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________________ २३६ : जैन पुराणकोश प्रद्युम्न-प्रभंजन वह इसे उठा ले गया। इसके बाद उसने इसे खदिर अटवी में तक्षक शिला के नीचे दबा दिया और वहाँ से चला गया । कुछ समय बाद मेघकूट नगर का राजा कालसंवर भी उधर से अपनी रानी कनकमाला के साथ आ रहा था । तक्षकशिला के पास उसका विमान रुक गया। वह नीचे आया और उसने इसे शिला से निकालकर अपनी कांचनमाला को दे दिया। कालसंवर इसे लेकर अपने नगर आया और उसने विधिपूर्वक इसका देवदत्त नाम रखा तथा उसे युवराज बना दिया । इसने युवा होने पर अपने पिता की सलाह लेकर शत्र अग्निराज पर आक्रमण किया और उसे जीतकर ले आया तथा उसे कालसंवर को सौंप दिया। इससे कालसंवर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने इसके पराक्रम की प्रशंसा की तथा श्रेष्ठ वस्तुएँ देकर इनका सन्मान किया । इसके यौवन और पराक्रम से कांचनमाला प्रभावित हुई । वह इस पर काममुग्ध हो गयी किन्तु यह उससे किसी भी प्रकार से आकृष्ट नहीं हुआ। निराश होकर कांचनमाला ने अपनी निर्जज्जता के निवारण के लिए अपने पति को इसे कुचेष्टावान् और अकुलीन बताया। रानी पर विश्वास कर राजा कालसंवर ने अपने पाँच सौ पुत्रों को इसे एकान्त में ले जाकर मार डालने की आज्ञा दी । राजकूमार इसे वन में ले गये । वहाँ राजकुमारों ने इसे एक अग्निकुण्ड दिखाकर कहा कि जो इस अग्निकुण्ड में प्रवेश करेगा वह निर्भय माना जायगा। इस बात को सुनकर यह अग्निकुण्ड में कूद गया। कुण्ड की देवी ने इसे जलने से बचाकर इसकी पूजा की और उसने इसे बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण भेंट में दिये । राजकुमार इसे मेघाकार दो पर्वतों के बीच ले गये किन्तु वहाँ भी एक देवी ने इसकी सहायता की और उसने इसे दो दिव्य कुण्डल दिये । राजकुमारों की प्रेरणा से यह वाराह गुहा में गया । इस गुहा की देवी ने भी इसके पराक्रम से प्रसन्न होकर इसे विजयघोष शंख और महाजाल ये दो वस्तुएं दीं। इसी तरह इसने कालगुहा में प्रवेश किया और वहाँ के राक्षस महाकाल को जीता। इसे उससे वृषभरथ तथा रत्नमय कवच प्राप्त हुए । इसने एक कीलित विद्याधर को बन्धन मुक्त कर उससे सुरेन्द्रजाल और नरेन्द्र जाल तथा प्रस्तर ये तीन वस्तुएँ प्राप्त की। इसके पश्चात् वह सहस्रवक्त्र नागकुमार के भवन में गया । यहाँ भी इसका सम्मान हुआ । नागकुमार ने इसे मकर चिह्नित ध्वजा, चित्रवर्ण धनुष, नन्दक खड्ग, और कामरूपिणी अंगूठी दी। इसके बाद सुवर्णार्जुन वृक्ष के नीचे पाँच फणवाले नागराज से तपन, तापन, मोदन, विलापन और मारण ये पाँच बाण प्राप्त किये। यहाँ से यह क्षीरवन गया । यहाँ मर्कटदेव ने इसे मुकुट, औषधिमाला, छत्र और दो चमर दिये । इसके पश्चात् यह कदम्बमुखी बावड़ी गया । यहाँ इसे नागपाश प्राप्त हुआ। राजकुमारों के पातालमुखी बावड़ी में कूदने के लिए कहने पर यह उनका मन्तव्य समझ गया। अतः बावड़ी में यह स्वयं न जाकर इसने प्रज्ञप्ति विद्या को अपना एक रूप और बनाकर उसे वापी में भेज दिया । जब राजकुमारों ने वापी को शिला से ढंकने का प्रयत्न किया तो इसने ज्योतिप्रभ को छोड़कर शेष सभी राजकुमारों को नागपाश से बांधकर इसी बावड़ी में औंधे मुंह लटका दिया और वापी को शिला से ढक दिया। राजकुमार ज्योतिप्रभ को भेजकर इस घटना की सूचना कालसंवर को भेज दी। क्रुद्ध होकर कालसंवर वहाँ ससैन्य आया । इसने अपनी विद्याओं तथा दिव्यास्त्रों से सेना सहित कालसंबर को हरा दिया। इसके पश्चात् इसने वन की समस्त घटनाओं से कालसंवर को अवगत कराया तथा सभी राजकुमारों को बन्धन रहित किया। इसके पश्चात् कालसंवर की अनुमति से यह नारद के पास गया और उसके साथ नारद से अपने पूर्वभवों की घटनाएं सुनता हुआ हस्तिनापुर आया । यहाँ से द्वारिका गया । अपने रूप बदलकर विद्या बल से कई आश्चर्यकारी कार्य करके इसने कृष्ण, रुक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बवती आदि का मनोरंजन किया । इसके पश्चात् अपने असली रूप में आकर इसने सबको प्रसन्न कर दिया। सत्यभामा के पुत्र और इसके भाई भानुकुमार के लिए आयी हुई कन्याओं के साथ इसके विवाह हुए। द्वारिका में बहुत समय तक रहते हुए इसने राज-परिवार तथा समाज का मन जीत लिया। एक दिन बलराम के साथ यह तीर्थकर नेमिनाथ के पास गया । उन्होंने उनसे कृष्ण के राज्य की अवधि जानने का प्रश्न किया । नेमिनाथ ने उन्हें बारह वर्ष में द्वारिका दहन, कृष्ण का मरण आदि सभी बातें बतायीं । यह सुनकर इसने और इसके साथ रुक्मिणी आदि देवियों ने कृष्ण से पूछकर संयम धारण किया। इसने गिरिनार पर्वत पर प्रतिमायोग में स्थिर होकर कर्म-निर्जरा करते हुए, नौ केवल-लब्धियाँ प्राप्त की और संसार से मुक्त हुआ । जाम्बवती का पुत्र शम्भव और इसका पुत्र अनिरुद्ध भी इसका अनुगामी हुआ । मपु० ७२.३५-१९१, हपु० ४३.३५-९७, ६६.१६-९७ सातवें पूर्वभव में यह शृगाल, छठे पूर्वभव में अग्निभूत, पाँचवें पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग का देव, चौथे पर्वभव में अयोध्या के रुद्रदत्त का पुत्र पूर्णभद्र, तीसरे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग का देव, दूसरे पूर्वभव में मधु और प्रथम पूर्वभव में आरणेन्द्र था। पपु० १०९.२६-२९, हपु० ४३.१००, ११५, १४६, १४८-१४९, १५८ १५९, २१५ प्रपा-पथिकों को जल पिलाने का स्थान । प्राचीन काल में जन-सेवा का यह एक प्रमुख साधन था । मपु० ४.७१ प्रपौण्डनगर-अनंगलवण और मदनांकुश युगल भाइयों की क्रीडास्थली । ___पपु० १००.८३ प्रबुवात्मा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१० प्रबोध-समवसरण के अनेक स्तूपों में एक स्तूप । इसे देखकर लोगों को तत्त्वज्ञान हो जाता है। हपु० ५७.१०६ प्रभंकर-सौधर्म और ऐशान दोनों स्वों के ३१ पटलों में २७वा पटल । हपु० ६.४७, दे० सौधर्म प्रभंकरा-विदेह के वत्सकावती देश की राजधानी । मपु० ६३.२०८ २१४, हपु० ५.२५९ प्रभंकरी-अयोध्या के राजा वज्रबाहु की रानो, आनन्द नामक पुत्र की जननी । मपु० ४६.४२-४३ प्रभंजन-(१) मानुषोत्तर पर्वत को पश्चिमोत्तर दिशा में नीलाचल से स्पष्ट भाग में स्थित इस नाम का एक कूट । हपु० ५.६१० Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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