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________________ २४८ : जैन पुराणकोश बह्वाशी-बालिखिल्य बहुवज्रा-भरतक्षेत्र की एक नदी । इसे पार करके भरतेश की सेना आगे बढ़ी थी। मपु० २९.६१ बहुशिलापटल-रत्नप्रभा नाम की प्रथम नरकभूमि के तीन भागों में प्रथम खरभाग का सोलवाँ (अन्तिम) पटल । हपु० ४.४३, ४७-४८, ५२-५४ बहश्रुत-(१) विजयाध पर्वत की दक्षिणश्रेणी में रथनूपुरचक्रवाल नगर के राजा ज्वलनजटी विद्याधर का द्वितीय मंत्री। मपु० ६२.२५-३०, ६३ पापु० ४.२२ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १२० (३) अनेक शास्त्रों के ज्ञाता आचार्य और उपाध्याय । मपु० ६३. ३२७ बहुश्रुतभक्ति-अनेक शास्त्रों के ज्ञाता आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठी में तथा आगम में मन, वचन और कार्य से भावों को शुद्धतापूर्वक श्रद्धा रखना । मपु० ६३.३२७, हपु० ३४.१४१ बाण-विजयाध पर्वत की उत्तरश्रेणी में स्थित श्रुतशोणित नगर का निवासी एक विद्याधर । हयु० ५५.१६ बाणमुक्त-भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड के दक्षिण का देश । हपु० ११.६९, शतबलि बलभद्र नन्दिमित्र द्वारा मारा गया था। अपने पुत्र की मृत्यु लेने के लिए नारायणदत्त के मारने को इसने चक्र चलाया था किन्तु चक्र प्रदक्षिणा देकर नारायणदत्त की दायीं भुजा पर जाकर ठहर गया । इसी चक्र से यह नारायण दत्त द्वारा मारा गया और मरकर नरक गया। मपु० ६६.१०९-१२५ (२) विजयाध पर्वत के किलकिल नगर का स्वामी विद्याधर । यह प्रियंगुसुन्दरी का पति तथा बाली और सुग्रीव का जनक था। मपु० ६८.२७१-२७३ बह्वाशी-राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी का सातवाँ पुत्र । पापु० ८. २०१ बहिरात्मा-देह और देही को एक माननेवाला व्यक्ति । यह तत्त्व अतत्त्व में गुण-अवगुण में, सुगुरू-कुगुरू में, धर्म-अधर्म में, शुभ-अशुभ मार्ग में, जिनसूत्र-कुशास्त्र में, देव-अदेव में और हेयोपादेय के विचार में विवेक नहीं करता । तप, श्रुत और व्रत से युक्त होकर भी यह स्व-पर विवेक से रहित होता है । वीवच० १६.६७-७२ बहिविष्-बाह्य शत्रु । हपु० १.२३ बहिर्यान-गर्भान्वय क्रियाओं में आठवीं क्रिया । इस क्रिया में जन्म के दो-तीन अथवा तीन-चार मास पश्चात् अपनी अनुकूलता के अनुसार किसी शुभ दिन तुरही आदि मांगलिक बाजों के साथ शिशु को प्रसूतिगृह के बाहर लाया जाता है । इस क्रिया के समय बन्धुजन शिशु को उपहार देते हैं । मपु० ३८.५१-५५, ९०-९२ इस क्रिया में निम्न मंत्र का जाप होता है-उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव और आर्हन्त्यराज्यभागी भव । मपु० ४०.१३५ १३९ बहिध्वज-मयूराकृतियों से चिह्नित ध्वजाएँ। मपु० २२.२२४ बहु केतुक-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में चौथा नगर । मपु० १९.३०-३१, ३५, हपु० २२.९२-९३ बहुमित्र-सुजन देश में हेमाभनगर के राजा दृढ़ मित्र का द्वितीय पुत्र । यह गुणमित्र का अनुज, सुमित्र और धनमित्र का अग्रज, हेमाभा का भाई तथा जीवन्धर का साला था। यह अनेक विद्याओं में निपुण था। मपु० ७५.४२०-४३० । । बहुमुखी-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी की उन्नीसवीं नगरी । मपु० १९.४५, ५३-५४ बहुरूपिणी अनेक रूप बनाने की शक्तिशाली एक विद्या । इस पर देव कृत विघ्न नहीं होते । यह विद्या चौबीस दिन में सिद्ध होती है । जिसे यह सिद्ध हो जाती है वह इन्द्र से भी अजेय हो जाता है। इसकी साधना के समय साधक को क्रोधजयी होना पड़ता है। मपु० १४.१४१, ७०.३-४, ९४, पपु० ६७.६ बहुलपक्ष-महीने का कृष्ण पक्ष । पपु० ६.७७ बाणा--पश्चिम समुद्र की ओर बहने वाली एक नदी। इसे भरतेश के सेनापति ने ससैन्य पार किया था । मपु० ३०.५४, ५७ बादर-वे जीव जिनके शरीर का घात हो सकता है। मपु० १७.२४, पपु० १०५.१४५ बाधा-इष्ट पदार्थों को उपलब्धि में अन्तराय । मपु० ६६.६९ बालचन्द्र-(१) राजा अनरण्य का सेनापति । विदग्ध नगर के राजा प्रकाशसिंह के पुत्र कुण्डलमण्डित को इसी ने बाँधा था । पपु० २६. ५१-५६ (२) आगामी काल में होनेवाला नौवां बलभद्र । हपु० ६०.५६९ बालचन्द्रा-विजया पर्वत की दक्षिणश्रेणी में स्थित गगनवल्लभ नगर के राजा की पुत्री । इसका विवाह वसुदेव से हुआ था । अन्त में यह वसुदेव के कहने से उसकी दूसरी रानी वेगवती को विद्याएँ देकर निःशल्य हो गयी थी। हपु० २६.५०, ५६, ३२. १७-१८ बालनया-दुःषमाकाल के अन्त में होनेवाले कल्किराज के बुद्धिमान् पुत्र ___अजितंजय की भार्या । मपु० ७६.४२८ बालमित्र-इन्द्रनगर के राजा का पुत्र । लक्ष्मण के अभाव में पृथिवी धर ने अपनी पुत्री वनमाला इसे ही देने का निश्चय किया था। पपु० ३६.११-१७ बालार्काभ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१९८ बालिखिल्य-सिंहोदर राजा के अधीन कूबर नगर का एक नृप । यह कौशाम्बी नगरी के राजा विश्वानल और उसकी रानी प्रतिसन्ध्या Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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