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________________ अग्निवाहन-अचल जैन पुराणकोश : ७ अग्निवाहन-भवनवासी देवों का इन्द्र । वीवच० १४.५६ दे० भवन वासी अग्निवेग-वसुदेव और उसकी रानी श्यामा का पुत्र । ज्वलनवेग इसका - बड़ा भाई था । हपु० ४८.५४ अग्निशिख-(१) वाराणसी नगरी का इक्ष्वाकुवंशी राजा, तथा मल्लि- नाथ तीर्थकर के तीर्थ में हुए सातवें बलभद्र नन्दिमित्र और सातवें नारायण दत्त का पिता । इसकी दो रानियाँ थीं-अपराजिता और केशवती। इनमें अपराजिता नन्दिमित्र की और केशवती दत्त की जननी थी। मपु० ६६.१०२-१०७ (२) राम-लक्ष्मण की सेना का एक सामन्त । पपु० १०२.१४५ (३) कृष्ण का एक पुत्र । हपु० ४८.६९-७२ दे० कृष्ण अग्निशिखी-भवनवासी देवों का तेरहवाँ इन्द्र । वीवच० १४.५५ दे० भवनवासी अग्निसम-तीर्थकर महावीर के पूर्वभव का जीव । मपु० ७६.५३५ अग्निसह-भगवान महावीर के दूरवर्ती पूर्वभव का जीव-भरतक्षेत्र के सूतिक | श्वेतिक नगर के ब्राह्मण अग्निभूति और उसकी स्त्रो गौतमी का पुत्र । यह परिव्राजक हो गया और मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ । वहाँ से चयकर भरतक्षेत्र के रमणीकमन्दिर नगर में गौतम नामक ब्राह्मण और उसकी पत्नी कौशिकी का अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ। मपु०७४.७४-७७, वीवच० २.११७१२२ अग्निस्तभिनी-विद्याधरों को प्राप्त अग्नि का शमन करनेवाली एक विद्या । मपु० ६२.३९१ अग्र कुम्भ-रावण का सहयोगी एक विद्याधर । मपु० ६८.४३० अग्रज-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० अग्रणी-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११५ अग्रनिर्वति-गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त की तिरेपन गर्भान्वय क्रियाओं में अन्तिम क्रिया । यह योगों का निरोध और घाति कर्मों का विनाश करके स्वभाव से होनेवाली भगवान् की ऊर्ध्वगमन क्रिया है। मपु० ३८.६२, ३०८-३०९ अग्रहोऽन्यथा- अचौर्यव्रत की चौथी भावना-योग्यविधि के विरुद्ध आहार ग्रहण नहीं करना । मपु० २०.१६३ दे० अदत्तादान अग्रायणीयपूर्व-चौदह पूर्वो में दूसरा पूर्व । इसमें छियानवें लाख पद है जिनमें सात तत्त्व तथा नौ पदार्थों का वर्णन है। इसमें चौदह वस्तुओं का वर्णन है। इन वस्तुओं के नाम है-पूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव, अध्रुव, अच्यवनलब्धि, अध्रुवसम्प्रणधि, कल्प, अर्थ, भौमावय, सर्वार्थकल्पक, निर्वाण, अतीतानागत, सिद्ध और उपाध्याय । इन वस्तुओं में पाँचवों वस्तु के बीस प्राभृत हैं जिनमें कर्मप्रकृति नामक चौथे प्राभूत के चौबोस योगद्वार बताये हैं। उनके नाम है-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सातासात, दीर्घह्रस्व, भवधारण, पुद्गलात्मा, निधत्तानिधत्तक, सनिकाचित, अनिकाचित, कम स्थिति और स्कन्ध । हपु० २९६-१००, १०.७६-७८ दे० पूर्व अनावरोष-केवलज्ञान । मपु० ६१.५५ अग्राह्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१७३ अग्रिम-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१५० अग्रोद्यान-अयोध्या का निकटवर्ती एक उद्यान । तीर्थकर अभिनन्दननाथ यहीं दीक्षित हुए थे । मपु० ५०.५१-५३ अग्रय-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३७, २५.१५० अधातिया-जोय के उपयोग गुण के अघातक कर्म । ये चार होते है वेदनीय आयु नाम और गोत्र। मपु० ५४.२२७-२२८ हपु० ९.२०७-२१० दे० कर्म अचर-स्थावर जीव । मपु० १६.२१८, हपु० ६६.४० अचल-(१) वृषभदेव के चौरासी गणधरों में बाईसवें गणधर । हप० १२.५५-७० (२) जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित मगध देश का एक ग्राम । वसुदेव ने यहाँ वनमाला को प्राप्त किया था। मपु० ६२.३३५, हपु० २४.२५ पापु० ४.१९४ ___ (३) अन्धकवृष्णि और सुभद्रा का छठा पुत्र । यह समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तिमितसागर, हिमवान् और विजय का छोटा भाई तथा धारण, पूरण, अभिचन्द्र और वसुदेव का बड़ा भाई था। मपु० ७०.९४-९६, हपु० १८.१२-१४ (४) भगवान् महावीर के नवम गणधर । हपु० ३.४३ (५) अवसर्पिणी काल के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न दूसरा बलभद्र । हपु० ६०.२९०, वीवच० १८.१०१, १११ दे० अचलस्तोक (६) वसुदेव के भाई अचल का पुत्र । हपु० ४८.४९ (७) वाराणसी नगरी का एक राजा, गिरिदेवी का पति । पपु० ४१.१०७ (८) राम की वानरसेना का एक योद्धा । पपु० ७४.६५-६६ (९) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेहक्षेत्र का एक चक्रवर्ती । इसकी रानी का नाम रला और पुत्र का नाम अभिराम था। पपु० ८५. १०२-१०३ (१०) अन्तिम संख्यावाची नाम । मपु० ३.२२२-२२७ (११) सिद्ध का एक गुण । इसकी प्राप्ति के लिए "अचलाय नमः" इस पीठिका-मन्त्र का जप किया जाता है । मपु० ४०.१३ (१२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१२८ (१३) मथुरा के राजा चन्द्रप्रभ और उसकी दूसरी रानी कनकप्रभा का पुत्र । इसने शस्त्र विद्या में विशिखाचार्य को पराजित कर कौशाम्बी के राजा कोशीवत्स की पुत्री इन्द्र दत्ता के साथ विवाह किया था । अन्त में इसे मथुरा का राज्य प्राप्त हो गया था। इसने कुछ समय राज्य करने के पश्चात् यशःसमुद्र आचार्य से निर्ग्रन्थ दीक्षा धारण कर लो थी तथा समाधिमरण करके स्वर्ग प्राप्त किया था । पपु० ९१.१९-४२ (१४) छठा रुद्र । यह वासुपूज्य तीर्थकर के तीर्थ में हुआ था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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