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________________ २८० : जैन पुराणकोश । का पुत्र, पुनः देव, पश्चात् पुण्डरीकिणी नगरी में राजा सुमित्र का प्रियमित्र पुत्र, सहस्रार स्वर्ग में देव, छत्रपुर में नन्द राजपुत्र हुआ । इस पर्याय से यह स्वर्गं गया और वहाँ से चयकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर हुआ। मपु० १८.६१-६२, २४.१८२० ६२.८८-८९, ७४.४९-५६, ६२-६८, २१९, २२२, २२९-२४६, २७६, पपु० ३.२८९-२९३, ८५.४४, हपु० ९.१२५-१२७, वीवच० २.७४ ९०, १०७-१३१, ३.१-७, ५६, ६१-६३, ४.२-५९, ७२-७६, ५.१३४१३५, ६.२-१०४, ७.११०-१११ (२) रथनपुर के राजा विद्याधर अभिमतेज का दूत । अमिततेज ने अशनिघोष के पास इसे ही भेजा था । मपु० ६२.२६९ (३) भद्रिलपुर नगर का एक ब्राह्मण । कपिला इसकी पत्नी और मुण्डशलायन पुत्र था । हपु० ६०.११ मस्त् अस्त्र - राम का बाण । राम को यह गरुडेन्द्र के संकेत से चिन्तागति देव से प्राप्त हुआ था । पपु० ६०.१३८ महत्व - राजपुर नगर का राजा। रावण के राजपुर नगर में आने पर इसने उसे अपनी कन्या कनकप्रभा विवाही थी । पपु० ११.१०६, ३०४-३०७ मरुत्सुर — पवनकुमार देव । ये देव ही समवसरण के एक योजन भूभाग को तृप, कंटक और कीड़ों से रहित एवं मनोहर करते हैं। वीव १९.६९ मरुदेव - (१) वसुदेव तथा रानी सोमश्री का कनिष्ठ पुत्र और नारद का अनुज । हपु० ४८.५७ (२) बारहवें कुलकर ये ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभ के पुत्र थे। इनके समय स्त्री-पुरुष अपनी सन्तान से है "माँ" "हे पिता" ऐसे मनोहर शब्द सुनने लगे। इनके शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष और इनकी आयु नयुतांग प्रमाण वर्ष थी। ये तेजस्वी और प्रभावान् थे । इनके समय में प्रजा अपनी सन्तान के साथ बहुत दिनों तक जीवित रहने लगी थी । इन्होंने जलमय दुर्गम स्थानों में गमन करने के लिए छोटी बड़ी नाव चलाने का उपदेश दिया था। दुर्गम स्थानों पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई थीं। इन्हीं के समय में अनेक छोटे-छोटे पहाड़, उपसमुद्र तथा छोटी-छोटी नदियाँ उत्पन्न हुई। थीं । मेघ भी वर्षा करने लगे थे। इनका अपर नाम मरुदेव था । मपु० ३.१३९-१४५, पपु० ३.८७, हपु० ७.१६४-१६५, पापु० २.१०६ मरुदेवी - अन्तिम कुलकर नाभिराय की पटरानी और प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव की जननी। यह अक्षर-आलेखन, गीत-याय, गणित, आगम, विज्ञान और कला कौशल में निपुण थी। मपु० १२.९-१२, पपु० ३.९१-९५, २०.३७, हपु० ८.६, ४३, १०३ पापु० २.१०८ १३२ मरुदगिरि - सुमेरू पर्वत । यह जिन चैत्यालयों से विभूषित हैं । मपु० ७१.४२१ मरुदेव - बारहवें कुलकर । मपु० ३.१३९-१४५ दे० मरुदेव मरुबाहु - राम का एक सामन्त । पपु० ५८१८ Jain Education International मरुत् अस्त्र-मन मरभूति - (१) चम्पापुरी के वैश्य चारयत का मित्र ह० २१.