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________________ २९४ : जैन पुराणकोश माण्डव्य-मानसचेष्टित माण्डव्य-तीर्थकर महावीर के छठे गणधर । हपु० ३.४२ दे० महावीर मातंग-(१) धरणेन्द्र की दूसरी देवी दिति द्वारा विद्याधर नमि और विनमि के लिए दिये गये आठ विद्या-निकायों में प्रथम विद्या-निकाय । हपु० २२.५९ (२) विद्याधर नमि का पुत्र । हपु० २२.१०८ (३) विद्याधरों की जाति । ये विद्याधर मेघ-समूह के समान श्याम वर्ण के होते हैं। नीले वस्त्र और नीली मालाएँ पहिनते हैं तथा मातंगस्तम्भ के सहारे बैठते हैं । हपु० २६.१५ (४) गंधिल देश के जंगलों में प्राप्त हाथी । ये उन्मत्त और सबल होते हैं। इनके गण्डस्थल से मद प्रवाहित होता रहता है । मद से इनके नेत्र निमीलित रहते हैं। इस जाति के हाथी भरतेश की सेना में थे । अपना परिश्रम दूर करने के लिए ये जल में क्रीड़ा करते हैं । ये ऊँचे होते हैं। स्नान के पश्चात् ये स्वयं धूल उड़ाकर धूल-धूसरित हो जाते हैं। मपु० ४.७५, २९.१३४, १३९, १४१-१४२, पपु० २८.१४८ (५) चाण्डाल । पपु० २.४५ मातंगपुर-विजयार्घ पर्वत की दक्षिणश्रेणी का अड़तालीसवाँ नगर । हपु० २२.१०० मातंगी-अकीर्ति के पुत्र अमिततेज को सिद्ध विद्याओं में एक विद्या। मपु० ६२.३९५ मातलि-इन्द्र के द्वारा प्रेषित नेमिनाथ के रथ का बाहक सारथी। हपु० ५१.११ मातुलिंग-एक फल-बिजौरा । यह नींबू से बड़ा होता है । भरतेश ने यह फल चढ़ाकर वृषभदेव की पूजा की थी। मपु० १७.२५२, पपु० २.१७ मातृक–व्यक्तवाक्, लोकवाक् और मार्ग व्यवहार ये तीन मातृकाएँ कहलाती हैं । पपु० २४.३४ मात्रा-तालगत गान्धर्व का एक भेद । हपु० १९.१५१ मात्राष्टक-आठ मातृकाएँ-पाँच समितियाँ और तीन गप्तियाँ । मपु० ११.६५ मात्सर्य-अतिथिसंविभाग व्रत का चौथा अतीचार-अन्य दाता के गुणों को सहन नहीं करना । हपु० ५८.१८३ मात्स्यन्याय-सबल पुरुषों द्वारा निर्बल पुरुषों का शोषण । राजा के अभाव में प्रजा इसी न्याय का आश्रय लेती है । मपु० १६.२५२ मात्री-हरिवंशी राजा अन्धकवृष्टि और उसकी रानी सुभद्रा की पुत्री। इसके वसुदेव आदि दस भाई तथा कुन्ती बहिन थी। इसका राजा पाण्डु के साथ पाणिग्रहण पूर्वक प्राजापात्य विवाह हुआ था। नकुल और सहदेव इसी के पुत्र थे। दूसरे पूर्वभव में यह भद्रिलपुर नगर के सेठ धनदत्त और सेठानी नन्दयशा की ज्येष्ठा नाम की पुत्री थी। प्रियदर्शना इसकी एक बड़ी बहिन तथा धनपाल आदि नौ भाई थे। यह और इसके सभी भाई-बहिन तथा माता-पिता दीक्षित हुए। इसकी माँ ने परजन्म में भी इस जन्म की भाँति पुत्र-पुत्रियों से सम्बन्ध बना रहने का निदान किया था। अन्त में यह और इसके भाई-बहिन और माँ सभी आनत स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वे सब यहाँ से चयकर इस पर्याय में आये। इनमें ज्येष्ठा का जीव इस नाम से उत्पन्न हुआ। इसका दूसरा नाम मद्री था। मपु० ७०.९४.९७, ११४-११६, १८२-१९८, हपु० १८.१२-१५, १२३-१२४, ४५.३८ माधव-वैशाख मास । मपु० ६१.५ (२) बसन्त ऋतु । मपु० २७.४७, पु०० ५५.४३ (३) कृष्ण । हपु० ४२.६८, ७०, ५५.४३ माधवी-राम के समय की एक लता। इसके फूल गुच्छों में होते हैं। मपु० २७.४७, पपु० २८.८८, हपु० ११,१०० (२) पोदनपुर के निवासी हित श्रावक की पत्नी। इसके पुत्र का नाम प्रीति था । पपु० ५.३४५ (३) मथुरा नगरी के राजा हरिवाहन की रानी। चमरेन्द्र से शूलरत्न पानेवाले मधु की यह जननी थी । पपु० १२.५४, ६८ (४) द्वापुरी के राजा ब्रह्मभूति की रानी। यह द्वितीय नारायण द्विपृष्ठ की जननी थी। पपु० २०.२२१-२२६ । (५) पुष्करद्वीप में स्थित चन्द्रादित्य नगर के राजा प्रकाशयज्ञ को रानी और जगधु ति की जननी । पपु० ८५.९६-९७ माध्यस्थभाव-संवेग और वैराग्यसिद्धि के चतुर्विध भावों में चौथा भाव-अविनयी जीवों पर रागद्वेष रहित होकर समतावृत्ति धारण करना ऐसे भाव से युक्त जन उपकारियों से न तो प्रेम करते है और न द्वेष । वे उदासीन रहते हैं । मपु० २०.६५, पपु० १७.१८३ मान -(१) क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों में दूसरी कषाय-अभियान । इसे (अहंकार का त्याग कर) मृदुता से जीता जाता है । मपु० ३६.१२९, पपु० १४.११०-१११ (२) प्रमाण या माप । इसके चार भेद हैं-मेय, देश, तुला और काल । इनमें प्रस्थ आदि मेयमान, वितस्ति (हाथ) देशभान, ग्राम, किलो आदि तुलामान और समय, घड़ी, घण्टा कालमान है। पपु० २४.६०-६१ मानव-(१) एक विद्या-निकाय । धरणेन्द्र की अदिति देवी ने यह निकाय नमि और विनमि को दिया था । हपु० २२.५४-५८ (२) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणो का पन्द्रहवाँ नगर । हपु० २२.९५ (३) विजयपर्वत की उत्तरश्रेणी का छब्बीसवाँ नगर । हपु० २२.८८ मानवतिक-भरत चक्रवर्ती के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरत क्षेत्र के पूर्व आर्यखण्ड का एक देश । हपु० ११.६८ मानवपुत्रक-विद्याधरों की एक जाति । ये विद्याधर नाना वर्णी होते हैं, पीत वस्त्र पहनते हैं और मानवस्तम्भ के आश्रयी होते हैं। हपु० २६.८ मानवी-रावण को रानो । पपु० ७७.१४ मानसचेष्टित-सातवें नारायणदत्त के पूर्वभव का नाम । पपु० २०.२१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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