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________________ युगापार-योगवन्दित जैन पुराणकोश : ३१५ युगाधार-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४७ युद्ध-द्वन्द । प्राचीन काल में युद्ध के तीन कारण होते थे-१. स्त्रियों की प्राप्ति । २. राज्य का विस्तार और ३. आत्माभिमान की रक्षा । भरतेश ने दिग्विजय तथा बाहुबली से युद्ध चक्रवर्तित्व के लिए किया था। सुलोचना के द्वारा जयकुमार का वरण किये जाने के पश्चात् अर्ककीति ने बलपूर्वक सुलोचना को पाने के लिए ही युद्ध की घोषणा की थी। युद्ध दिन में होते थे। रात्रि में युद्ध करना अधर्म माना गया था । सैनिकों के प्रयाणकाल में युद्ध भेरी बजाई जाती थी। युद्धस्थल के समीप सेवादल रहता था। यह दल दोनों के आहत सैनिकों की सेवा करता था। पिपासुओं को शीतल-जल, भूखों को मधुर भोजन, श्रमात सैनिकों को पंखों की हवा का प्रबन्ध करता था। सेवकों में निज-पर का भेद नहीं था। युद्ध के तीन फल प्राप्त होते हैं-१. मेदकों के कर्त्तव्य की पूर्ति २. किसी एक को यश की प्राप्ति और ३. शूरवीरों को वीरगति । मपु० २६.५९, ३५.१०७-११०, ३६.४५ ४६, ४४. १०-११, ९३-९५, २७२, ६८.५८७, पपु० ७५.१-४ युद्धवीर्य-एक विद्या । रथन पुर के राजा अमिततेज ने चमरचंचनगर के राजा अशनिघोष को मारने के लिए यह विद्या अपने बहनोई पोदन- पुर के राजा श्रीविजय को दी थी। मपु० ६२.२७१, ३९९ युद्धावर्त-राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.२१ । युधिष्ठिर-हस्तिनापुर के कुरुवंशी राजा पाण्डु और रानी कुन्ती का ज्येष्ठ पुत्र । यह भीम और अर्जुन का बड़ा भाई था। ये तीनों भाई पाण्डु और कुन्तो के विवाह के पश्चात् हुए थे । विवाह के पूर्व कर्ण हुआ था । इसकी दूसरी माँ माद्री से उत्पन्न नकुल और सहदेव दो छोटे भाई और थे । कर्ण को छोड़ कर ये पांचों भाई पाण्डव नाम से विख्यात हुए । इसका अपर नाम धर्मपुत्र था। इसके गर्भावस्था में आने से पूर्व बन्धु वर्ग में प्रवृत्त था। इससे इसे यह नाम दिया गया था। इसी प्रकार इसके गर्भ में आते ही बन्धुगण धर्माचरण में प्रवृत्त हुए थे अतः इसे "धर्मपुत्र" नाम से सम्बोधित किया गया था। इसके अन्नप्राशन, चौल, उपनयन आदि संस्कार कराये गये थे । ताऊ भीष्म तथा गुरु द्रोणाचार्य से इसने और इसके इतर भाइयों ने शिक्षा एवं धनुर्विद्या प्राप्त की थी। प्रवास काल में इसने अनेकों कन्याओं के साथ विवाह किया था । इन्द्रप्रस्थ नगर इसी ने बसाया था। यह दुर्योधन के साथ द्य तक्रीडा में पराजित हो गया था। उसमें अपना सब कुछ हार जाने पर बारह वर्ष तक गुप्त रूप से इसे भाइयों सहित वन में रहना स्वीकार करना पड़ा था। वन में मुनि संघ के दर्शन कर इसने आत्मनिन्दा की थी। शल्य को सत्रहवें दिन मारने की प्रतिज्ञा करते हुए प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर अग्नि में आत्मदाह करने का भी इसने निश्चय किया था। इस प्रतिज्ञा के अनुसार यह शल्य के पास गया और बाणों से इसने शल्य का सिर काट डाला था । अन्त में तीर्थकुर नेमिनाथ से अपने पूर्वभव सुनकर यह भाइयों के साथ संयमी हो गया था । नेमिनाथ के साथ विहार करता रहा । इसके शत्रुजय पर्वत पर आतापन योग में स्थिर होने पर दुर्योधन के भानजे कुर्यधर ने इसके और इसके भाइयों को लोहे के तप्त मुकुट आदि आभरण पहनाकर विविध रूप से उपसर्ग किये थे। इसने उन उपसर्गों को जीत कर और कर्मो को ध्यानाग्नि में जलाकर मोक्ष पाया । दूसरे पूर्वभव में यह सोमदत्त था और प्रथम पूर्वभव में आरण स्वर्ग में देव हुआ था। मपु० ७०.११५, ७२.२६६-२७०, हपु०४५.२, ३७-३८, ६४.१३७, १४१, पापु० ७.१८७-१८८, ८.१४२, १४७, २०८२१२, १३.३४, १६३, १६.२-४, १०, १०५-१२५, १७.२-४, १९. २००-२०१, २०.२३९, २४.७५, २५.१२४-१३३ युयुत्सु-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का सत्ताईसवाँ पुत्र । पापु० ८.१९६ यूका-आठ लोखों की एक यूका होती है । हपु० ७.४० यूपकेसर-लवणसमुद्र की उत्तर दिशा-स्थित पाताल-विवर । इसके मूल और अग्रभाग का विस्तार दश हजार योजन तथा गहराई और मध्य भाग का विस्तार एक-एक लाख योजन है । हपु० ५.४४३-४४४ यूपकेसरिणी-भरतक्षेत्र की एक नदी। अशनिघोष हाथी को इसी नदी ___ के एक कुक्कुट सर्प ने डसा था । मपु० ५९.२१२-२१८ योग-काय, वचन और मन के निमित्त से होनेवाली आत्मप्रदेशों की परिस्पन्दन क्रिया । कर्मबन्ध के पाँच कारणों में यह भी एक कारण है । जहाँ कषाय होती है वहाँ यह अवश्य होता है । यह एक होते हुए भी शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है। मन, वचन और काय की अपेक्षा से तीन प्रकार का तथा मनोयोग और वचनयोग के चार-चार और काययोग के सात भेद होने से यह पन्द्रह प्रकार का होता है। इनके द्वारा जीव कर्मों के साथ बद्ध होते हैं और इनकी एकाग्रता से आन्तरिक एवं बाह्य विकार रोके जा सकते हैं । मपु० १८.२, २१.२२५, ४७.३११, ४८.५२, ५४.१५१-१५२, ६२. ३१०-३११, ६३.३०९, हपु० ५८.५७, पपु० २२.७०, २३.३१, वीवच०११.६७ योगत्यागक्रिया-दीक्षान्वय की एक क्रिया। इसमें मनि विहार करना छोड़कर योगों का निरोध करता है । मपु० ३८.६२, ३०५-३०७ . योगनिःप्रणिधान-सामायिक शिक्षाव्रत के तीन अतिचारों का निरोध । ये अतिचार हैं-मनयोग दुष्प्रणिधान-(मन का अनुचित प्रवर्तन), वचनयोग दुष्प्रणिधान--(वचन की अन्यथा प्रवृत्ति) और काययोग दुष्प्रणिधान (काय की अन्यथा प्रवृत्ति) । हपु० ५८.१८० योगनिर्वाण सम्प्राप्ति-दीक्षान्वय की एक क्रिया । यह योगों (ध्यान) के हटाने के लिए संवेगपूर्वक की गयो परम तप रूप एक क्रिया है। इसमें राग आदि दोषों को छोड़ते हुए शरीर कृश किया जाता है। साधक सल्लेखना में स्थिर होकर सांसारिकता से हटते हुए मोक्ष का ही चिन्तन करता है । मपु० ३८.५९, १७८-१८५ योगनिर्वाणसाधन-दीक्षान्वय की एक क्रिया । इसमें साधु जीवन के अन्त में शरीर और आहार से ममत्व छोड़कर पंचपरमेष्ठियों का ध्यान करता है । मपु० ३८.५९, १८६-१८९ योगवन्वित-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८८ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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