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________________ १६४ : जैन पुराणकोश दिक्नन्दन-दिव्यपाद सुप्रणिधि, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीमती, कीतिमती, वसुन्धरा और चित्रादेवी रहती हैं। ये तीर्थंकरों के जन्म के समय संतुष्ट होकर आती हैं और मणिमय दर्पण धारणकर तीर्थंकरों की माता की सेवा करती है । पश्चिम दिशा की आठ देवियाँ हैं-इला, सुरा, पृथिवी, पद्मावती, कांचना, नवमिका, सीता और भद्रिका। ये देवियाँ तीर्थकरों के जन्मकाल में शुक्ल छत्र धारण करती है। इसी प्रकार उत्तर के आठ कूटों पर भी आठ देवियाँ निवास करती हैं । वे हैं-लम्बुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीकिणी, वारुणी, आशा, ह्री, श्री और धृति । ये हाथ में चमर लेकर जिनमाता की सेवा करती है। इनके अतिरिक्त गन्धमादन, माल्यवान् , सौमनस्य और विद्युत्प्रभ पर्वतों के मध्यवर्ती आठ कूटों पर रहनेवाली आठ दिक्कुमारियाँ ये हैं-भोगकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, वत्समिला, सुमित्रा, वारिषेणा और अचलवती । हपु० २.२४, ५.२२६-२२७, ७०४-७१७ रुचकवर पर्वत की विदिशाओं के चारकूटों में रहनेवाली आठ देवियाँ हैं-रुचका, विजयादेवी, रुचकोज्ज्वला, वैजयन्ती, रुचकाभा, जयन्ती, रुचकप्रभा और अपराजिता । हपु० ५.७२२-७२७ चित्रा, कनकचित्रा, सूत्रामणि और त्रिशिरा ये चार विद्य त्कुमारियाँ तथा विजया, वैजयन्ती. जयन्ती और अपराजिता से चार दिक्कुमारियाँ मिलकर तीर्थंकरों का जातकर्म करती हैं। हपु० ८.१०६-११७ मेघकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, तीयधारा, विचित्रा, पुष्पमाला और अनिन्दिता ये आठ नंदनवन की दिक्कुमारियाँ हैं । हपु० ५.३३२-३३३ । दिक्नन्दन-रुचकवर पर्वत की पूर्व दिशा का पाँचवाँ कूट । यह दिक्कुमारी नन्दा देवी की निवाभूमि है । हपु० ५.७०५-७०६ दिक्पाल-दिक्कुमार जाति के देव । लोकपाल इन्हीं देवों में से होते हैं । मपु० ४.७०, ३३.९६ विकस्वस्तिका -चक्रवर्ती भरत की सभाभूमि । मपु० ३७.१४८ दिगम्बर-निर्ग्रन्थ मुनि । ये उद्दिष्ट आहार के त्यागी, तृष्णारहित, जितेन्द्रिय, शरीर की स्थिति मात्र के लिए मौन पूर्वक आहारग्राही, धर्माचरणी, देह से निस्पृही और प्राणियों पर दया करनेवाले होते हैं। पपु० ४.९१-१०० विग्गजेन्द्र-देव विशेष । ये विदेहक्षेत्र में भद्रशाल वन के कूटों पर 'निवास करते हैं । रुचकवरगिरि की चारों दिशाओं में चार देवपद्मोत्तर, स्वहस्ती, नीलक और अंजनगिरि रहते हैं। ये चारों देव भी दिग्गजेन्द्र कहलाते हैं। इनकी आयु एक पल्य प्रमाण होती है । हपु० ५.२०५-२०९, ६९९-७०३ 'दिग्नन्दन-रुचकवर द्वीप में स्थित रुचक पर्वत की पूर्व दिशा का पाँचवाँ कूट । यहाँ नन्दा दिक्कुमारी रहती हैं । हपु० ५.७०६ दिग्नाग-ऐरावत हाथी । मपु० ४.