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________________ जैन पुराणकोश :३०५ मेखलाग्रपुर-मेघनिनाद मेखलामपुर-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी का तेईसवाँ नगर । मपु० १९.४८, ५३ मेखलादाम-कटि का आभूषण-करधनी। इसकी पट्टी चौड़ी होती है। मपु० ४.१८४ मेघंकरा-नन्दन वन के नन्दनकूट की एक दिक्कुमारी देवी । हपु० ५.३३१-३३२ मेघ-(१) मेघदल नगर का एक श्रेष्ठी। इसकी सेठानी अलका तथा पुत्री चारुलक्ष्मी थी। भीमसेन पाण्डव इसका दामाद था। हपु० ४६.१४-१५ (२) सौधर्म और ऐशान युगल स्वर्गों का बीसवाँ इन्द्रक विमान एवं पटल । इस विमान की चारों दिशाओं में चवालीस श्रेणीबद्ध विमान हैं । हपु० ६.४५ (३) राजा समुद्रविजय का पुत्र । इसके ग्यारह बड़े भाई और तीन छोटे भाई थे । हपु० ४८.४४ (४) लंका का राक्षसवंशी एक नृप । यह इन्द्रप्रभ के बाद राजा हुआ था। पपु० ५.३९४ (५) विजयाध पर्वत का एक नगर । इसे लक्ष्मण ने जीता था। पपु० ९४.४ (६) यादवों का पक्षधर एक राजा। कृष्ण की सुरक्षा के लिए दायीं ओर तथा बायीं ओर नियुक्त किये गये राजाओं में यह एक राजा था । हपु० ५०.१२१ मेघकान्त-राम का पक्षधर एक विद्याधर नृप । इसकी ध्वजा में हाथी अंकित था । पपु० ५४.५९ . मेघकुमार-एक नृप । दिग्विजय के समय जयकुमार ने इसे पराजित किया । तब स्वयं भरतेश चक्रवर्ती ने जयकुमार को वीरपट्ट वाँधा था। इस विजय से जयकुमार को मेघघोषा भेरी प्राप्त हुई थी । मपु० ४३.५०-५१, ४४.९३-९५ मेघकूट-(१) विजयार्घ पर्वत की दक्षिणथणी का पच्चीसवां नगर । यह अमृतवती देश में था । मपु० १९.५१, ७२.५४, हपु० २२.९६, ४३.४८ (२) निषध पर्वत का एक कूट । यह इस पर्वत की उत्तरदिशा में सीतोदा नदी के तट पर स्थित है। इसका विस्तार नाभि पर्वत के समान है । हपु० ५.१९२-१९३ (३) एक देव । यह सीतोदा नदी के तट पर स्थित मेघकूट पर क्रीडा करता है । हपु० ५.१९२-१९३ मेघघोष-भद्रिलपुर के राजा मेघनाद और रानी विमलश्री का पुत्र । हपु० ६०.११८ मेघधोषा-मेघकुमार को जीतने से उसके द्वारा जयकुमार को प्राप्त एक भेरी-वाद्य । मपु० ४४.९३, पापु० ३.९० मेघदत्त-ऐरावत क्षेत्र में दिति नगर के निवासी विहीत सम्यग्दृष्टि और उसकी स्त्री शिवमति का पुत्र । यह अणुव्रती था। जिनपूजा में सदैव यह उद्यत रहता था। आयु के अन्त में यह समाधिमरण कर ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । पपु० १०६.१८७-१८९ मेघवल-एक नगर । भीमसेन ने वनवास काल में यहां के राजा सिंह की पुत्री कनकावर्ता तथा इसी नगर के मेघ सेठ की पुत्री चारुलक्ष्मी इन दोनों कन्याओं को विवाहा था । हपु० ४६.१४-१६ मेघध्वान-लंका का राक्षसवंशी एक विद्याधर राजा। इसे लंका का राज्य महारव राजा के पश्चात् प्राप्त हुआ था। पपु० ५.३९८ । मेघनाव-(१) तीर्थकर शान्तिनाथ के प्रथम गणधर चक्रायुद्ध के छठे पूर्वभव को जीव । जम्बदीप सम्बम्धी भरतक्षेत्र के विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में गगनवल्लभ नगर के राजा मेघवाहन और उसकी रानी मेघमालिनी का पुत्र । यह विजया को दोनों श्रेणियों का स्वामी था । मेरु पर्वत के नन्दन वन में प्रज्ञप्ति विद्या सिद्ध करते समय अपराजित बलभद्र के जीव अच्युतेन्द्र द्वारा समझाये जाने पर इसने सुरामरगुरू मुनि से दीक्षा ली थी। एक असुर ने प्रतिमायोग में विराजमान देखकर इसके ऊपर अनेक उपसर्ग किये । उपसर्ग सहते हुए यह अडिग रहा। इसने आयु के अन्त में संन्यासमरण किया और यह अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ। मपु० ६३.२९-३६, पापु० ५.५-१० (२) भद्रिलपुर नगर का राजा । जयन्तपुर के राजा श्रीधर की पुत्री विमलश्री इसकी रानी थी । इसने धर्म मुनि के समीप व्रत धारण कर लिया था । आयु के अन्त में मरकर यह सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागर की आयु का धारी इन्द्र हुआ । इसकी पत्नी विमलश्री ने भी पद्मावती नामक आर्यिका से संयम धारण किया तथा आचाम्लवर्धन उपवास के फलस्वरूप वह आयु के अन्त में सहस्रार स्वर्ग में देवी हुई । मपु०७१.४५३-४५७, हपु० ६०.११८-१२० (३) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३४ (४) अरिंजयपुर का राजा । इसकी पुत्री का नाम पद्मश्री था। इसे अपनी इस कन्या के कारण नभस्तिलक नगर के राजा बज्रपाणि से युद्ध करना पड़ा था। इसे एक केवली ने इसकी पुत्री का वर सुभोम चक्रवर्ती बताया था । अतः इतने सुभौम को चक्ररत्न प्राप्त होते ही उसे अपनी कन्या दे दी थी। सुभोम ने भी इसे विद्याधरों का राजा बना दिया था । शक्ति पाकर इसने अन्त में अपने वैरी वज्रपाणि को मार डाला था । प्रतिनारायण बलि राजा इसकी सन्तति में छठा राजा था । हपु० २५.१४, ३०-३१, ३४ मेघनिनाव-चक्रपुर के राजा रत्नायुध का हाथी । इसे एक मुनिराज के दर्शन होने से जातिस्मरण हो गया था । फलस्वरूप इसने उनसे जलपान त्याग करके श्रावक के व्रत ले लिये थे । पूर्वभव में यह भरतक्षेत्र के चित्रकारपुर में राजा प्रतिभद्र के मंत्री चित्रबुद्धि का पुत्र था। विचित्रमति इसका नाम था। इस पर्याय में यह श्रुतसागर मुनि से दीक्षित हो गया था। साकेतनगर में वेश्या बुद्धिसेना पर आकृष्ट होकर यह मुनि पद से च्युत हुआ । राजा गन्धिमित्र का रसोइया बना । मांस पकाकर राजा को खिलाता रहा । राजा को प्रसन्न करके इसने वेश्या प्राप्त कर ली। भोगों में लिप्त रहा । अन्त में Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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