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________________ मन्दोदरी-मरीचि मन्दोदरी (१) साकेत के राजा सगर की प्रतीहारी इसने सुलसा के पास जाकर सगर के कुल, रूप, सौन्दर्य, पराक्रम, नय, विनय, विभव, बन्धु, सम्पत्ति तथा वर के अन्य गुणों का वर्णन कर उसे सगर में आसक्त किया था । मपु० ६७.२२०-२२२ हपु० २३.५० (२) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नगर के विद्याधर राजा मय और उसकी रानी हेमवती की पुत्री। इसके पिता दैत्यों के राजा होने से दैत्य नाम से प्रसिद्ध थे । इसका विवाह दशानन के साथ किया गया था। सीता इसी की पुत्री थी। रावण द्वारा सीता का अपहरण किये जाने पर इसने रावण से सीता को लौटाने हेतु निवेदन किया था । इन्द्रजित् और मेघनाद इसी के पुत्र थे पिता और पुत्रों के दोजित हो जाने पर वह भी शशिकान्ता आर्यिका के पास आर्यिका हो गयी थी । मपु० ८.१७-२७, ६८.३५६, पपु० ८.१-३, ४७, ८०, ७३.९३-९४, ७८.८५-९४ मन्वन्तर — एक कुलकर के बाद दूसरे कुलकर के उत्पन्न होने के बीच का असंख्यात करोड़ वर्षों का समय । मपु० ३.७६, १०२ मय- (१) राजा समुद्रविजय का पुत्र और अरिष्टनेमि का अनुज । हपु० ४८.४४ (२) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के असुरसंगीत नगर का विद्याधर । यह दैत्य नाम से प्रसिद्ध था । इसकी हेमवती भार्या तथा मन्दोदरी पुत्री थी । यह रावण का सचिव था । इसने राम के योद्धा अंगद के साथ युद्ध किया था। रावण का दाह संस्कार करने के बाद राम ने इसे पद्मसरोवर पर बन्धन - मुक्त करने के आदेश दिये थे । बन्धन अवस्था में इसने बन्धनों से मुक्त होने पर निर्ग्रन्थ साधु होकर पाणिपात्र से आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी । बन्धनों से मुक्त होने के पश्चात् भोगों का उपभोग करने के लिए लक्ष्मण के द्वारा निवेदन किये जाने पर प्रतिज्ञानुसार इसने लक्ष्मण से भोगोपभोगों के प्रति निरभिलाषा हो प्रकट की थी । बन्धन मुक्त होते हो प्रतिशा के अनुसार मुनि होकर इसमें पादागामिनी विद्या द्वारा इच्छानुसार तीथंकरों की निर्वाणभूमियों में विहार कर उनके दर्शन किये थे । इसके चरणस्पर्श मात्र से व्याघ्रनगर के राजा सुकान्त का पुत्र सिंहेन्दु निर्विष हो गया था। अन्त में यह पण्डितमरण-विधि से मरकर देव हुआ । पपु० ८.१-३, ६२.३७, ७३.१० -१२, ७८.८- ९, १४-१५ २४-२६, ३०-३१, ८०.१४१-१४२, १०३-१८१ २०८ मयूरग्रीव - ( १ ) एक विद्याधर । विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में अलका नगरी का राजा। इसकी रानी नीलांजना से पाँच पुत्र हुए थे— 'अश्वग्रीव, नीलरथ, नीलकण्ठ, सुकण्ठ और पाण्डवपुराण के अनुसार इसके चार पुत्र थे- अश्वग्रीव, नीलकंठ, वज्रकंठ और महाबल । मपु० ५७.८७-८८, ६२.५८-५९, ७४. १२८, पापु० ४.१९-२० वज्रकण्ठ । (२) आगामी नौवाँ प्रतिनारायण । हपु० ६०.५७० मयूरमाल - अर्धबबर देश का एक नगर । यहाँ म्लेच्छ रहते थे । आन्तरंगतम यहाँ का राजा था । पपु० २७.६-९ Jain Education International जैन पुराणकोश : २७९ मयूरवान् - राक्षस वंश का एक प्रसिद्ध विद्याधर । लंका का राज्य इसे राजा लंकाशोक से प्राप्त हुआ था । पपु० ५.