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________________ ३०४ : जैन पुराणकोश मृगेन्द्र-मेलका मृगेन्द्र-(१) विद्याधरों का स्वामी एक विद्याधर । इसने राम की होने के कारण इसे मृदंग कहते है। इसके दोनों ओर के मुख चमड़े सहायता की थी। पपु० ५४.३४-३६ से मढ़े जाते हैं । यह बीच में चौड़ा और दोनों भागों में संकीर्ण होता (२) वृषभदेव के समय का एक जंगली-पशु सिंह । तीर्थंकरों के है। ऊर्ध्व लोक का आकार इसके ही समान है। मपु० ३.१७४, गर्भ में आने पर उनकी माता को यह पशु स्वप्न में सफेद तथा इसके ४.४१, १२.२०४-२०६, १३.१७७, १७.१४३, पपु० ६.३७९, कंधे लाल रंग के दिखायी देते हैं । मपु० १२.१०६ ३६.९२, ५८.२७ मृगेन्द्रकेतन-समवसरण की सिंहाकृतियों से अंकित ध्वजाएँ। मपु० मृदंगमध्यमवत-एक व्रत । इसमें क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, चार, २२.२३१ तीन और दो उपवास किये जाते हैं । प्रत्येक क्रम के बाद एक पारणा मृगेन्द्रवाहन-राम का एक सामन्त । यह लवणांकुश और मदनांकुश का की जाती है। इस प्रकार इसमें तेईस उपवास और सात पारणाएं की राम और लक्ष्मण से होनेवाले युद्ध के समय राम-लक्ष्मण की ओर से जाती है । इसके करने से क्षीरस्रावि आदि ऋद्धियाँ, अवधिज्ञान और युद्ध करने बाहर निकला था। पपु० १०२.१४७-१४८ क्रमशः मोक्ष प्राप्त होता है । हपु० ३४.६४-६५ मृगेशवमन-इक्ष्वाकुवंशी राजा द्विरदरथ का पुत्र और हिरण्यकशिपु का मृदुकान्ता-राजा आकाशध्वज की रानी और उपरम्भा की जननी । का पिता । पपु० २२.१५७-१५८ ___पपु० १२.१५१ मृगावषमा-विद्याधरवशा राजा सिहयान का पुत्र आर सिहप्रभु कामदुमति-जम्बुद्वीप के भरतक्षेत्र की दक्षिण दिशा में स्थित पोदनपुर नगर पिता । पपु० ५.४९ के निवासी ब्राह्मण अग्निमुख और उसकी स्त्री शकुना का पुत्र । मृणालकुण्ड-भरतक्षेत्र का एक नगर । रावण के पूर्वभव का जीव शम्भु लोक के उलाहनों से खिन्न होकर इसे माता-पिता ने घर से निकाल इसी नगर के राजा वचकम्बु और रानी हेमवती का पुत्र था। पपु० दिया था। यह यौवन अवस्था में पोदनपुर आया । यहाँ रुदन करती १०६.१३३-१३४, १५८, १६९-१७१ हुई माँ शकुना को धैर्य बंधाकर उसके साथ रहने लगा। एक दिन मृणालवती-जम्बूद्वीप में पूर्वविदेहक्षेत्र के पुष्कलावती देश की एक यह शशांकनगर के राजा नन्दिवर्धन के राजमहल में चोरी करने गया नगरी । यहाँ का राजा धरणीपति था। मपु० ४६.१०३, पापु० वहाँ राजा को अपने शशांकमुख गुरु से दीक्षा लेने का निश्चय रानी ३.१८७-१८८ से कहते हुए सुना । यह सुनकर विषयों से विरक्त हुआ और इसने मृतसंजीवनी-धरणेन्द्र द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों को दी गयी जिनदीक्षा धारण कर ली तथा तप करने लगा। इधर गुणनिधि मुनि एक विद्या । हपु० २२.७१ ने दुर्गगिरि पर्वत पर निराहार चार माह का वर्षायोग समाप्त कर मृत्तिकाभक्षणदण्ड-दण्ड-व्यवस्था का प्रथम भेद । अपराधी को दण्ड विधिपूर्वक जैसे ही विहार किया कि दैवयोग से यह मृदुमति मुनि स्वरूप मिट्टी का भक्षण कराया जाना मृत्तिकाभक्षणदण्ड कहलाता वहाँ आहार के लिए आया। नगरवासियों ने इसे गुणनिधि मुनि था। मपु० ४६.२९२-२९३ समझकर महान आदर-सत्कार किया। नगरवासियों के यह पूछने पर मृत्तिकावती-भरतक्षेत्र की एक नगरी। क्रौंचपुर नगर के राजा यक्ष कि क्या आप वही मुनिराज हैं जो पर्वत के अग्रभाग पर स्थित थे और उनकी रानी राजिला के द्वारा पाला गया यक्षदत्त इसी नगर में तथा देवों ने जिनकी स्तुति की थी। इन्होंने इसके उत्तर में स्थिति बन्धुदत्त गृहस्थ के घर जन्मा था। पपु०४८.४३-५० स्पष्ट नहीं की । इस माया के कारण मरकर प्रथम तो यह स्वर्ग मृत्युजय---सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.७०, गया । पश्चात् जम्बूद्वीप में निकुज पर्वत के शल्लकी वन में गजराज हुआ। रावण ने इसका लिकोककंटक नाम रखा था। पपु० ८५. मृत्यु-(१) रावण का सामन्त । यह व्याघ्ररथ पर आरूढ़ होकर रावण ११८-१५२, १६३ की ओर से युद्ध करने घर से निकला था । पपु० ५७.४९ मृषानन्द-रौद्रध्यान का दूसरा भेद । झूठ बोलने में आनन्द मनाना (२) जीवों के प्राणों का विसर्जन । जीव को अपने मरण का मुषानन्द कहलाता है । कठोर वचन आदि इसके बाह्य चिह्न हैं। पूर्वबोध नहीं हो पाता, पलभर में वह निष्प्राण हो जाता है। पपु० मपु० २१.५०, हपु० ५६.२१, २३ ११५.५५ मेखला-(१) जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। चक्रवर्ती (३) हरिविक्रम भीलराज का सेवक । मपु० ७५.४७८-४८१ भरतेश की सेना यहाँ आयी थी । मपु० २९.५२ मृत्यु-आशंका-मरणाशंसा। यह सल्लेखनाव्रत का दूसरा अतिचार है। (२) कटिभाग का आवर्तक एक आभूषण-करधनी । इसे पुरुष भी इसमें पीड़ा से व्याकुलित होकर शीघ्र मरने की इच्छा की जाती है। धारण करते थे। मपु० ३.२७, १५.२३ । हपु० ५८.१८४ (३) लंका का समीपवर्ती वन । राम और रावण के युद्ध में हतामृबंग-एक मांगलिक वाद्य । यह स्वयंवर और सैन्य प्रस्थान काल हत योद्धा यहाँ शोतल उपचार प्राप्त करते थे। पपु० ८.४५२-४५३ आदि मांगलिक अवसरों पर बजाया जाता है। बजाने के लिए (४) भरतक्षेत्र का एक देश । लवणांकुश और मदनांकुश ने इस इसके ऊपरी भाग को पीटा जाता है । इसका खोल मिट्टी से निर्मित पर विजय की थी । पपु० १०१.८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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