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________________ भरतकूट-भवनवासो २५६ : जैन पुराणकोश हुआ था। केकया के निवेदन पर दशरथ ने इसे राज्य देकर राज्य करने के लिए प्रेरित किया था। यह पिता के समान प्रजा का पालन करता था। राज्य में इसकी आसक्ति नहीं थी। यह तीनों काल अरनाथ तीर्थकर की वन्दना करता तथा भोगों से उदास रहता था। इसने राम के दर्शन मात्र से मुनि-दीक्षा धारण करने की प्रतिज्ञा की थी। इसकी डेढ़ सौ रानियाँ थीं परन्तु वे इसे विषयाधीन नहीं कर सकी थीं। राम के वनवास से लौटने पर केवली देशभूषण से इसने परिग्रह त्याग करके पर्यकासन में स्थित होकर केशलोंच किया तथा मुनि-दीक्षा ले ली थी। इसके साथ एक हजार से अधिक राजा मुनि हुए थे । अन्त में केवलज्ञान प्राप्त कर यह मुक्त हुआ। त्रिलोकमण्डन हाथी और यह दोनों पूर्वभव में चन्द्रोदय और सूर्योदय नामक सहोदर थे । इसका जीव चन्द्रोदय तथा त्रिलोकमण्डन का जीव सूर्योदय था। दोनों ब्राह्मण के पुत्र थे। मपु० ६७.१६४-१६५, पपु० २५.३५, २८.२६२-२६३, ३१.११२-११४, १५१-१५३, ३२.१३६-१४०, १८८, ८३.३९-४०, ८५.१७१-१७२, ८६.६-११, ८७.१५-१६, ३८, ९८ (३) अनागत प्रथम चक्रवर्ती । मपु० ७६.४८२, हपु० ६०.५६३ भरतकूट-प्रथम जम्बूद्वीप में हिमवत् कुचालक के ग्यारह कूटों में तीसरा कूट। यह मूल में पच्चीस योजन, मध्य में पौने उन्नीस योजन और ऊपर साढ़े बारह योजन विस्तार से युक्त है । हपु० ५.५३-५६ भरतक्षेत्र-जम्बद्वीप का प्रमुख क्षेत्र । यह छः खण्डों में विभक्त है। इनमें पाँच म्लेच्छ खण्ड तथा एक आर्यखण्ड है। यह लवणसमुद्र तथा हिमवान् पर्वत के मध्य में स्थित है। यहाँ चक्रवर्ती के दस प्रकार के भोग, तीर्थंकरों का ऐश्वर्य और अघातिया कर्मों के क्षय से मोक्ष भी प्राप्त होता है । यहाँ ऐरावत क्षेत्र के समान वृद्धि और ह्रास के द्वारा परिवर्तन होता रहता है। इसके ठीक मध्य में पूर्व से पश्चिम तक लम्बा विजया पर्वत है । इसकी दक्षिण दिशा में जिन प्रतिमाओं से युक्त एक राक्षस द्वीप है । वृषभदेव के पुत्र भरतेश के नाम पर इसका भरतक्षेत्र नाम प्रसिद्ध हुआ। इसका अपर नाम भारत है। मपु० ६२.१६-२०, ६३.१९१-१९३, पपु० ३.४३, ४.५९, हपु० ५.१३ दे० भारत भरणी-एक नक्षत्र । तीर्थकर शान्तिनाथ का जन्म इसी नक्षत्र में हुआ था। पपु० २०.५२ भरद्वाज-समुद्र तट पर स्थित भरतक्षेत्र का एक देश । महावीर ने ' विहार करते हुए यहाँ भी आकर धर्मोपदेश दिया था। हपु० ३.६ भरुकच्छ-भरतेश के छोटे भाइयों द्वारा त्यक्त देशों में भरतक्षेत्र की पश्चिम दिशा में स्थित एक देश । हपु० ११.७२ भर्ता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११६ भर्माभ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९७ भल्लंकी-भरतक्षेत्र में भीलों की एक पल्ली। यह गन्धमादन पर्वत से निकली गन्धवती नदी के समीप है । मपु०७१.३०९ भव-(१) अनागत ग्यारह रुद्रों में छठा रुद्र । हपु० ६०.५७१ (२) जम्बूस्वामी का प्रमुख शिष्य । मपु०७६.