७० दिग्वासा-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २०४ विग्वत-प्रथम गणव्रत-दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध ग्राम, नगर आदि नामों द्वारा की हुई मर्यादा का पालन । इसके पाँच अतिचार । है-अधोव्यतिक्रम-लोभवश नीचे की सीमा का उल्लंघन करना, तिर्यग्व्यतिक्रम-समान धरातल की सीमा का उल्लंघन करना, ऊर्ध्व व्यतिक्रम-ऊपर की सीमा का उल्लंघन करना, स्मृत्यन्तराधान-ली हुई सीमा को भूलकर अन्य सीमा का स्मरण रखना और क्षेत्रवृद्धि-मर्यादित क्षेत्र की सीमा बढ़ा लेना । पपु० १४.१९८, हपु० ५८.१४४, १७७, वीवच० १८.४८ दिति-(१) ऐरावत क्षेत्र का एक नगर । पपु० १०६.१८७ (२) धरणेन्द्र की देवी। इसने नमि-विनमि को मातंग, पाण्डुक, काल, स्वपाक, पर्वत, वंशालय, पांशमूल और वृक्षमूल ये आठ विद्यानिकाय दिये थे । हपु० २२.५४.५९-६० । (३) धारणयुग्म नगर के सूर्यवंशी राजा अयोधन की महारानी । यह चन्द्रवंशी राजा तृणबिन्दु की छोटी बहिन थी। सुलसा इसी की पुत्री थी। हपु० २३.४७-४८ दे० सुलसा दिननाथरथ---इक्ष्वाकुवंशी इन्द्ररथ का पुत्र, मान्धाता का पिता। पपु० २२.१५४-१५९ दिवाकर-विद्याधरों का स्वामी विद्या-वैभव से सम्पन्न एक विद्याधर । पपु० ५४.३६ दिवकारप्रभ-(१) ईशान का एक विमान । मपु० ८.२१० (२) एक देव । मपु० ८.२१० दिवाकरयति-इन्द्रगुरु के शिष्य और अर्हद्यति के गुरु । इस गुरु-परम्परा में आये हुए आचार्य लक्ष्मणसेन आचार्य रविषेण के गुरु थे। पपु० १२३.१६८ विवितिलक-(१) कनकपुर के राजा गरुड़वेग और रानी धृतिषणा का पुत्र, चन्द्रतिलक का भाई । मपु० ६३.१६६ (२) विजया का एक नगर । मपु० ६२.३६ दिव्य-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१११ विव्यकटक-एक कराभूषण । ये रत्नजटित होते थे। ये वरतनु देव से भरतेश को प्राप्त हुए थे। मपु० २९.१९४ दिव्यज्ञान-अवधिज्ञान । मपु०५.१०७ विव्यध्वनि-तीर्थकर के आठ प्रातिहार्यों में एक प्रातिहार्य-धर्मोपदेश देने के लिए एक योजन पर्यन्त व्याप्त केवली जिनेन्द्र की दिव्य वाणी । यह तालु, ओठ तथा कण्ठ की चंचलता से रहित और अक्षर-विहीना होती है । मपु० १.१८४, २४.८२, हपु० २.११३, ३.३८-३९, पापु० १.११९ यह विवक्षा रहित होती है और विश्व का हित करती है। यह नाना भाषामयी और व्यक्त अक्षरा होकर अनेक देशों में उत्पन्न मनुष्यों, देवों और पशुओं के सन्देह का नाश कर धर्म के स्वरूप का कथन करती है । सर्व भाषाओं में परिणमन होने का स्वभाव होने से सभी इसे अपनी भाषा में समझ लेते हैं । यह गणधर की अनुपस्थिति में नहीं खिरती। मपु० १.१८६-१८७, २४.८४, हपु० २.११३, ५८.१५, वीवच० १५.१४-१७,७८-८२ विव्य-निनाद-दिव्यध्वनि जिसमें तीर्थंकर का दिव्य उपदेश होता है । मप०४८.५१ दे० दिव्यध्वनि दिव्यपाद-आगामी उत्सर्पिणी काल के तेईसवें तीर्थकर । अपरनाम देव. पाल । मपु० ७६.४८०, हपु० ६०.५६१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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