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________________ १८२ : जैन पुराणकोश धर्मचक्र-धर्मरुधि धर्मचक्र-तीर्थकर जिनेन्द्र के समवसरण में विद्यमान देवोपनीत चक्र। यह देवकृत चौदह अतिशयों में एक अतिशय होता है । सूर्य के समान कान्तिधारी और अपनी दीप्ति से हजार आरों से युक्त चक्रवर्ती के चक्ररत्न को भी तिरस्कृत करनेवाला यह चक्र जिनेन्द्र चाहे विहार करते हों, चाहे खड़े हों प्रत्येक दशा में उनके आगे रहता है। समवसरण में ऐसे चक्र चारों दिशाओं में रहते हैं। इनमें हजार आरे होते हैं तथा ये देवों से रक्षित रहते हैं। मपु० १.१, २२.२९२- २९३, २४. १९, २५.२५६, हपु० २.१४५, ३.२९-३०, वीवच० १९.७६ धर्मचक्रवत-एक व्रत। इसमें धर्मचक्र के एक हजार आरों की अपेक्षा से एक उपवास और एक पारणा के क्रम से एक हजार उपवास किये जाते हैं। आदि और अन्त में एक-एक बेला पृथक रूप से किया जाता है । मपु० ६२.४९७, हपु० ३४.१२४ कायध-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८३ धर्मचक्री-(१) जिनेन्द्र देव । इनके आगे धर्मचक्र चलता है। हप० ५४.५८ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१०६ धर्मतीर्थ-धर्म की आम्नाय । जिनेन्द्र के द्वारा धर्म के प्रतिपादन से लोक के अज्ञान का निरास हुआ। वही तीर्थ जनता की मुक्ति का साधन बना । हपु० ३.१ धर्मतीर्थकृत-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११५ धर्मदेशक-सौधर्मेन्द्र देव द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१६ धर्मध्यान-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त वस्तु के स्वरूप/स्वभाव का चिन्तन । मूलतः इसके चार भेद है-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थानविचय । हरिवंशपुराणकार के अनुसार इसके दस भेद है-अपायविचय, उपायविचय, जोवविचय, अजीवविनय विपाकविचय, विरागविचय, भवविचय, संस्थानविचय, आज्ञाविचय और हेतुविचय । धर्मध्याता सम्यग्दृष्टि होता है। वह ज्ञान, वैराग्य, धैर्य और क्षमा से युक्त होता है। अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करता रहता है। उसके पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएं होती हैं। यह ध्यान अप्रमत्त-अवस्था का अवलम्बन कर अन्तर्महतं मात्र स्थित रहता है। उक्त लेश्याओं के द्वारा वृद्धि को प्राप्त यह ध्यान चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान में भी होता है । अशुभ कर्मों की निर्जरा, स्वर्ग और परम्परा से अपवर्ग की प्राप्ति इसके फल हैं । इस ध्यान का ध्येय अर्हन्तदेव होता है। इसके लिए जहाँ न अधिक गर्मी हो और न शीत हो ऐसे गुफा, नदी-तट, पर्वत, उद्यान और बन ऐसे स्थान अपेक्षित है। मपु० २०.२०८-२१०, २२६-२२८, २१.१३१ १३४, १५५-१६३, ३६.१६१ हपु० ५६.३६-५२, वीवच० ६.५१-५२ धर्मध्वज-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.४० धर्मनायक-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३९ धर्मनेमि-सौधमेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८३ धर्मपति-भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का नाम । मपु० २४.४०,२५.११५ धर्मपाल-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २१७ धर्मपुत्र-राजा पाण्डु और रानी कुन्ती का ज्येष्ठ पुत्र, भीम और पार्थ का अग्रज । अपरनाम युधिष्ठिर । मपु०७०.११४-११६, ७२.२१५ धर्मप्रभावना-सम्यग्दर्शन का आठवाँ अंग । संसार में फैले हुए मिथ्यात्व के अन्धकार को नष्ट करनेवाले जैनशासन का प्रसार करना। मपु० २४.११, वीवच० ६.७० धर्मप्रिय-जम्बस्वामी के पितामह और अहंदास के पिता। मपु० ७६.१२४ धर्मफल-राज्य, सम्पदाएँ, भोग, योग्य कुल में जन्म, सुरूपता, पाण्डित्य, आयु और आरोग्य आदि की उपलब्धि । मपु० ५.१६ । धर्मभावना-बारहवीं अनुप्रेक्षा। इसमें यह चिन्तन किया जाता है कि धर्म से ही जीव का कल्याण संभव है, उत्तम क्षमा आदि धर्म के बीज है, इन्हीं से दुःखों का नाश एवं मोक्ष प्राप्त होता है, तीन लोक की सम्पदाएँ भी सरलता से इन्हीं से प्राप्त हो जाती है । मपु० ११.१०९, पापु० २५.११७-१२३, वीवच० ११.१२२-१३० धर्ममंत्र-गर्भाधान आदि क्रियाओं में व्यवहृत पीठिका और जाति मन्त्र । मपु० ३९.२६ धर्ममति-(१) कौशाम्बी नगरी के सेठ सुभद्र और सेठानी सुमित्रा की पुत्री। इसने जिनमति आर्यिका के पास जिनगुण नाम का तप ग्रहण किया । तप करते हुए यह मरकर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्राणी हुई थी। हपु०६०.१०१-१०२ (२) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.११५ धर्ममित्र-हस्तिनापुर का राजा। तीर्थंकर कुन्थुनाथ को आहार देकर इसने पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। मपु० ६४.४१ धर्ममित्रार्य-भरत के साथ दीक्षित तथा निर्वाण प्राप्त एक नप। पपु० ८८.१-२, ६ धर्मयूप--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८३ धर्मरत्न-एक मुनि । ये हनुमान् के दीक्षागुरु थे। पपु० ११३.२३-२८ धर्मरथ-एक मुनि । रावण ने इन्हीं से प्रेरणा पाकर यह नियम लिया था कि जो स्त्री उसे नहीं चाहेगी वह उसे ग्रहण नहीं करेगा। पपु० १४.३५५-३५७, ३७०-३७१ धर्मराज-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०७ धर्मरुचि-(१) चन्द्रचर्या व्रत का धारक एक यति । भरतक्षेत्र में चम्पा नगरी के अग्निभूति ब्राह्मण की पुत्री नागश्री ने कोपवश इन्हें विषमिश्रित आहार दिया था। ये समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धि में देव हुए । मपु० ७२.२२७-२३४, हपु० ६४.६-११, पापु० २३.९७-१०७ (२) जम्बूद्वीप के मंगला देश में भद्रिलपुर नगर के धनदत्त सेठ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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