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________________ २४४ : जैन पुराणकोश प्रीतिकरा-प्रेक्षाशाला वसुन्धरा को तो जहाज़ में बैठा लिया और प्रीतिकर को वहीं धोखे से छोड़ दिया । नागदत्त वसुन्धरा के साथ अपने नगर लौट आया। कुबेरदत्त और नगरवासियों के पूछने पर उसने प्रीतिकर के विषय में अपने अज्ञान को प्रकट किया। इधर निराश होकर प्रीतिकर जिनमन्दिर गया। वहाँ जिनपूजा के लिए दो देव आये । उन्होंने इसके कान में बंधे हुए पत्र से इसे अपना गुरु भाई जाना । देवों ने प्रीतिकर की सहायता की। उन्होंने उसे उसके नगर के पास के धरणीभूषण पर्वत पर छोड़ दिया। अपने नगर आने पर प्रीतिकर ने सम्पूर्ण घटना से राजा को अवगत किया। राजा ने नागदत्त का सब कुल छीन लिया। उसे मारना भी चाहा पर प्रीतिकर ने राजा को ऐसा नहीं करने दिया। राजा ने प्रीतिकर के सौजन्य से मुग्ध होकर अपनी पृथिवीसुन्दरी कन्या तथा वसुन्धरा और वैश्यों की अन्य बत्तीस कन्याओं के साथ विवाह करा दिया । राजा ने इसे अपना आधा राज्य भी दे दिया। अन्त में इसने चारण ऋद्धिधारी ऋजुमति मुनि से धर्मोपदेश सुना और अपने पुत्र प्रीतिकर को राज्य देकर पत्नी और भाई बन्धुओं के साथ राजगृहनगर में तीर्थङ्कर महावीर के पास संयम धारण कर लिया । मपु० ७६.२१४-३८८ (८) अक्षपुर नगर के राजा अरिंदम का पुत्र । अरिंदम को मुनि कीर्तिधर से ज्ञात हुआ था कि वह मरकर विष्टा-कोट होगा। उसने अपने पुत्र प्रीतिकर को आदेश दिया कि जैसे ही वह कीट हो वह उसे मार दे। पिता के मरने के पश्चात् उसके कीट होते ही इसने उसे मारने का बहुत यत्न किया, किन्तु मल में प्रविष्ठ हो जाने से यह उसे नहीं मार सका। तब यह मुनि कीर्तिधर के पास गया। उसने इसे प्रबोधा कि प्राणी को अपनी योनि से मोह हो जाता है इसलिए उसे मारने की आवश्यकता नहीं है। इसे संसार की गति से विरक्ति हुई और इसने दीक्षा धारण कर ली । पपु० ७७.५७-७० (९) एक केवली। ये सप्तर्षियों और उनके पिता श्रीनन्दन के दीक्षा गुरु थे । पपु० ९२.१-७ (१०) कुरुवंशी एक राजा । हपु० ४५.१३ प्रौतिकरा-गांधार देश में विध्यपुर नगर के निवासी वणिक् सुदत्त की भार्या । इसी नगरी के राजकुमार नलिनकेतु ने कामासक्त होकर इसका अपहरण किया था जिससे उसका पति विरक्त होकर दीक्षित हो गया । इसे भी विरक्ति हुई और इसने आर्यिका सुव्रता से दीक्षा ले ली । मरकर यह ऐशान स्वर्ग में देवी हुई । मपु० ६३.९९-१०० प्रीतिकरी-भरतक्षेत्र में अयोध्या नगर के राजा चक्रवर्ती पुष्पदन्त की रानी । मपु० ७१.२५६-२५७ प्रीति-(१) प्रीतिकूट नगर के राजा प्रीतिकान्त और उसकी रानी प्रीति मती की पुत्री । यह सुमाली की भार्या और रत्नश्रया की जननी थी। पपु० ६.५६६, ७.१३३ (२) रावण की रानी । पपु० ७७.