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________________ १० : जैन पुराणकोश अजितनाभि-अणु पश्चात् एक कमलवन को विकसित और म्लान होते हुए देखकर चार तप करते हुए नभस्तिलक पर्वत पर शरीर त्याग कर सोलहवें सभी वस्तुओं को अनित्य जानकर ये वैराग्य को प्राप्त हुए थे। स्वर्ग के शान्ताकार विमान में अच्युतेन्द्र का पद पाया था। ये स्वर्ग इन्होंने पुत्र अजितसेन को राज्य देकर माघ मास के शुक्लपक्ष की से चयकर पद्मनाभ हुए। इसके पश्चात् वैजयन्त स्वर्ग में अहमिन्द्र नवमी को अपराह्न में रोहिणी नक्षत्र में निष्क्रमण किया था। होकर ये तीर्थकर चन्द्रप्रभ हुए । मपु० ५४.९२-१२६, २७६ ये सुप्रभा नामक पालकी में मनुष्य, विद्याधर और देवों द्वारा अजितसेना-(१) अयोध्या के राजा अजितंजय की रानी, अजितसेन की सहेतुक वन ले जाये गये थे। वहाँ ये एक हजार (पद्मपुराण के जननी । मपु० ५४.८७, ९२ दे० अजितंजय अनुसार दस हजार) आज्ञाकारी क्षत्रिय राजाओं के साथ षष्ठोपवास (२) पुष्कराध के पश्चिम विदेह में स्थित गन्धिल देश के विजया सहित सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षित हुए थे। दीक्षित होते ही इन्हें पर्वत की उत्तरश्रेणी में अरिन्दमपुर नगर के राजा अरिंजय को रानी, मनःपर्ययज्ञान हुआ था। दीक्षोपरान्त प्रथम पारणा में साकेत के प्रीतिमती की जननी । मपु० ७०.२६-२७, ३०-३१, हपु० ३४.१८ राजा ब्रह्मदत्त ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। बारह अजिता-गांधार देश में स्थित गान्धार नगर के राजा अजित जय की वर्ष (पद्मपुराण के अनुसार चौदह वर्ष) छद्मस्थ रहने के बाद रानी, ऐरा की जननी । मपु० ६३.३८४-३८५ पौष शुक्ल एकादशी के दिन सायं वेला तथा रोहिणी नक्षत्र में इन्हें अजीव-सात तत्त्वों में दूसरा तत्त्व । वोवच० १६.४-५ दे० तत्व । केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। ऋषभदेव के समान इनके भी चौंतीस इसके पाँच भेद है-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें अतिशय और आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए थे, पादमूल में रहने वाले धर्म, अधर्म, आकाश और काल अमूर्तिक तथा पुद्गल मूर्तिक है । यह इनके सिंहसेन आदि नव्वे गणधर थे। समवसरण-सभा में एक लाख तत्त्व निर्विकल्पियों के लिए हेय है किन्तु सरागी मनुष्यों को धर्म-ध्यान मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आयिकाएं, तीन लाख के लिए उपादेय है। मपु० २४.८९, १३२, १४४-१४९, वीवच० धावक, पाँच लाख श्राविकाएं और देव-देवियाँ थीं। इन्होंने चैत्र ६.११५, १७.४९ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में प्रातःकाल __ अजीवविचय-धर्म-ध्यान के दस भेदों में चौथा भेद-धर्म, अधर्म आदि प्रतिमायोग से सम्मेदाचल पर मुक्ति प्राप्त की थी। तीर्थकरत्व की अजीव द्रव्यों के स्वभाव का चिन्तन करना। हपु० ५६.४४ दे० साधना इन्होंने दूसरे पूर्वभव में आरम्भ कर दी थी। इस समय ये धर्मध्यान पूर्व विदेह क्षेत्र की सुसीमा के विमलवाहन नामक नृप थे। इस अज्ञानपरोषह-बाईस परीषहों में एक परीषह-अज्ञान जनित वेदना 'पर्याय में इन्होंने तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया था। पूर्वभव में ये सहना । मपु० ३६.१२७ दे० परीषह विजय नामक अनुत्तर विमान में देव थे और वहाँ से च्युत होकर अज्ञानमिथ्यात्व-मिथ्यात्व के पाँच भेदों में प्रथम भेद-पाप और धर्म तीर्थकर हुए थे। मपु० ४८.३-५६, पपु० ५.६०-७३, २१२, २४६, के ज्ञान से दूरवर्तो जोवों के मिथ्यात्वकर्म के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्व २०.१८-३८, ६१, ६६-६८,८३, ११३,११८,हपु० ६०.१५६-१८३, रूप परिणाम । मपु० ६२.२९७-२९८ दे० मिथ्यात्व ३४१, ३४९ वीवच० १८.१०१-१०५ अटट-चौरासी लाख अट्टांग प्रमाण काल । मपु० ३.२२४, हपु. अजितनाभि-नवम रुद्र । यह धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुआ था। ७.२८ दे० काल हपु० ६०. ५३६ दे० रुद्र अटटांग-बौरासी लाख तुटिक (तुट्वंग) प्रमाण काल । मपु० ३.२२४, अजितशत्र -जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३५ दे० जरासन्ध हपु० ७.२८ दे० काल अजितसेन-(१) दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का पुत्र । अजितनाथ इसे ही अटवीधी-शोभानगर के शक्ति नामक सामन्त को भायां, सत्यदेव को राज्य देकर दीक्षित हुए थे। मपु० ४८.३६ जननी । इसने अभितगति गणिनो से शुक्ल पक्ष को प्रतिपदा और (२) विजया पर्वत की उत्तर श्रेणी में स्थित कांचनतिलक नगर कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन पाँच वर्ष तक निराहार रहने का नियम के राजा महेन्द्रविक्रम और उनकी रानी नीलवेगा का पुत्र । यह विद्या लिया था। पति-पत्नी दोनों ने मुनियों को आहार देकर पंचाश्चर्य और पराक्रम से दुर्जेय था। तपस्या करके । अन्त में यह केवली प्राप्त किये थे । मपु० ४६.९३-१०१, १२३-१२४ हुआ। मपु० ६३.१०५-१०६, ११४ अणिमा-शरीर को सूक्ष्म रूप प्रदान करनेवाली एक विद्या। यह (३) काश्यपगोत्री एक राजा। प्रियदर्शना इसकी रानी और दशानन को भी प्राप्त थो । मपु० ५.२७९, ४९.१३, पपु० ७.३२५विश्वसेन इसका पुत्र था । मपु० ६३.३८२-३८३ ३३२ (४) पूर्व धातकीखण्ड में स्थित अयोध्या के राजा अजितंजय और अणिष्ठ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुन वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ उनकी रानी अजितसेना के पुत्र श्रीधर के जीव । ये चक्रवर्ती थे। अणीयान्-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४३ इन्होंने अरिन्दम नाम के मुनि को आहार दिया था। अन्त में ये अणु-पुद्गल का अविभागी अत्यन्त सूक्ष्म अंश । अणुओं से स्कन्ध गुणप्रभ जिनेन्द्र से धर्मश्रवण कर विरक्त हो गये। इन्हींने जितशत्रु बनता है । इसमें आठ स्पर्शों में से कोई भी दो अविरुद्ध स्पर्श, एक नाम के पुत्र को राज्य देकर तप धारण कर लिया था तथा निरति- वर्ण, एक गन्ध और एक रस रहता है । ये आकार में गोल, पर्यायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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