३९७ मयूरी हस्तिनापुर के राजा पद्मरथ की रानी यह नौवें चक्रवर्ती महापद्म की जननी थी । पपु० २०.१७८-१७९ मरणाशंसा - सल्लेखना का दूसरा अतीचार-पीड़ा के कारण शीघ्र मरने की इच्छा करना । हपु० ५८. १९८४ मरोच - ( १ ) रावण के पक्ष का एक योद्धा राक्षस । यह दैत्यराज मय का मंत्री था । पपु० ८.४३-४४, १२.१९६ (२) एक फल- वृक्ष । इसके फल गुच्छों में फलते हैं । स्वाद में चरपरे होते हैं । मपु० ३०. २१-२२ मरीचि - ( १ ) तीर्थंकर आदिनाथ का पौत्र और चक्रवर्ती भरत का उनकी अनन्तमती रानी से उत्पन्न पुत्र । इसने तीर्थंकर वृषभदेव के साथ संयम धारण किया था। भूख-प्यास की अतीव वेदना से व्याकुलित होकर यह संयम से भ्रष्ट हुआ तथा स्वेच्छाचारी होकर जंगल के फलों और जल का सेवन करने लगा था । वन-देवता ने इसकी संयम विरोधी प्रवृत्तियाँ देखकर इसे समझाया था कि-'गृहस्थवेष में किया पाप तो संयमी होने से छूट जाता है किन्तु संयम अवस्था में किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है ।' वनदेवता की इस बात का इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। योग और सांख्यदर्शन के सिद्धान्त आरम्भ में इसी ने बनाये थे । यह परिव्राजक बन गया। संयम से भ्रष्ट हुए इसके साथी सम्बोधि प्राप्त कर पुनः दीक्षित हो गये थे किन्तु यह पथभ्रष्ट ही रहा । आयु के अन्त में शारीरिक कष्ट सहता हुआ यह मरकर अज्ञानतप के प्रभाव से ब्रह्म कल्प में देव हुआ । वहाँ से चयकर साकेत नगरी में यह कपिल ब्राह्मण और उसकी काली ब्राह्मणी का जटिल नामक पुत्र हुआ । दीक्षा लेकर जटिल तप के प्रभाव से देव हुआ और स्वर्ग से चयकर स्थूणागार नगर में पुष्यमित्र ब्राह्मण हुआ । यह मन्द कषायों के साथ मरने से सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से चयकर श्वेतिका नगरी में अग्निसह वित्र हुआ और इसके पश्चात् मत्कुमार स्वर्ग में देव । स्वर्ग से चयकर रमणीकमन्दिर नगर में अग्निमित्र ब्राह्मण हुआ । इसके पश्चात् माहेन्द्र स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर पुरातनमन्दिर नगर में सालंकायन का भारद्वाज पुत्र हुआ । त्रिदण्डी दीक्षा पूर्वक मरण होने से यह पुनः माहेन्द्र स्वर्गं गया और वहाँ से चयकर त्रस, स्थावर, योनियों में भटकता रहा । पश्चात् यह राजगृही में स्थावर नाम से उत्पन्न हुआ तथा मरकर स्वर्ग गया और वहाँ से चयकर पुनः इसी नगर में विश्वनन्दी नाम से उत्पन्न हुआ और इसके बाद स्वर्ग गया तथा वहाँ से चयकर पोदनपुर में त्रिपृष्ठ राजपुत्र हुआ । इस पर्याय से मरकर नरक पहुँचा और वहाँ से निकल कर सिंह हुआ। पुन: नरक ( रत्नप्रभा) गया और पुनः सिंह हुआ। सिंह पर्याय में इसने श्रावक के व्रत ग्रहण किये और मरकर व्रतों के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव हुआ । पश्चात् क्रमशः कनकपुंख विद्याधर का कनकोज्ज्वल पुत्र, स्वर्ग में देव, अयोध्या में हरिषेण नृप For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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