९-१५ (३) समवरण की एक वापिका । इसकी पूजा से प्रीति मिलती है।। हपु०५७.३६ प्रीतिकठ-विद्याधरों का स्वामी। यह राम का व्याघ्ररथी योद्धा था। पपु० ५८.३-७ प्रीतिकान्त-प्रीतिकूट नगर का राजा । इसकी प्रीतिमती नामा रानी और प्रीति नामा पुत्री थी । पपु० ६.५६६ प्रीतिक्रिया-गृहस्थ की गर्भान्वयी पन क्रियाओं में द्वितीय क्रिया । इसके अन्तर्गत गर्भाधान के तीसरे मास में जिनेन्द्र की पूजा की जाती है, तोरण बांधे जाते हैं, दो पूर्ण कलश रखे जाते हैं तथा प्रतिदिन वाद्य-ध्वनि पूर्वक उल्लास प्रकट किया जाता है । मपु० ३८.७७-७९ प्रीतिवेव-पुण्डरीकिणी नगरी के राजा प्रियसेन का कनिष्ठ पुत्र । प्रीति कर इसका अनुज था। मपु० ९.१०८-११० प्रीतिभद्र-छत्रपुर नगर का राजा । इस राजा की सुन्दरी रानी से प्रीति कर नाम का पुत्र हुआ था। मपु० ५९.२५४-२५५ हरिवंशपुराण में इस नृप को चित्रकारपुर नगर का शासक बताया गया है। हपु० २७.९७ दे० प्रीतिकर प्रीतिमती-(१) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी में अरिन्दमपुर नगर के राजा अरिंजय और अजितसेना की पुत्री। इसने अपनी विद्या से चिन्तागति को छोड़ शेष विद्याधरों को मेरु-प्रदक्षिणा में जीत लिया था। यह चिन्तागति को चाहती थी, किन्तु चिन्तागति ने यह कहकर इसे त्याग दिया था कि उसने उसके छोटे भाइयों में किसी एक को प्राप्त करने की इच्छा से गतियुद्ध किया था इसलिए वह उसके योग्य नहीं है । चिन्तागति के इस कथन से यह संसार से विरक्त हुई और विवृता नामा आर्यिका के पास इसने उत्कृष्ट तप धारण कर लिया। मपु० ७०.३०-३७, हरिवंशपुराण में चिन्तागति को भी इससे पराजित कहा गया है । हपु० ३४.१८-३३ (२) सिंहपुर नगर के राजा अर्हद्दास के पुत्र अपराजित की भार्या । मपु० ३४.६ (३) विजयाध की दक्षिणश्रेणी के रथन पुर नगर के स्वामी विद्याघर मेघवाहन की रानी। यह धनवाहन की जननी थी। पापु० १५. प्रीतिवर्द्धन-(१) प्रभाकरी नगरी का राजा। इसने मासोपवासी पिहितास्रव मुनि को आहार दिया था। जिससे उसे पंचाश्चर्य प्राप्त हुए थे। इसने मुनि के कहने से राजा अतिगृध्र के जीव सिंह की समाधि में यथोचित सेवा की जिससे उसे देवगति मिली। मपु० ८. १९२, १९५, २०१-२०९ (२) दशांगपुर के राजा वचकर्ण का उपदेशक एक साधु । पपु० ३३.७५-१२० (३) अच्युत स्वर्ग का एक विमान । मपु० ७.२६ प्रेक्षणगोष्ठी-तीर्थकर की माता की तोष-कारिणी देवियों द्वारा आयो जित नृत्य गोष्ठी । मपु० १२.१८९ प्रेक्षाशाला-समवसरण में गोपुरों के आगे वीथियों को दोनों ओर निर्मित तीन-तीन खण्ड की नाट्यशालाएँ। इनमें बत्तीस-बत्तीस देव-कन्याएँ नृत्य करती हैं । मपु० २२.२६०, हपु० ५७.२७-९३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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