१२० (३) चारों गतियों में भ्रमण करनेवाले जीवों को वर्तमान शरीर त्यागने के बाद प्राप्त होनेवाला आगामी दूसरा शरीर । हपु० ५६.४७ (४) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११७ भवतारक-सौधर्मेन्द्र द्वारा वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ भवन–तीर्थकरों के गर्भ में आने पर तीर्थंकर-जननी द्वारा देखे गये सोलह स्वप्नों में चौदहवाँ स्वप्न । पपु० २१.१२-१५ भवदेव-(१) मृणालवती नगरी के सेठ सुकेतु और सेठानी कनकधी का पुत्र । दुराचारी होने के कारण इसे 'दुमुख' कहते थे। यह इसी नगरी के सेठ श्रीदत्त की पुत्री रतिवेगा को विवाहना चाहता था। व्यापार के निमित्त बाहर जाने से श्रीदत्त ने अपनी पुत्री का विवाह इसके साथ न करके सुकान्त से कर दिया। देशान्तर से लौटने पर यह सब जानकर यह अति रुष्ट हुआ। झगड़े की सम्भावना के फलस्वरूप सुकान्त अपनी वधू के साथ शोभानगर के सामन्त शक्तिषण की शरण में जा पहुंचा। यह निराश हो गया। अवसर मिलते ही इसने सुकान्त और रतिवेगा दोनों को जला दिया था। मपु० ४६. १०३-१०९, १३४ (२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में मगध देश के वृद्धग्राम के वैश्य राष्ट्रकूट का कनिष्ठ पुत्र और भगदत्त का अनुज । इसके बड़े भाई भगदत्त ने मुनि-दीक्षा ले ली थी। भगदत्त चाहता था कि वह भी संयम धारण कर ले। विवाह हो जाने से यह ऐसा नहीं कर पा रहा था। अतः मुनि भगदत्त ने इसे अपने गुरु के पास ले जाकर संयम धारण करा दिया था परन्तु स्त्री-मोह के कारण यह संयम में स्थिर न रह सका । सयम में स्थिर करने के लिए गुणमती आयिका ने इसे कथाओं के माध्यम से समझाकर और इसकी पत्नी नागश्री इसे दिखाकर विरक्ति उत्पन्न की थी। यह भी संसार को स्थिति का स्मरण कर अपनी निन्दा करता हुआ संयम में स्थिर हो गया और मृत्यु के पश्चात् भाई भगदत्त मुनिराज के साथ माहेन्द्र स्वर्ग के बलभद्र नामक विमान में सात सागर की आयु का धारी सामानिक देव हुआ । मपु. ७६.१५२-२०० भवधारण–अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के बीस प्राभृतों (पाहुड) में कर्म प्रकृति नामक चौथे प्राभृत के चौबीस योग द्वारों में अठारहवाँ योगद्वार । हपु० १०.८१, ८४ दे० अग्रायणीयपूर्व भवनवासी-चतुर्णिकाय के देवों में प्रथम निकाय के देव । ये दस प्रकार के होते हैं-असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, वायुकुमार, द्वीपकुमार, सुपर्णकुमार, महोदधिकुमार, स्तनितकुमार और दिक्कुमार । जिनेन्द्र के जन्म की सूचना देने के लिए इन देवों के भवनों में बिना बजाये शंख बजते हैं। इन देवों में असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर में लड़ाकर दुःख पहुँचाते हैं। ये देव रत्नप्रभा पृथिवी के पंकभाग में और शेष नौ प्रकार के भवनवासी देव खरभाग Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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