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________________ १७८: जैन पुराणकोश बनवत्ता-धनमित्र एक मुनि के धर्मोपदेश से प्रभावित होकर इसने अणुव्रत धारण किये और आयु के अन्त में मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । पपु० १०६. १०-२२, ३०-३६ धनबत्ता-राजा वनजंघ के राजसेठ धनदत्त की पत्नी । यह धनमित्र की माता थी। मपु० ८.२१८ धनदेव-(१) भरतक्षेत्र के अंग देश में चम्पा-नगरी का एक वैश्य । इसकी अशोकदत्ता नाम की स्त्री थी तथा इससे इसके जिनदेव और जिनदत्त नामक दो पुत्र हुए थे। मपु० ७२.२२७, २४४-२४५, पापु० २४.२६ (२) वृषभदेव के छठे गणधर । हपु० १२.५६ (३) एक वैश्य, कुमारदेव का पिता । हपु० ४६.५०-५१ (४) भरतक्षेत्र के इभ्यपुर का सेठ । हपु० ६०.९५ (५) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश को पुण्डरीकिणी-नगरी के निवासी कुबेरदत्त-वणिक् तथा उसकी स्त्री अनन्तमती का पुत्र । यह राजा वजनाभि का गृहपति रत्न था । इसने बच्चसेन मुनि के पास जिनदीक्षा ली थी। मपु० ११.८-९, १४, ५७, ६२ (६) अवन्ति-देश की उज्जयिनी-नगरी का निवासी एक सेठ, नागदत्त का पिता । मपु० ७५.९५-९६ (७) वाराणसी नगरी का एक वैश्य । परधन-हरने में संलग्न अपने शान्तव और रमण नामक पुत्रों को रोकने में समर्थ न हो सकने से इसने मुनिदीक्षा ले ली थी। मपु० ७६.३१९-३२१ धनदेवी-(१) मृगावती देश में दशार्णनगर के राजा देवसेन की रानी, कृष्ण की माता देवकी की जननी। मपु० ७१.२९१-२९२, पापु० ११.५५ (२) चम्पापुर के निवासी सुबन्धु की पत्नी, सुकुमारी की जननी। मपु० ७२.२४१-२४४ शनधान्यप्रमाणातिक्रम-परिग्रह-परिमाणव्रत का एक अतीचार-धन गाय, भैस आदि के संग्रह के लिए ली हुई सीमा का उल्लंघन करना । हपु० ५८.१७६ धनपति-(१) धातकीखण्ड के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता-नदी के उत्तर तट पर स्थित सुकच्छ देश के क्षेमपुर-नगर के राजा नन्दिषेण के पुत्र । पिता इन्हें ही राज्य सौंपकर दीक्षित हुए थे। मपु० ५३.२, १२-१३ इन्होंने भी मुनि अर्हन्नन्दन से धर्मोपदेश सुनकर अपने पुत्र को राज्य दे दिया था और दीक्षा धारण कर ली थी। इन्होंने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया, सोलहकारण-भावनाओं का चिन्तन किया और तीर्थकर-प्रकृति का बन्ध किया । अन्त में प्रायोपगमन-संन्यास के द्वारा मरण कर ये जयन्त-विमान में अहमिन्द्र हुए और यहाँ से च्युत होकर ये अठारहवें तीर्थकर अरनाथ हुए । मपु० ६५.२-३, ६-९, १६-२५ (२) चन्द्राभनगर का स्वामी और तिलोत्तमा का पति । इसके लोकपाल आदि बत्तीस पुत्र थे और पद्मोत्तमा पुत्री थी। पद्मोत्तमा को सर्प ने डस लिया था। इसने घोषणा की थी जो उसे सर्पदंश से मुक्त करेगा उसे यह आधा राज्य और इस पुत्री को दे देगा। जीवन्धर ने यह कार्य किया और उसे इसने आधा राज्य दे दिया तथा इस पुत्री के साथ उसका विवाह भी कर दिया। मपु० ७५. ३९०-४०० धनपाल-(१) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३२ (२) सद्भद्रिलपुर-नगर के वैश्य धनदत्त और उसकी पत्नी नन्दयशा का प्रथम पुत्र। ये नौ भाई थे। इसकी दो बहिनें थीं। यह अपने पिता और भाइयों के साथ मन्दिरस्थविर नामक मुनिराज से दीक्षित हो गया था। इसकी माता नन्दयशा और बहिनों ने भी सुदर्शना आर्यिका के पास संयम धारण कर लिया था। अपने पिता के केवलज्ञानी होने के पश्चात् इन सभी भाई-बहिनों और इनकी माता ने राजगृह-स्थित सिद्धशिला पर संन्यास-धारण किया। उस समय इनको माता ने निदान किया कि उसके वे सभी पुत्र-पुत्रियां अगले भव में भी उसकी पुत्र और पुत्रियाँ बनें । अन्त में अपनी माता तथा भाईबहिनों के साथ यह आनत स्वर्ग के शातंकर-विमान में देव हुआ । यहाँ से च्युत होकर यह राजा अन्धकवृष्णि और रानी सुभद्रा का समुद्रविजय नामक पुत्र हुआ। इसके आठों भाई भी वसुदेव आदि आठ भाई हुए और दोनों बहिर्ने कुन्ती और माद्री हुई। मपु० ७०. १८२-१९६, हपु० १८.११२-१२१ (३) राजा सत्यंधर के नगर का एक श्रावक, वरदत्त का पिता । मपु० ७५.२५६-२५९ (४) जम्बद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित मंगलावती देश के रत्नसंचयनगर के राजा महाबल का पुत्र । मपु० ५०.२-३, १० दे० महाबल। धनपालक-वृषभदेव के साठवें गणधर । मपु० ४३.६३ धनभन-वैशाली नगरी के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा का दूसरा पुत्र । मपु० ७५.३-५ घनमित्र-(१) सेठ धनदत्त तथा सेठानी नन्दयशा का पुत्र । हपु० १८. ११४, १२० दे० धनपाल । (२) उत्पलखेटपुर के राजा वज्रजंध का राजसेठ । इसने दृढ़धर्म आचार्य के पास जिनदीक्षा ले ली थी। रत्नत्रय की आराधना करते हुए मरकर यह अहमिन्द्र हुआ । मपु० ८.११६, ९.९१-९३ (३) गान्धार-देश के विन्ध्यपुर नगर का एक वणिक् । मपु० (४) सुजन-देश में हेमाभनगर के राजा दृढ़मित्र का चतुर्थ पुत्र, जीवंधर का साला । मपु० ७५.४२०-४३० (५) पुष्कराध द्वीप के वत्सकावती देश में रत्नपुरनगर के राजा पद्मोत्तर का पुत्र । इसका पिता इसे राज्य-भार सौंपकर दीक्षित हो गया था। मपु० ५८.२, ११ (६) जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में पद्मिनीखेटनगर के सागरसेन वैश्य और उसकी स्त्री अमितमति का पुत्र । नन्दिषेण इसका भाई था। धन के लोभ से दोनों भाई एक-दूसरे को मारकर कबूतर तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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