६-१३ (२) तीर्थकर पाना के पूर्व के जीव पूर्वभवों में ये जम्बूद्वीप के दक्षिण भारतक्षेत्र में पोदनपुर नगर के ब्राह्मण विश्वभूति और उसकी स्त्री अनुन्धरी के कनिष्ठ पुत्र थे । कमठ इनका बड़ा भाई था । दुराचारी होने से कम ने इसकी पत्नी वसुन्धरी के निमित्त इन्हें मार डाला था । ये मरकर मलय देश के कुब्जक नामक सल्लकी वन में वज्रघोष नामक हाथी हुए । इस पर्याय में पूर्व पर्याय के भाई कमठ की स्त्री वरुणा मरकर इनकी स्त्री हुई। हाथी की पर्याय में इन्होंने प्रोषधोपवास किये। एक दिन ये वेगवती नदी में पानी पीने गये । वहाँ कीचड़ में धँस गये । कमठ मरकर इसी नदी में कुक्कुट साँप हुआ था। पूर्व वैरवश उसने इन्हें काटा जिससे मरकर ये सहस्रार स्वर्ग में देव हुए। स्वर्ग से चयकर ये विदेहक्षेत्र में त्रिलोकोत्तम नगर के राजा विद्य दुगति और रानी के रश्मिवेग हुए इन्होंने इस पर्याय में दीक्षा धारण कर तप किया। ये हिमगिरि पर्वत की जिस गुहा में ध्यानरत थे वहीं कमठ का जीव कुक्कुट सर्प नरक से निकल अजगर हुआ। पूर्व वैर के कारण अजगर ने इन्हें निगल लिया । ये मरकर अच्युत स्वर्ग के पुष्पक विमान में देव हुए और स्वर्ग से चयकर विदेहक्षेत्र के अश्वपुर नगर में चक्रवर्ती राजा वचनाभि हुए। दीक्षित होकर जब वज्रनाभि तप कर रहे थे तब कुरंग नामक भील पर्याय में कमठ ने इन पर अनेक उपसर्ग किये थे । वज्रनाभि धर्मध्यान से मरकर मध्यम ग्रैवेयक विमान में अहमिन्द्र हुए। स्वर्ग से चयकर ये देव अयोध्या नगरी में आनन्द राजा हुए इस पर्याय में इन्होंने मुनि विमति से धर्मश्रवण किया तथा मुनि समुद्रगुप्त से दीक्षा धारण की थी । क्षीरवन में कमठ के जीव सिंह ने इन्हें मार डाला था । मरकर ये आनत स्वर्ग के इन्द्र हुए। इस स्वर्ग से चयकर ये बनारस में राजा विश्वसेन के पुत्र हुए। इस पर्याय में इनका नाम पार्श्वनाथ था । ये जब वन में ध्यानस्थ थे कमठ के जीव शम्बर देव ने उन पर अनेक उपसर्ग किये थे । इस पर्याय में धरणेन्द्र और पद्मावती ने इनकी सहायता की थी। इन्होंने कर्मों का नाश कर इस पर्याय में केवलज्ञान प्रकट किया और इसी पर्याय से मोक्ष पाया था । कमठ का जीव शम्बर देव भी कालब्धि पाकर संयमी हो गया था । मपु० ७३.६-१४७ मर्कट - (१) क्षीरवन का एक देव। इसने मुकुट, औषधि माला, छत्र और दो चमर प्रद्य ुम्न को दिये थे । मपु० ७२.१२० (२) वृषभदेव के समय का एक जंगली प्राणी वानर । ये मिर्च जैसे फल भी खा लेते हैं किन्तु चरपरी लगने पर सिर भी हिलाते हैं । मपु० ३०.२२ मर्त्यानुगीत – एक नगर । लक्ष्मण ने इस पर विजय की थी । पपु० ९४.६ मर्दक- एक मांगलिक वाद्य । राम के समय में यह स्वयंवर आदि अवसरों पर बजाया जाता था । पपु० ६.३७९ मलघ्न - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.२०९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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