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________________ भवनश्रुत-भानु जैन पुराणकोश : २५७ - में रहते हैं। वहाँ असुरकुमारों के चौसठ लाख, नागकुमारों के चौरासी लाख, गरुडकुमारों के बहत्तर लाख, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, मेघकुमार, दिक्कुमार, अग्निकुमार और विद्युत्कुमार इन छः कुमारों के छिहत्तर-छिहत्तर लाख तथा वायुकुमारों के छियानवें लाख, इस प्रकार इनके कुल सात करोड़ बहत्तर लाख भवन है। इन देवों के बीस इन्द्र और बीस ही प्रतीन्द्र होते हैं । उनके नाम ये है-१. चमर २. वैराचन ३. भूतेश ४. धरणानन्द ५. वेणुदेव ६. वेणधारी ७. पूर्ण ८. अवशिष्ट ९. जलप्रभ १०. जलकान्ति ११. हरिषेण १२. हरिकान्त १३. अग्निशिखी १४. अग्निवाहन १५. अमितगति १६. अमितवाहन १७. घोष १८. महाघोष १९. वेलंजन और २०. प्रभंजन । पपु० ३.८२, १५९-१६२, २६.९४, हपु० ४.५०-५१, ५९-६१, ३८.१४, १७ वीवच० १४.५४-५७ भवनश्रत-सातवें बलभद्र नन्दिषेण के गुरु । पपु० २०.२४६-२४७ भवपरिवर्तन-द्रव्य, क्षेत्र आदि पाँच प्रकार के परावर्तनों में चौथा परावर्तन । देवलोक के नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर इन चौदह विमानों को छोड़कर शेष चारों गतियों में गमनागमन भवपरिवर्तन कहलाता है । वीवच० ११.२६-३१ भवप्रत्यय-अवधिज्ञान के दो भेदों में से प्रथम भेद । इसके होने में भव निमित्त होता है। स्वर्ग और नरक में उत्पन्न होनेवालों के भी यह ज्ञान होता है। स्वर्ग में ये देव है, ये देवियाँ हैं, यह हमारे तप का फल है आदि भव-सम्बन्धी ज्ञान देवों को इसी से उत्पन्न होता है। मपु० ५.२६७-२७१ भवविचय-धर्मध्यान के दस भेदों में सातवाँ भेद। चारों गतियों में भ्रमण करनेवाले जीवों को मरने के बाद जो पर्याय प्राप्त होती है उसे भव कहते हैं। यह भव दुःखरूप है-ऐसा चिन्तन करना भवविचय धर्मध्यान है । हपु० ५६.४७, ५२ ।। भवान्तक-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४४, २५.११७ भवोद्भव-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. गुणस्थान से लेकर अन्तिम गुणस्थान तक के तेरह गणस्थानों में नियम से जीवों के भव्यपना ही रहता है । प्रथम गुणस्थान में भव्यपना तथा अभव्यपना दोनों होते हैं । हपु० ३.१००, १०४, वीवच० १६.६४ भव्यपेटकनायक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०८ भव्यबन्धु-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १०४ भव्यभास्कर-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३६ भव्यमार्गणा-जीवों को ढूंढने के चौदह स्थानों में एक स्थान । यह भव्य ओर अभव्य के भेद से दो प्रकार का होता है। वीवच० १६. ५३.५५ भव्यान्जिनीबन्धु-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४१ भागवत्त-वृषभदेव के चौरासी गणधरों में श्रेपनवें गणधर । मपु० ४३. ६२, हपु० १२.६४, भागफल्गु-वृषभदेव के चौरासी गणधरों में चौवनवें गणधर । मपु० ४३.६२, हपु० १२.६४, भागीरथी-भरतक्षेत्र की गंगा नदी । पपु० ११.३८२, हपु० ३१.५ भाजनांग-उत्तरकुरु-भोगभूमि के दस प्रकार के रलमय कल्पवृक्षों में एक प्रकार के कल्पवृक्ष । इनसे थाली, कटोरा, सीप के आकार के बर्तन, भंगार और अन्य इच्छित बर्तन प्राप्त होते हैं। मपु० ९.३४-३६, ४७, हपु० ७.८०, ८६, वीवच० १८.९१-९२ भानु-(१) एक नृप। यह कृष्ण के कुल की रक्षा करता था। हपु० ५०.१३० (२) कृष्ण और सत्यभामा का पुत्र । सूर्य के प्रभामण्डल के समान दैदीप्यमान होने से इसका यह नाम रखा गया था। यह अन्त में दीक्षा धारण कर मुनि हो गया था। हपु० ४४.१, ४८.६९, ६१.३९ (३) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३१ (४) मथुरा के राजा लब्धाभिमान का पुत्र और यवु का पिता। हपु० १८.३ (५) मथुरा का बारह करोड़ मुद्राओं का स्वामी एक श्रेष्ठी । यमुना इसकी स्त्री थी। इन दोनों के सुभानु, भानुकीर्ति, भानुषेण, शूर, सूरदेव, शूरदत्त और शूरसेन ये सात पुत्र तथा क्रमशः कालिन्दी, तिलका, कान्ता, श्रीकान्ता, सुन्दरी, द्यु ति और चन्द्रकान्ता पुत्र-वधुएँ थीं। इसने अभयनन्दी गुरु से तथा इसकी स्त्री यमुना ने जिनदत्ता आयिका से दीक्षा ले ली थी। इसके पुत्र भी वरधर्म गुरु के समीप दीक्षित हो गये थे। आयु के अन्त में समाधिमरण करके यह सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयुवाला त्रायस्त्रिंश जाति का उत्तम देव हुआ । इसका अपर नाम भानुदत्त था। मपु० ७१.२०१२०६, हपु० ३३.९६-१००, १२४-१३० भवोन्माद-वरुण का उद्यान । युद्ध में वरुण को जीतने के पश्चात् रावण ने ससैन्य यहाँ विश्राम किया था । पपु० १९.६४ भव्य-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति पूर्वक मोक्ष पाने की योग्यता रखनेवाला जीव । यह देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंग कारण तथा करणलब्धि रूप अन्तरंग कारण पाकर प्रयत्न करने पर सिद्ध हो जाता है। जो प्रयत्न करने पर भी सिद्ध नहीं हो पाते वे अभव्य कहलाते हैं। मपु० ४.८८, ९.११६, २४. १२८, ७१.१९६-१९७, पपु० २, १५५-१५७, हपु० ३.१०१ भव्यकूट-समवसरण का दैदीप्यमान शिखरों से युक्त एक स्तूप । इसे अभव्य जीव नहीं देख पाते क्योंकि स्तूप के प्रभाव से उनके नेत्र अन्धे हो जाते हैं । हपु० ५७.१०४ भव्यत्व-जीव का वह स्वभाव जिससे सम्यक्त्व प्रकट होता है । दूसरे Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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