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________________ १९० : जैन पुराणकोश नन्दाठ्य-नन्दिवर्धन नवाठ्य-सेठ गन्धोत्कट और उसकी स्त्री नन्दा का पुत्र । गायों के अपहर्ता कालकूट से गायों के विमोचक को गोपेन्द्र और गोपश्री की पुत्री गोदावरी दिये जाने के लिए की गयी राजा काष्ठांगारिक की घोषणा के अनुसार जीवन्धर कुमार ने कालकूट को जीतकर नन्दाढ्य के द्वारा गायें मुक्त कराये जाने का सन्देश भेजा था। फलस्वरूप घोषणा के अनुसार इसे उक्त कन्या प्राप्त हुई थी। वनराज द्वारा हरी हई श्रीचन्द्रा कन्या भी इसे ही विवाही गयी थी। मपु० ७५.२६१, २८७-३००, ५२०-५२१ नन्वि-(१) नन्दीश्वर द्वीप का एक देव । हपु० ५.६४४ (२) भरतक्षेत्र का एक देश । इसे लवण और अंकूश ने जीता था। पपु० १०१.७७ (३) आगामी प्रथम नारायण । मपु० ७६.४८७-४८९ नन्विघोष-(१) भरतक्षेत्र के नन्दिवर्धन नगर का समीपवर्ती एक वन । अग्निभूति और वायुभूति ब्राह्मणों का आत्म-विषय पर सत्यक मुनि से यहीं वाद हुआ था। मपु० ७२.३-१४ ।। (२) पुष्कलावती नगरी का राजा, नन्दिवर्धन का पिता । इसने पुत्र को राज्य सौंपकर यशोधर मुनिराज से दीक्षा ली और विधिपूर्वक शरीर त्यागकर यह स्वर्ग में देव हुआ । पपु० ३१.३०-३२ नन्दिन–आगामी तीसरा नारायण । मपु० ७६.४८७ नन्दिनी-(१) विजया उत्तरश्रेणी की छियालीसवीं नगरी। हपु० २२.९० (२) राजपुर नगर के सेठ धनदत्त की भार्या, चन्द्राभ की जननी । मपु०७५.५२८-५२९ (३) संगीत की एक जाति । पपु० २४.१४ नन्विप्रभ-नन्दीश्वर द्वीप का एक रक्षक देव । हपु० ५.६४४ मन्विभव-एक चारण ऋद्धिधारी मुनि । राजा वासव की रानी सुमित्रा के जीव भीलनी ने इनसे अपने पूर्वभव सुने थे। इनका अपर नाम नन्दिवर्धन था। मपु० ७१.३९९-४०३, हपु० ६०.७७-७९ नन्विभूतिक-आगामी चतुर्थ नारायण । हपु० ६०.५६६ नम्विमित्र-(१) आगामी दूसरा नारायण । मपु० ७६.४८७, हपु० ६०. (४) महावीर के निर्वाण के पश्चात् बासठ वर्ष के बाद सौ वर्ष के काल में हुए विशुद्धि के धारक अनेक नयों से विचित्र अर्थों के निरूपक, पूर्ण श्रु तज्ञान को प्राप्त, पाँच श्रुतकेवली मुनियों में चौदह पूर्व के ज्ञाता दूसरे मुनि । इनके पूर्व नन्दि तथा बाद में क्रमश: अपराजित गोवर्धन और भद्रबाहु हुए । मपु० २.१३९-१४२, ७६.५१८५२१, हपु० १.६१, वीवच० १.४१-४४ (५) पाटलिग्रामवासी वैश्य नागदत्त और सुमति का द्वितीय पुत्र । यह नन्द का अनुज तथा नन्दिषेण, वरसेन और जयसेन का अग्रज था। इसकी तीन बहिनें थीं-मदनकान्ता, श्रीकान्ता और निर्नामा । मपु० ६.१२८-१३० (६) अयोध्या का एक गोपाल । ऐरावत क्षेत्र के भद्र और धन्य दोनों भाई मरकर इसके यहाँ भैंसे हुए थे । मपु० ६३.