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________________ प्रेमक-बन्धुदत्त प्रेमक - भविष्यत् कालीन तेरहवें तीर्थकुर मपु० ७६.४०३ प्रेष्ठ- सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ प्रेष्यप्रयोग — देशव्रत का प्रथम अतिचार मर्यादा के बाहर सेवक को भेजना | पु० ५८.१७८ प्रोषधोपवास- (१) चार शिक्षाव्रतों में दूसरा शिक्षाव्रत । इसमें मास के अष्टमी और चतुर्दशी इन चार पर्व के दिनों में निरारम्भ रहकर चारों प्रकार के आहार का त्याग किया जाता है । इसमें इन्द्रियाँ बहिर्मुखता से हटकर अन्तर्मुख हो जाती हैं। पु० ५८.१५४, बीच० १८.५६ इसके पाँच अतिचार होते है---अनवेक्ष्यमोत्सर्ग, अनवेक्ष्यादान, अनवेक्ष्यसंस्तरसंक्रम, अनैकाग्रय तथा व्रत के प्रति अनादर । एक प्रोषधोपवास को चतुर्थक कहते हैं । मपु० २०.२८-२९, ३६, १८५, पु० ३४.१२५, ५८.१८१ (२) श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में चौथो प्रतिमा । इसे प्रोषधव्रत भी कहते हैं । वीवच० १८.६० प्रोष्ठिल - ( १ ) एक मुनि। ये दन्तपुर नगर के निवासी वणिक वीरदत्त के दीक्षा - गुरु थे । मपु० ७०. ६५ ७१ (२) तीर्थकर वर्द्धमान के पूर्वभव का जीव यह नन्द नामक राजकुमार का गुरु एवं उपदेशक था । मपु० ७४.२४३, वीवच० ६. २.३० दे० महावीर (३) तीर्थंकर वर्द्धमान का पूर्वभव का पिता । मपु० २०.२९ ३० दे० महावीर 1 (४) तर वर्तमान के पूर्वभव के गुरु ० ६०.१६३ (५) भविष्यत् कालीन स्वयंप्रभ चौबे तीर्थकुर के पूर्वभव का जीव । मपु० ७६.४७२ (६) भविष्यत् कालीन नौवें तीर्थङ्कर । मपु० ७६.४७८ (७) दशपूर्वधारी मुनि । तीर्थङ्कर वर्द्धमान के मोक्ष जाने के पश्चात् हुए दशपूर्व और ग्यारह अंगधारी ग्यारह मुनियों में ये दूसरे मुनि थे। मपु०२१४१-१४५, ७६.५२१, ०१.६२ वीच० १.४५-४७ तीर्थंकर शीतलनाथ का चैत्यवृक्ष (यू० २०.४६ प्लवग-विद्या-- बन्दर जैसा रूप प्रदान करने में समर्थ विद्या । अणुमान् ( हनुमान् ) ने इसी विद्या से लंका में बन्दर का रूप धारण किया था। पु. ६८.२६१-३६४ फ फलकहार — एक हार । यह अर्धमाणवहार के मध्य में मणि लगाकर तैयार किया जाता है । मपु० १६.६५ फलचारणऋद्धि - एक ऋद्धि । इसके प्रभाव से फलों पर गमनागमन होने पर भी फल यथावत् बने रहते हैं । मपु २.७३ फल्गुमति - पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा लोकपाल का असत्यवादी और मूर्ख मन्त्री । मपु० ४६.५०-५१ फल्गुसेना – दुःषमा काल की अन्तिम धाविका यह साकेत की निवासिनी होगी । पाँचवें दुःषमा काल के साढ़े आठ मास शेष रहने Jain Education International मैनपुराणकोश: २४५ पर कार्तिक मास में कृष्णपक्ष के अन्तिम दिन प्रातः वेला और स्वाति नक्षत्र के उदय काल में शरीर त्यागकर प्रथम स्वर्ग में जायगी । इसके साथ वीरांगज मुनि, अग्निल श्रावक और आर्यिका सर्वश्री भी वहीं जायेंगे । मपु० ७६.४३२-४३६ फेन - विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी का सैंतालीसवाँ नगर । मपु० १९. ८५, ८७ फेनवासिनी विदेहक्षेत्र की वारह विभंगा नदियों में ग्यारहवीं नदी । यह नीलांचल से निकलकर सीतोदा में मिली है । मपु० ६३.२०७, हपु० ५.२४२ - बंहिष्ठ - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२२ बक - श्रुतपुर नगर का राजा। यह बगुले के समान धर्महीन था । नरमांस भक्षी होने से प्रजा द्वारा नगर से निष्कासित कर दिया गया था। यह वन में रहा और वहाँ भी नर-मांस खाता रहा । नगरवासी इसे प्रति परिवार एक मनुष्य भेजते रहे । एक दिन किसी वैश्यपत्नी के निवेदन पर कुन्ती अपने पुत्र भीम से इसका प्रतिकार करने को कहा। माँ का आदेश प्राप्त कर भीम ने इससे युद्ध किया और इसका मान मर्दन किया। अन्त में यह मनुष्यों का घात करने से विरक्त हो गया । पापु० १४.८५- १३६ बडवामुख——-लवणसमुद्र का दक्षिण दिशा में स्थित पातालविवर । हपु० ५.४४३ ने बन्दी - उत्साहवर्द्धक मंगल पाठ करनेवाले चारण अथवा देव । ये तीर्थंकर की माता को जगाने और प्रस्थान के समय उच्च स्वर से मंगल पाठ करते हैं । मपु० ७.२४३, १२.१२१-१२२, १७.१०२ बन्ध (१) बात्मा और कमों का एक क्षेत्रामगाह होना वाय-कलुषित जीव प्रत्येक क्षण बन्ध करता है । सामान्य रूप से इसके चार भेद कहे है प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश यह पाँच कारणों से होता है वे हैं - मिथ्यात्व, अव्रताचरण, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के एक सौ आठ, प्रमाद के पन्द्रह, कषाय के चार और योग के पन्द्रह भेद होते हैं । मपु० २.११८, ४७. ३०९-३१२, हपु० ५८.२०२-२०३ (२) जीवों की गति का निरोधक तत्व-बन्ध यह अति का एक अतिचार है । हपु० ५८. १६४ बन्धन – एक विद्यास्त्र । चण्डवेग ने यह अस्त्र वसुदेव को दिया था । हपु० २५.४८ बन्धमोक्षज्ञ - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०८ बन्धु - (१) सीता स्वयंवर में सम्मिलित एक नृप । पपु० २८.२१५ (२) बन्धन रूप व्यक्ति । ये सुख और दुःख दोनों के कारण होते हैं । मपु० ४.१४९, ६३.२२८ बन्धुवत्त- मृत्तिकावती नगरी के राजा कनक और उसकी रानी धुर का पुत्र । यह राजकुमारी मित्रवती के साथ विवाहित हुआ था । क्रौंचपुर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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