SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिव्यपुर-दीप्त जैन पुराणकोश : १६५ विव्यपुर-समवसरण का एक भाग । इसके त्रिलोकसार आदि पचासी नाम है । गणधर की इच्छा होते ही कुबेर इसका निर्माण करता है। हपु० ५७.१११-१२४ दिव्यभूमि-स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची समवसरण की भूमि । इसके एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है । हपु० ५७.५ विव्यबल-साकेत नगर का राजा, रानी सुमति का पति और हिरण्यवती का पिता । मपु० ५९.२०८-२०९ दिव्यभाषा-नाना भाषाओं में परिणत होने के अतिशय से सम्पन्न अहंदु- वाणी । मपु० ४.१०६ दे० दिव्यध्वनि दिव्यभाषापति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १११ दिव्यमनुष्य-देवपूजित शलाका पुरुष,कामदेव और विद्याधर । मपु० ७६. ५०१-५०२ दिव्यरत्न-चक्रवर्ती की विभूति का एक रत्न । इसकी रक्षा देव करते थे। मपु० ३७.१८१ दिव्यलक्षणपंक्ति-बत्तीस व्यंजन, चौसठ कला और एक सौ आठ लक्षण इन दो सौ चार लक्षणों की अपेक्षा से दो सौ चार उपवासों से युक्त एक व्रत । इसमें एक उपवास के बाद एक पारणा की जाने से यह चार सौ आठ दिन में पूर्ण होता है । हपु० ३४.१२३ विव्यवाद-आगामी उत्सर्पिणी काल के तेईसवें तीर्थंकर । हपु० ६०.५६२ दिव्या-जाति-भव्यजनों को अर्हत्सेवा से प्राप्त होनेवाली चार जातियों में पहली जाति । इन्द्र इसी जाति का होता है । मपु० ३९.१६८ शिष्याण-सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुण । ये हैं-अनन्तज्ञान, अनन्त- दर्शन, अध्याबाधत्व, सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व और और अनन्तवीर्य । मपु० २५.२२३ दिव्योषध-विजयाध की दक्षिणश्रेणी का एक नगर । हपु० २२.९९ विशांगिरि-कपित्थ वन का एक पर्वत । मपु०७५.४७९ विशाजय-गर्भान्वयक्रिया के अन्तर्गत गृहस्थ की श्रेपन क्रियाओं में पैतालीसवीं क्रिया दिग्विजय । इसमें चक्ररत्न को आगे करके चक्री दिशाओं को जीतने का उद्योग करता है । मपु० ३८.५५-६३, २३४ दिशानन्दा-वैदिशपुर के राजा वृषभध्वज तथा रानी दिशावली की पुत्री। पाण्डव भीम को भिक्षा हेतु राजमहल में आया देखकर वृषभध्वज ने भिक्षा में इससे ही पाणिग्रहण करने के लिए निवेदन किया था। हपु० ४५.१०८-१११ विशावली-वैदिशपुर के राजा वृषभध्वज की रानी, दिशानन्दा की ___ जननी । हपु० ४५.१०७-१०८ विष्टि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१८७ बोक्षा-संसार से विरक्त होकर मुक्ति प्रदायक व्रतों को जिनेन्द्र अथवा आचार्य के चरणों में पहुँचकर ग्रहण करना । उत्तम कुलोत्पन्न, विशुद्ध गोत्र, सच्चरित्र, प्रतिभावान् और सौम्य पुरुष ही दीक्षा के पात्र होते हैं। यह सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, दुष्टग्रहोदय तथा ग्रह संयुक्ति के समय नहीं दी जाती तथा अधिक मास, क्षीणमास, अधिक तिथि और क्षीणतिथि में भी नहीं दी जाती । मपु० ३९.३-५, १५८ १६०, हपु० ५९.११९-१२० वीक्षाकल्याणक-तीर्थंकरों के पाँच कल्याणकों में तीसरा कल्याणक इसमें तीर्थंकरों को वैराग्य उत्पन्न होते ही सारस्वत आदि लौकान्तिक देव आकर उनकी स्तुति करते हैं और अभिषेक करके विविध रूप से उत्सव मनाते हैं। इसके पश्चात् उन्हें पालकी में बैठाकर दीक्षावन ले जाते हैं । मपु० ५९.३९-४० वीक्षाधक्रिया-गृहस्थ की गर्भ से निर्वाण पर्यन्त गर्भान्वयी वेपन क्रियाओं में तेईसवीं किया। इसमें प्रशान्त और एक वस्त्रधारी सम्यग्दृष्टि दीक्षाग्रहण करने के लिए घर छोड़कर वन में जाता है । मपु० ३८.५७, १५७-१५८, ३९.७७ दीक्षान्वयक्रिया-गर्भावतार से लेकर निर्वाण पर्यन्त मोक्ष प्राप्ति में सहायक क्रियाएँ। ये अड़तालीस होती हैं-अवतार, वृत्त, लाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्य-यज्ञ, दृढ़चर्या और उपयोगिता इन आठ क्रियाओं के अतिरिक्त गर्भान्वयो उपनीति नाम की चौदहवीं क्रिया से अग्रनिति क्रिया पर्यन्त क्रियाएँ । जो भव्य इन क्रियाओं का ज्ञान करके उनका पालन करता है वह निर्वाण पाता है। मपु० २९.५, ३८.५१-५२, ६४-६५, ३९.८०, ६३. ३००, ३०४ दे. गर्भान्वय दीप-पूजा-सामग्री का एक द्रव्य । मपु० १७.२५१ दीपन-राजा अन्धवृष्णि और रानी सुभद्रा के पुत्र वसुदेव की वंश परम्परा में हुए राजा सुखरथ का पुत्र और सागरसेन का पिता । हपु० १८.१७-१९ वीपशिख-भरतक्षेत्र के विजयाध की दक्षिण श्रेणी में स्थित ज्योतिप्रभ नगर के स्वामी सम्भिन्न का पुत्र । मपु० ६२.२४१-२४२ दीपसेन–आचार्य नन्दिषेण के शिष्य तथा श्रीधरसेन के गुरु-एक आचार्य । हपु० ६६.२७-२८ दीपांग-कल्पवृक्षों की एक जाति । ये कल्पवृक्ष सुषमा-सुषमा काल में विद्यमान लोगों को दीप प्रदान करते थे । मपु० ३.३९-४०, वीवच० १८.८८,९१ वीपालिका–दीपावली-एक महान पर्व । चौथे काल के तीन वर्ष साढे आठ मास शेष रहने पर स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमावस्या के दिन प्रातः तीर्थकर महावीर का निर्वाण होने से चारों निकायों के देवों द्वारा पावा नगरी में दीप जलाये गये थे। तभी से महावीर के निर्वाणकल्याणक को स्मृति में कार्तिक अमावस्या की रात में भारत में दीप जलाये जाने लगे और दीपावली के नाम से एक उत्सव मनाया जाने लगा। हपु० ६६.१६-२१ दोपिना-सेनापुर नगर के निवासी उपास्ति गृहस्थ की भार्या । पपु० ३१.२२-२५ दीपोद्धोधन संविधि-पूजा के समय दीपक जलाना । दक्षिणाग्नि से यह दीपक जलाया जाता है । मपु० ४०.८५ दीप्त-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy