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________________ जैन पुराणकोश : ११ अणुमान्-अतिबल को अपेक्षा अनित्य, अन्यथा नित्य होते हैं। मपु० २४.१४८, हपु०। ५८.५५ वीवच०, १६.११७ । अणमान्-विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्कान्त नगर के स्वामी तीनधि श्रेणी में विटा काल नगर खामी विद्याधर प्रभंजन और उनकी रानी अंजना का पुत्र। इसका मूल नाम अमिततेज था । शरीर को सूक्ष्मरूप देने में समर्थ होने से विद्याधरों ने इसे यह नाम दिया था। यह सुग्रीव का मित्र था। रामनाम से अंकित एक मुद्रिका राम से लेकर यह सीता की खोज करने लंका गया था । वहाँ पहुँचकर इसने अपना रूप भ्रमर का बनाया था। शिशिपा वृक्ष के नीचे सीता को देखकर इसने वानरविद्या से अपना रूप वानर का बनाया था और वृक्ष पर बैठकर वहीं वह अंगूठी सीता के पास गिरायी थी । सीता को खोज करने के पश्चात् राम को सर्वप्रथम सीता की प्राप्ति का सन्देश इसी ने दिया था। इस कार्य के फलस्वरूप राम ने इसे अपना सेनापति बनाया था। सुग्रीव और इसने गरुड़वाहिनी, सिंहवाहिनी, बन्धमोचिनी ओर हननावरणी विद्याएँ राम और लक्ष्मण को दी थीं। अन्त में इसने राम के साथ दीक्षा धारण की थी और श्रुतकेवली होकर मुक्ति प्राप्त की थी। मपु० ६८.२७५-२८०, २९३-२९८, ३११,३६३-३७०, ३७७, ५०८ ५०९, ५२१-५२२, ७०९-७२० अणुवत-गृहस्थ दशा में पांच महाव्रतों का एकदेश पालन करना । अणुव्रत पाँच है-अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और इच्छापरमाणुव्रत । इन पांचों की पांच-पांच भावनाएँ तथा अतिचार भी होते हैं । जो गृहस्थ भावनाओं के साथ इनका पालन निरतिचार करते हैं वे सम्यग्दर्शन की विशुद्धि पूर्वक परम्परा से मोक्ष पाते हैं। मपु० १०.१६३-१६४, ३९.४, पपु० ११.३८-३९, ८५. १८, हपु० १८.४६, ५८.११६, १३८-१४२, १६३-१७६ अणुव्रती-स्थूल रूप से पाँच पापों से विरत, शील-सम्पन्न और जिन शासन के प्रति श्रद्धा से युक्त मानव । ऐसा जीव मरकर देव होता है । हपु० १८.४६, पपु० २६.९९ दे० अणुव्रत अणोरणीयान-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७६ अतन्द्रालु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०७ अतसी-एक प्रकार का अनाज-अलसी । मपु० ३.१८७ अतिकन्या-रावण के पक्ष का एक विद्याधर । मपु०६८.४३ अतिकाय-व्यन्तर देवों की एक जाति विशेष का पांचवां इन्द्र । वीवच० १४.६० दे० व्यन्तर अतिगृद्ध-जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित वत्साकावती देश की र प्रभाकरी नगरी का राजा। यह मरकर विषयासक्ति और बहुत आरम्भ एवं परिग्रह के कारण पंकप्रभा नरकभूमि में उत्पन्न हुआ था। मपु० ८.१९१-१९३ अतिचार-व्रतों में शिथिलता लाकर विषयों में प्रवृत्ति करना। ये सम्यग्दर्शन के आठ, तथा अणुव्रतों और शीलवतों के पाँच-पाँच होते हैं । हपु० ५८.१६२-१६५, १७० अतिथि-(१) भ्रमणशील, अपरिग्रही, सम्यग्दर्शन आदि गणों से यक्त. निःस्पृही और अपने आगमन के विषय में किसी तिथि का संकेत किये बिना संयम की वृद्धि के लिए आहार हेतु गृहस्थ के घर आगत श्रमणमुनि । हपु० ५८.१५८, १५.६, पपु० १४.२००, ३५.११३ (२) भरतक्षेत्र के चारणयुगल नगर के राजा सुयोधन की रानो, सुलसा की जननी । मपु० ६७.२१३-२१४ अतिथिसंविभागवत-चार शिक्षाव्रतों में चौथा शिक्षाव्रत, अपर नाम अतिथि-पूजन । पद्मपुराणकार ने इसे तीसरा शिक्षाव्रत कहा है। अपने आने की तिथि का संकेत किये बिना घर आये अतिथि को शक्ति के अनुसार आदरपूर्वक लोभरहित होकर विधिपूर्वक भिक्षा (आहार), औषधि, उपकरण तथा आवास देना। पपु० १४.१९९-२०१, हपु० १८.४७, ५८.१५९, वीवच० १८.५७ इसके पांच अतिचार है१. मवितनिक्षेप-हरे पत्तों पर रखकर आहार देना। २. सचित्तावरण-हरे पत्तों से ढका हुआ आहार देना ३. परव्यपदेशअन्य दाता द्वारा देय वस्तु का दान करना ४. मात्सर्य-दूसरे दाताओं के गुणों को सहन नहीं करना ५. कालातिक्रम-समय पर आहार नहीं देना । यह गृहस्यों का व्रत है। पात्रों की अपेक्षा से यह अनेक प्रकार का होता है। पपु० ११.३९-४०, हपु० ५८.१८३ दे० शिक्षाव्रत । अतिवारुण-एक व्याध । यह छत्रपुर नगर के दारुण नामक व्याध और उसकी पत्नी मंगी का पुत्र था। इसने प्रियंगुखण्ड नाम के वन में प्रतिमायोग से तप करते हुए वज्रायुध मुनि को मार डाला था जिससे मरकर यह सातवें नरक में उत्पन्न हआ था। मपु० ५९.२७३-२७६, हपु० २७.१०७-१०९ अतिदुःषमा-अवसर्पिणोकाल का छठा और उत्मपिणीकाल का प्रथम भेद । अपर नाम दुःषमा दुःषमा । मपु० ७६.४५४, वीवच० १८.१२२ . दे० दुःषमा-दुःषमा अतिनिरुद्ध-पाँचवीं धूमप्रभा नरकमि के प्रथम प्रस्तार में स्थित तम नामक इन्द्रक बिल की पश्चिम दिशा में विद्यमान आर नामक इन्द्रक बिल की पश्चिम दिशा में स्थित महानरक । हपु० ४.१५५ अतिनिसृष्ट-चौथी पंकप्रभा पृथिवो के प्रथम प्रस्तार आर इन्द्रक बिल की पश्चिम दिशा का महानरक । हपु० ४.१५५ अतिपिपास-रत्नप्रभा नामक नरकभ मि के प्रथम प्रस्तार में विद्यमान सीमान्तक नामक इन्द्रक बिल की उत्तर दिशा में स्थित महानरक । हपु० ४.१५१ अतिबल-(१) वृषभदेव के पचहत्तरखें गणधर । हपु० १२.५५-७० (२) सूर्यवंशी राजा महाबल का पुत्र और अमृत का जनक । इसने निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर ली थी। पपु० ५.४-१० (३) तीर्थंकर पद्मप्रभ के पूर्वभव का एक नाम । पपु० २०.१४-२४ (४) भविष्यकालीन सातवाँ नारायण । हरिवंश-पुराणकार ने इसे Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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