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________________ जर्म-धर्मघोषण का षड्यंत्र जानकर यह पाण्डवों के कुल की रक्षा करने के ध्येय से एकाएक पाण्डवों के पास आया था। इसने द्रौपदी को छिपा लिया और उसे मारने के लिए एक-एक करके आये हुए पाण्डवों को विषमिश्रित सरोवर का जल पिलाकर मूच्छित कर दिया। कनकध्वज द्वारा भेजी हुई कृत्याविद्या के आने पर इसने भील का रूप धारण कर लिया । पाण्डवों के शरीर को मृत बताकर इसने कृत्या को धोखे में डाल दिया । कृत्याविद्या के द्वारा कार्य पूछे जाने पर इसने पाण्डवों को मारने की आज्ञा देनेवाले कनकध्वज को ही मारने के लिए कहा। तदनुसार कृत्याविद्या ने कनकध्वज के पास लौटकर उसे मार डाला। विद्या अपने स्थान पर चली गयी । धर्म ने अमृत बिन्दुओं से पाण्डवों को सींचकर सोये हुए के समान उठा दिया। अर्जुन को द्रौपदी दे दी। सारा वृत्तान्त सुनाया और युधिष्ठिर आदि की वन्दना करके अपने स्थान को लौट आया । पापु० १७.१५०-२२५ (५) राम का पक्षधर एक योद्धा । पपु० ५८.१४ (६) अवसर्पिणी के दुःषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न एक शलाकापुरुष एवं पन्द्रहवें तीर्थंकर । ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विद्यमान रत्नपुर नगर में कुरुवंशी-काश्यपगोत्री राजा भानु के घर जन्मे थे । रानी सुप्रभा इनकी माता थी । वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रातःकाल के समय इनकी माता ने सोलह स्वप्न देखे थ । उसी समय अनुत्तर विमान से च्युत होकर ये सुप्रभा रानी के गर्भ में आये । माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग में अनन्तनाथ भगवान् के बाद चार सागर प्रमाण समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ। जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने इनका यह नाम रखा था । इनकी आयु दस लाख वर्ष, शारीरिक कान्ति स्वर्ण के समान और अवगाहना एक सौ अस्सो हाथ थी । कुमारावस्था के अढ़ाई लाख वर्ष बीत जाने पर इन्हें राज्य मिला था। पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्यकाल बीत जाने पर उल्कापात देख इन्हें वैराग्य हो गया । अपने ज्येष्ठ पुत्र सुधर्म को इन्होंने राज्य दे दिया। नागदत्ता नाम की पालकी में बैठ ये शीलवन आये और वहाँ माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए। इन्हें मनःपर्ययज्ञान प्राप्त हो गया। ये आहारार्थ पाटलिपुत्र आये, वहाँ धन्यषेण नृप ने इन्हें आहार देकर पाँच आश्चर्य प्राप्त किये । एक वर्ष पर्यन्त छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल पुष्य नक्षत्र में इन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। देवों ने महोत्सव किया। इनके संघ में अरिष्टसेन आदि तेंतालीस गणधर, नौ सौ ग्यारह पूर्वधारो, चालीस हजार सात सौ उपाध्याय, तीन हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, चार हजार पाँच सौ केवलज्ञानी, सात हजार विक्रिया ऋद्धिधारी, चार हजार पाँच सौ मनः-पर्ययज्ञानी, दो हजार आठ सौ वादी कुल चौसठ हजार मुनि तथा सुव्रता आदि बासठ हजार चार सी आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, दो लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव- देवियाँ तथा संख्यात तिर्यश्च थे । विहार करते हए अन्त में ये सम्मेद जैन पुराणकोश : १८१ गिरि आये । यहाँ एक मास का योग-निरोध करके आठ सौ मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हो गये और ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी की रात्रि के अन्तभाग में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवति नामक शुक्लध्यान को पूर्णकर पुष्य नक्षत्र में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। देवों ने आकर परम उत्साह से निर्वाण-कल्याणक उत्सव मनाया। दूसरे पूर्वभव में ये सुसीमा नगरी के राजा दशरथ थे और प्रथम पूर्वभव में अहमिन्द्र रहे। मपु० २.१३१, ६१.२-५४, पपु० ५. २१५, २०.१२०, हपु० १.१७, ६०.१५३-१९६, ३४१-३४९, वीवच० १८.१०१, १०७ (७) जीव और पुद्गल के गमन में सहायक एक द्रव्य । मपु० २४.१३३-१३४, हपु० ४.३, ७.२, ५८.५४ । (८) एक अनुप्रेक्षा (भावना)-आत्मज्ञान को ही परम धर्म समझकर उसका चिन्तन करना । पपु० १४.२३९, पापु० २५.११७-१२३ (९) चतुर्विध पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ । यह अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष का साधन है । हपु० ३.१९३, ९.१३७ (१०) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त वस्तु का यथार्थं स्वरूप । मपु० २१.१३३ (११) प्राणियों को कुगति से सुगति में ले जानेवाला । यह धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप के भेद से चार प्रकार का होता है । उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य के भेद से इसके दस लक्षण है। मपु० ११.१०३-१०४, ४७.३०२-३०३, पपु० १०६. ९०, हपु० २.१३०, पापु० २३.७१, वीवच० ११.१२२ इसके दो भेद भी है-सागार और अनगार। इनमें पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना अनगार धर्म है। सम्यग्दर्शन पूर्वक, तप, दान, पूजा और पंचाणुव्रतों का पालन सागार धर्म है। मपु० ४१.१०४, पपु० ४.४८, हपु० १०.७-९ ,पापु० ९. ८१-८२ पाण्डवपुराणकार ने ऊपर कहे सागार धर्म में पूजा के स्थान पर शुभ-भावना को स्थान दिया है। पापु० १.१२३ आचार्य रविषेण ने पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को सागार धर्म कहा है। पपु० ४.६ सामान्यतः जीव-दया, सत्य, क्षमा, शौच, त्याग, सम्यग्ज्ञान और वैराग्य ये सब धर्म है । मपु० १०.१५ धर्मकथा-धर्म से सम्बन्ध रखनेवाली कथा । यह चार प्रकार की होती है-आक्षेपिणी, निक्षेपिणी, संवेदिनी और निर्वेदिनी, । इसके सात अंग होते है--द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत । सातवें प्रकृत अंग के द्वारा शेष छ: अंगों का इसमें प्रतिपादन हो जाता है । प्रकृत अंग में निर्ग्रन्थ सन्तों और त्रेसठशलाका महापुरुषों के चरितों, भवान्तरों आदि का और लौकिक तथा आध्यात्मिक वैभव का वर्णन समाहित होता है। मपु० १.१०७, १२२, १३५ १३६, ६२.११-१४, वीवच० १.७७-८१ धर्मघोषण-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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