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________________ ८ पुराणको इसकी ऊँचाई सत्तर धनुष और आयु साठ लाख वर्ष थी । ६०.५३५-५३६, ५४० अचलता-मुक्त जीव का गुण- परभाव का अभाव होने से उत्पन्न अचंचलता । मपु० ४०.९६, ४२.९५ १०३ अचलस्तोक - तीर्थंकर वासुपूज्य के काल में उत्पन्न दूसरे बलभद्र | भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा ब्रह्मा और रानी सुभद्रा के ये पुत्र थे । प्रतिनारायण तारक के मरने के पश्चात् इन्हें चार रत्न प्राप्त हुए थे। इनके भाई का नाम द्विपृष्ठ था। तारक प्रतिनारायण को द्विपृष्ठ ने ही चक्र से मारा था । द्विपृष्ठ के मरने पर उसके वियोग से संतप्त होकर इन्होंने वासुपूज्य तीर्थंकर से संयम धारण कर लिया और तप करके मोक्ष पाया । मपु० ५८.८३-११९ दूसरे पूर्वभव में ये महापुर नगर के वायुरथ नामक राजा थे। इसके पश्चात् प्राणत स्वर्ग के अनुत्तर विमान में ये देव हुए थे और वहाँ से च्युत होकर बलभद्र हुए थे । मपु० ५८.१२३ अचलस्थिति — सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. ११४ अचलावती - मेरू पर्वत के गन्धमादन, माल्यवान्, सौमनस्य और विद्युत्प्रभ पर्वतों के आठ कूटों पर क्रीडा करनेवाली आठ दिक्कुमारी देवियों में आठवीं देवी । हपु० ५.२२६-२२७ अचित्त-वस्तु के सचित्त और अचित्त दो भेदों में दूसरा भेद-जीव रहित प्रासु वस्तुएँ मपु० २०.१६५ अचिन्त्य - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१६४ अचिन्त्य - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु० २५.१५० अचिन्त्यवैभव - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४० अचिन्त्यात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० १५.१४० असत्य - साधु का इस नाम का एक मूलगुग- ( वस्त्ररहितता)। म० १८.७१ दे० साधु अणुव्रत - पांच अणुव्रतों में तीसरा अणुव्रत । ग्राम, नगर आदि में दूसरों की गिरी हुई गुम हुई या भूलकर रखी हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करना । इस अणुव्रत के पाँच अतीचार होते हैं - १. स्तेनप्रयोग-कृत, कारित और अनुमोदना से चोर को चोरी में प्रवृत्त करना । २. तदाहृतादान चोरी की वस्तुएँ खरीदना । ३. विरुद्धराज्यातिक्रम- राजकीय आज्ञा विरुद्ध क्रय-विक्रय करना । ४. हीनाधिकमानोन्मान - कम और अधिक नापना, तौलना । ५. प्रतिरूपक-व्यव हार मिलावट कर दूसरों को ठगना ह०५८.१०१-१०३, बीवच० १८.४२ 1 अच्छवन्त - हस्तवप्र नगर का राजा। यह धृतराष्ट्र का वंशज, प्रसिद्ध धनुर्धर और यादवों का छिद्रान्वेषी था । इसने नगर में बलदेव को आया हुआ जानकर उसे मारने के आदेश दिये थे । बलदेव ने अपने Jain Education International अचकता-अच्युत रोके जाने पर हाथी बाँधने के खम्भे से इस राजा की चतुरंगिणी सेना का विनाश किया था। हपु० ६२.४-६, ९-१२ अच्छे – सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१५ अच्छेद्यत्व — कर्मों के नाश से जीव के प्रदेशों का घनाकार परिणमन । इसकी प्राप्ति के लिए "अच्छेद्याय नमः” इस पीठिका मंत्र का जप किया जाता है । मपु० ४०.१५, ४२.१०२ अच्यवनलब्धि - अग्रायणीपूर्व की चौदह वस्तुओं में पाँचवीं वस्तु । पु० १०.७७-८० दे० अग्रायणीयपूर्वं अच्युत - ( १ ) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम है! मपु० १४.३४, २४.३४, २५.१०९ (२) लक्ष्मण का पुत्र । पपु० ९४.२७-२८ (३) श्रीकृष्ण नारायण । हपु० ५०.२ (४) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.२९-४० (५) तीर्थंकर ऋषभदेव के पूर्वभव का जीव अच्युतेन्द्र । हपु० ९.५९ (६) इस नाम के स्वर्ग का तीसरा इन्द्रक विमान । हपु० ६.५१ (७) अनन्तवीर्य का अनुज । मपु० १६.३-४ (८) सोल स्वयं यह सभी स्वर्गों के ऊपर स्थित है। यहाँ सर्वदा रत्नमयी प्रकाश रहता है। यहाँ एक सौ उनसठ दिव्य विमान, एक सौ तेईस प्रकीर्णक और छः इन्द्रक विमान हैं। दस हजार सामानिक देव, तीस हजार त्रायस्त्रिश देव, चालीस हजार आत्मरक्ष देव, एक सौ पच्चीस अन्तःपरिषद् के सदस्य देव, पाँच सौ बाह्य परिषद् के सदस्य देव और दो सौ पचास मध्यम परिषद् के सदस्य देव यहाँ के इन्द्र की आज्ञा मानते हैं । यहाँ सभी ऋद्धियाँ, मनो-बांछित भोग और वचनातील सुख प्राप्त होते हैं। सभी गायें कामधेनु, सभी वृक्ष कल्पवृक्ष और सभी रत्न चिन्तामणि रत्न होते हैं। दिनरात का विभाग नहीं होता। जिनमन्दिरों में जिनेन्द्रदेव को सदैव पूजा होती रहती है । यहाँ का इन्द्र तीन हाथ ऊँचा, दिव्य देहधारी, सर्वमल रहित होता है। इसकी आयु बाईस सागर होती है। यह ग्यारह मास में एक बार उच्छ्वास लेता है। इसके मनःप्रवीचार होता है । यह स्वर्ग मध्यलोक से छः राजू ऊपर पुष्पक विमान से युक्त होकर स्थित है । इसे पाने के लिए रत्नावली तप किया जाता है । मपु० ७.३२, १०.१८५, ७३.३०, पपु० १०५.१६६-१६९, हपु० ६.३८, वीवच० ६.११९-१३२, १६५-१७२ (९) तीर्थंकर वृषभदेव और उनकी रानी यशस्वती का पुत्र । यह चरमशरीरी था । इसका अपरनाम श्रीषेण था । मपु० १६.१ ५, ४७. ३७२-३७३ सातवें पूर्वभव में यह विजयनगर में राजा महानन्द और उनकी रानी बसन्तसेना का हरिवाहन नामक पुत्र था। छठे पूर्वभव में यह अप्रत्याख्यान मान के कारण आर्त्तध्यान से मरकर सूकर हुआ । मपु० ८.२२७ २२९ पाँचवें पूर्वभव में पात्रदान की अनुमोदना के प्रभाव से उत्तर कुरुक्षेत्र में भद्र परिणामी आर्य हुआ। म० ९.९० पौधे पूर्वभव में नन्द नामक विमान में मणिकुण्डली नामक देव हुआ । मपु० ९.१९० तीसरे पूर्वभव में नन्दिषेण राजा और अनन्तमती रानी का वरसेन नामक पुत्र हुआ। दूसरे पूर्वभव में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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