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________________ मधुकर-मध्यमपंचमी जैन पुराणकोश : २७३ नगरी का समीपवर्ती एक वन । भीलराज पुरुरवा इसी वन में रहता चाहता था किन्तु राम के भय से यह अपने विरोध को व्यक्त नहीं था। मपु० ६२.८६-८७, ७४.१४-१६, वीवच० २.१७-१९ कर सका था । पपु० ९६.३०-३१ मधुकर-एक कीट-भ्रमर । यह मकरन्द के रस में इतना आसक्त हो मधुमुख-राजा सत्यन्धर के मंत्री मतिसागर का पुत्र और जीवंधरकुमार जाता है कि उसे सूर्य कब अस्त हो गया यह ज्ञात नहीं हो पाता । का मित्र । मपु० ७५.२५६-२६० रात्रि आरम्भ होते ही कमल संकुचित हो जाते हैं और यह उसमें मधुर-राजा सत्यन्धर और रानी भामारति का पुत्र एवं वकुल का भाई। बन्द होकर मर जाता है। इसका अपर नाम द्विरेफ है। पपु० कुमार जीवंधर के साथ इन दोनों का पालन भी सेठ गन्धोत्कट ने ही ५.३०५-३०७ किया था। मपु०७५.२५४-२५९ मधुरा-(१) मेरु गणधर के नौवें पूर्वभव का जीव-भरतक्षेत्र के मधुकैटभ-चौथा प्रतिनारायण । दूरवर्ती पूर्वभव में यह मलय देश का कोशल देश में अवस्थित वृद्धग्राम के निवासी ब्राह्मण मृगायण की राजा चण्डशासन था। अनेक योनियों में भटकने के बाद यह प्रति स्त्री और वारुणी की जननी। यह मरकर पोदनपुर नगर के राजा नारायण हुआ । यह वाराणसी नगरी का नृप था। नारद से बलभद्र पूर्णचन्द्र की पुत्री रामदत्ता हुई थी। मपु० ५९.२०७-२१०, हपु० सुप्रभ और नारायण पुरुषोत्तम का वैभव सुनकर इसने उनसे हाथी २७.६१-६४ तथा रत्न कर के रूप में मांगे थे। इसकी इस मांग से क्षुब्ध होकर (२) इसका अपर नाम मथुरा था । दे० मथुरा नारायण ने इससे युद्ध किया। इसने नारायण पुरुषोत्तम पर चक्र मधुषेण-पुष्कलावती देश के विजयपुर नगर का एक वैश्य । इसकी स्त्री चलाया किन्तु चक्र से नारायण की कोई हानि नहीं हुई अपितु उसी बन्धुमती तथा पुत्री बन्धुयशा थी। मपु० ७१.३६३-३६४ चक्र से यह मारा गया और मरकर नरक गया। मपु० ६०.५२, मधुसूदन-(१) अवसर्पिणीकाल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में ७०-७८, ८३, हपु० ६०.२९१ दे० मधुसूदन उत्पन्न शलाकापुरुष और छठा प्रतिवासुदेव । यह काशी देश में मधुक्रीड-भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर का राजा । वाराणसी नगरी का स्वामी था। इसने बलभद्र सुप्रभ तथा नारायण धर्मनाथ तीर्थङ्कर के तीर्थ में प्रतिनारायण था। बलभद्र सुदर्शन और पुरुषोत्तम से कर स्वरूप गज और रल मांगे थे। फलस्वरूप बलभद्र नारायण पुरुषसिंह के तेज को न सह सकने से इसने उनसे श्रेष्ठ रत्न और नारायण इसके विरोधी हो गये। इसने उनसे युद्ध किया और माँग कर विरोध उत्पन्न कर लिया था। नारायण और इसके बीच अपने ही चक्र से मृत्यु को प्राप्त होकर नरक गया। मपु० ६०.७१युद्ध हुआ जिसमें इसने चक्र चलाकर नारायण को मारना चाहा किन्तु ७८, ८३, ६७.१४२-१४४, वीवच० १८.१०१, ११४-११५ दे० नारायण तो नहीं मारा गया उसी चक्र से नारायण के द्वारा यह मारा • मधुकैटभ गया । मपु० ६१,५६, ७४-८१ (२) कृष्ण का अपर नाम । मपु०७०.४७० मधुपिंगल-सुरम्य देश में पोदनपुर नगर के राजा तृणपिंगल और उसकी मधनाविणी-एक रस ऋद्धि । इससे भोजन मीठा न होने पर भी मीठा रानी सर्वयशा का पुत्र । भरतक्षेत्र में चारण-युगल नामक नगर के हो जाता है । मपु० २.७२ राजा सुयोधन और रानी अतिथि की पुत्री सुलसा चक्रवर्ती सगर में मधूक-राम के समय का एक जंगलीवृक्ष-महुआ । पपु० ४२.१५ आसक्त थी। सुलसा की माता अतिथि मधुपिंगल के साथ सुलसा को मध्य-(१) गायन सम्बन्धी त्रिविध लयों में दूसरी लय । पपु० २४.९ विवाहना चाहती थी। उसने मधुपिंगल से सुलसा का वरण करने के (२) वारुणीवर समुद्र का रक्षक देव । हपु० ५.६४१ लिए कहा और सुलसा ने भी माँ के आग्रहवश इसे स्वीकार कर मध्यदेश-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड का मध्यवर्ती देश । चक्रवर्ती भरतेश लिया । यह सब देखकर सगर के मंत्री ने शास्त्रानुकूल वर के गुणों का के सेनापति ने इसे अपने आधीन किया था। मपु० २९.४२, हपु० शास्त्र निर्माण कराया और सभा में उनकी वाचना करायी । अपने में २.१५१, ३.१ शास्त्रोक्त सब गुण विद्यमान न देखकर मधुपिंगल लज्जावश वहाँ से मध्यप्रसाद-संगीत संबंधी स्थायी-पद के चतुर्विध अलंकारों में तीसरा चला गया और गुरु हरिषेण से उसने तप धारण कर लिया । आहार ___ अलंकार । पपु० २४.१६ के लिए जाते हुए किसी निमित्तज्ञानी से मधुपिंगल ने अपने सम्बन्ध ___ मध्यम-(१) भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४२ में सुना था कि 'सगर के मंत्री ने झूठ-मूठ कृत्रिम शास्त्र दिखलाकर (२) संगीत संबंधी सप्त स्वरों में एक स्वर । पपु० १७.२७७, मधुपिंगल को दूषित ठहराया है' ऐसा ज्ञातकर मधुपिंगल ने निदान हपु० १९.१५३ किया और मरकर वह असुरेन्द्र की महिष-जातीय सेना की पहली (३) मध्यदेश की एक लिपि । केकया को इसका ज्ञान था । पपु० कक्षा में चौसठ हजार असुरों का नायक महाकाल असुर हुआ। मपु० २४.१६ ६७.२२३-२३६, २४५-२५२, हपु० २३.४७-१२३ (४) वारुणीवर समुद्र का एक रक्षक देव । हपु० ५.६४१ मधुमान्-अयोध्या का एक प्रभावशाली पुरुष । लंका से सीता के मध्यमखण्ड-भरतक्षेत्र का मध्य भाग । मपु० ३.२२ अयोध्या आने पर यह सीता के अयोध्या में रहने का विरोध करना मध्यमपंचमी-संगीत की दस जातियों में दूसरी जाति । पप० २४१३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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