१५७-१६० (७) तीसरे बलभद्र के पूर्वभव का जीव । इसकी जन्मभूमि आनन्दपुरी और गुरु सुव्रत थे । अनुत्तर विमान से चयकर यह बलभद्र हुआ। इस पर्याय में इसकी माता सुवेषा थी। गुरु सुभद्र से दीक्षित होकर इसने निर्वाण प्राप्त किया था । मपु० २०.२३०-२४८ मन्दिवर्द्धन-(१) श्रुत के पारगामी एक आचार्य । ये अवधिज्ञानी थे । इन्होंने अग्निभूति और वायुभूति को पूर्व जन्म में वे दोनों शृगाल थे ऐसा कहा था। इससे वे दोनों कुपित हुए और उन्होंने निर्जन वन में प्रतिमायोग में इन्हें ध्यानस्थ देखकर वैरवश तलवार से मारना चाहा था किन्तु एक यक्ष ने मारने के पूर्व ही उन्हें कोल कर उनके द्वारा किये उपसर्ग से इनकी रक्षा की थी। अग्निभूति और वायुभूति दोनों उनके माता-पिता के निवेदन करने पर इनका संकेत पाकर ही यक्ष द्वारा मुक्त हुए थे। महापुराण में यह उपसर्ग मुनि सत्यक के ऊपर किया गया कहा है। मपु० ७२.३-२२, पपु० १०९.३७-१२३, हपु० ४३.१०४ (२) एक चारणऋद्धिधारी मुनि । मपु० ७१. ४०३ दे० नन्दिभद्र (३) छत्रपुर नगर का राजा । मपु० ७४.२४२-२४३, वीवच० ५.१३४-१४६ (४) विदेहक्षेत्र के पुष्कलावती देश में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा मेघरथ और उसकी रानी प्रियमित्रा का पुत्र । मपु० ६३.१४२-१४३, १४७-१४८, पापु० ५.५७ (५) जम्बूद्वीप के मगधदेश का एक नगर । शालिग्राम के अग्निभूति और वायुभूति ने इस नगर के नन्दिघोष वन में सत्यक मुनि से वाद किया था । मपु० ७२.३-१४ (६) शशांकनगर का राजा । मृदुमति चोर ने इस नृप और इसकी रानी के बीच विषयों के सम्बन्ध मे हुए वार्तालाप को सुनकर दीक्षा धारण कर ली थी। पपु० ८५.१३३-१३७ (७) पुष्कलावती नगरी के राजा नन्दिघोष और रानी वसुधा का पुत्र । यह गृहस्थधर्म धारण कर नमस्कार मंत्र की आराधना करते हुए एक करोड़ पूर्व तक महाभोगों को भोगता हुआ संन्यास के साथ शरीर छोड़कर पंचम स्वर्ग गया था। वहां से च्युत होकर इसी (२) सातवाँ बलभद्र । यह अवसर्पिणी काल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में जन्मा था। वाराणसी नगरी के राजा अग्निशिख और उसकी रानी अपराजिता इसके माता-पिता थे। दत्त नारायण इसका छोटा भाई था। इसकी आयु बत्तीस हजार वर्ष, शारीरिक अवगाहना बाईस धनुष और वर्ण चन्द्रमा के समान था। बलीन्द्र द्वारा भद्रक्षीर नामक हाथी के माँगने पर यह उसका विरोधी हो गया था । इसने बलीन्द्र के पुत्र शतबली को मारा था। यह अपने भाई के वियोग से वैराग्य को प्राप्त होकर सम्भूत मुनि से दीक्षित हुआ तथा केवली होकर मोक्ष गया। मपु० ६६.१०२-११२, ११८-१२३, हपु० ६०. २९०, वीवच० १८.१११ (३) वृषभदेव के बयासीवें गणधर । मपु० ४३.६६, हपु० १२.६९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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