० १६.६२ ४५, हपु० ४.९-१० रतिकर-नन्दीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में विद्यमान वापिकाओं के रणखनि-राम का पक्षधर एक योद्धा । यह अश्वरथ पर आरूढ़ होकर कोणों के समीप स्थित पर्वत । ये एक-एक वापी के चार-चार होने से __ ससैन्य रणांरण में पहुंचा था। पपु० ५८.१५ सोलह वापियों के चौसठ होते हैं। इनमें बत्तीस वापियों के भीतर रणवक्ष-ऋक्षरज वंश के भृत्य शाखावली का पिता । इसकी स्त्री का और बाह्य कोणों पर स्थित हैं । ये स्वर्णमय ढोल के आकार में होते नाम सुश्रेणी था । इसके पुत्र ने युद्ध में हुई ऋक्षरज की स्थिति रावण है । ये ढाई सौ योजन गहरे एक हजार योजन ऊंचे, इतने ही चौड़े को बताई थी । पपु०८.४५६-४५७ और इतने ही लम्बे तथा अविनाशी हैं । ये पर्वत देवों के द्वारा सेवित रणशोण्ड-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का चौहत्तरवां पुत्र । और एक-एक चैत्यालय से विभूषित हैं । इस तरह एक दिशा की चार पापु०८.२०२ वापियों के ये आठ और चारों दिशाओं के बत्तीस होते हैं । नन्दीश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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