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________________ मानसवेग-मानुषोत्तर जैन पुराणकोश : २९५ मानसवेग-विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्वर्णिम नगर के स्वामी मनोवेग विद्याधर का पुत्र और वेगवती का भाई । यह यद्यपि वसुदेव की सोमश्री रानी को हरकर अपने नगर ले गया था परन्तु अन्त में वह वसुदेव का हितैषी हो गया था। हपु० २४.६९-७२, २६.२७, मानस-सर-मानसक्षेत्र में गोदावरी नदी का समीपवर्ती सरोवर । भरतेश का सेनापति भरतेश की दिग्विजय के समय यहाँ आया था । मपु० २९.८५ मानससुन्दरी-रथनूपुर नगर के राजा सहस्रार की रानी और इन्द्र विद्याधर की जननी। इसका दूसरा नाम हृदयसुन्दरी था। पपु० ७.१-२, १३.६५-६६ मानसोत्सवा-भरत की भाभी । पपु० ८३.९५ ।। मानसस्तम्भ-समवसरण-रचना में धूलिसाल के भीतर गलियों के बीच में चारों दिशाओं में इन्द्र द्वारा स्वर्ण से निर्मित चार उन्नत स्तम्भ । इनके ऊपरी भाग में चारों ओर मुख किये चार प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं। जिस जगती पर इनकी रचना होती है, वह चारचार गोपुर द्वारों से युक्त तीन कोटों से वेष्टित रहती है। उसके बीच में एक में एक पीठिका बनायी जाती है। पीठिका के ऊपर चढ़ने के लिए सोलह सीढ़ियाँ रहती हैं। ये ऊँचाई के कारण दूर से दिखाई देते हैं। इन्हें देखते ही मिथ्यादृष्टियों का मान-भंग हो जाता है। ये घण्टा, चमर और ध्वजाओं से सुशोभित होते हैं। कमलों से आच्छादित जल से भरी बावड़ियाँ इनके समीप ही होती हैं । इनकी इन्द्र द्वारा रचना की जाने से इन्हें इन्द्रध्वज भी कहा जाता है। मपु० २२.९२-१०३, २५.२३७, ६२.२८२, वीवच. १४.७९-८० मानसस्तम्भिनी-अलंकारपुर नगर के राजा रत्नश्रवा को प्राप्त एक विद्या । यह जिसे सिद्ध हो जाती है उसका मनचाहा काम करती है । पपु०७.१६३ मानांगणा-इन्द्र आदि द्वारा नमस्कृत समवसरण-भूमि । हपु० ५७.९ माताहता-व्रत से पवित्र द्विज के दस अधिकारों में नौवाँ अधिकार मान्यता की योग्यता । मपु० ४०.१७६, २०४ मानिनी-धान्य ग्राम के अग्नि ब्राह्मण की स्त्री। इसकी पुत्री का नाम अभिमाना था । पपु० ८०.१६० मानुष-मानुषोत्तर पर्वत के रजतकूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६०५ मानुषक्षेत्र-मनुष्यों के गमनागमन के योग्य भूमि । यह जम्बूद्वीप धातकी खण्डद्वीप और पुष्कराद्ध इस प्रकार अढ़ाई द्वीप तथा लवणोदधि और कालोदधि समुद्र तक है। इसका विस्तार पैतालीस लाख योजन है । हपु० ५.५९० मानुषोत्तर-(१) मेरु पर्वत का एक वन । हपु० ५.३०७ (२) मध्यलोक में पुष्करद्वीप के मध्य स्थित एक वलयाकार पर्वत । .... इसके कारण ही पुष्करवर द्वीप के दो खण्ड हो गये हैं । इसके भीतरी भाग में दो सुमेरु पर्वत है-एक पूर्वमेरु और दूसरा पश्चिम मेरु । मनुष्यों का गमनागमन इसी पर्वत तक है आगे नहीं । इस पर्वत की ऊँचाई एक हजार सात सौ इक्कीस योजन, गहराई चार सौ तीस योजन एक कोश, मूल विस्तार एक हजार बाईस योजन, मध्यविस्तार सात सौ तेईस योजन और ऊपरी भाग का विस्तार चार सौ चौबीस योजन है। इसकी परिधि का विस्तार एक करोड़ बयालीस लाख छत्तीस हजार सात सौ तेरह योजन है । यह भीतर की ओर टाँकी से कटे हुए के समान है तथा इसका बाह्यभाग पिछली ओर से क्रम से ऊँचा उठाया गया है । इसका आकार भीतर की ओर मुख करके बैठे हुए सिंह के समान जान पड़ता है। इसमें चौदह गुहाद्वार हैं । जिन गुहाद्वारों से नदियाँ निकलती है। ये गुहाद्वार पचास योजन लम्बे, पच्चीस योजन चौड़े और साढ़े सैंतीस योजन ऊँचे हैं। इसके ऊपरी भाग में चारों दिशाओं में आठ योजन ऊंचे और चार योजन चौड़े गुहाद्वारों से सुशोभित चार जिनालय है। चारों दिशाओं में तीन-तीन और विदिशाओं में एक-एक कूट है। ऐशान दिशा में वजकूट और आग्नेय दिशा में तपनीयक कूट और होने से कुल यहाँ के सारे कूट अठारह हैं। पूर्वदिशा के कूट और उन कुटों के निवासी देव निम्न प्रकार हैं देव वैडूर्य यशस्वान् अश्मगर्भ यशस्कान्त सौगन्धिक यशोधर दक्षिण दिशा के कट और वहाँ के निवासी देव देव रुचक नन्दन लोहिताक्ष नन्दोत्तर अंजन अशनिघोष पश्चिम दिशा के कूट और उनके निवासी देव देव अंजनमूल सिद्धदेव कनक क्रमणदेव रजत मानुषदेव उत्तर दिशा के कुट और उनके देवकूट देव स्फटिक सुदर्शन अंक मोध सुप्रवृद्ध आग्नेय दिशा के तपनीयक कूट पर स्वातिदेव तथा ऐशान दिशा के वचक कूट पर हनुमान् देव रहता है । इस पर्वत के पूर्व दक्षिण कोण में रलकट है। यहाँ नागकुमारों का स्वामी वेणदेव, पूर्वोत्तर कोण के प्रवाल Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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