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________________ १५८ जैन पुराणकोश हरी नाम की अपनी पुत्री पर मोहित होकर व्यभिचार किया था । इस कुकृत्य से असंतुष्ट होकर अपने पुत्र इलावर्धन को लेकर इसकी रानी इला दुर्गम स्थान में चली गयी थी। वहीं उसने इलावर्धन नामक नगर बसाया था । पपु० २१.४६-४९. हपु० १७.१-१८ दक्षिण - (१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १६६ (२) कौरवपक्षीय एक राजा । इसे कृष्ण तथा अर्जुन ने युद्ध में मारा था । पापु० २०.१५२ दक्षिण णी — विजयाद्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी । इसमें पचास नगर हैं । हपु० ५.२३ दे० विजयार्द्ध दक्षिणाग्नि- एक प्रकार की अग्नि । इससे केवली का दाह संस्कार किया जाता है । जिनेन्द्र पूजा में भी इसी अग्नि से दीपक जलाया जाता है । मपु० ४०.८४, ८६ दक्षिणार्थं - ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत का आठयाँ कूट । हपु० ५. १११ दक्षिणार्धक - भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत का दूसरा कूट । हपु० ५.२० बण्ड - (१) केवली के समुद्घात करने का प्रथम चरण । जब केवली के आयुकर्म की अन्तर्मुहूर्त तथा अघातिया कर्मों की स्थिति अधिक होती है तब वह दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण के द्वारा सब कर्मों की स्थिति बराबर कर लेता है । मपु० ३८.३०७, ४८.५२, पु० ५६. ७२-७४ (२) क्षेत्र का प्रमाण । यह दो किष्कु प्रमाण ( चार हाथ ) होता है । इसके अपर नाम धनुष और नाड़ी हैं । मपु० १९.५४, हपु० ७.४६ (३) प्रयोजन सिद्धि के साम, दान, दण्ड, भेद इन चार राजनीतिक उपायों में तीसरा उपाय । शत्रु की घास आदि आवश्यक सामग्री की चोरी करा देना, उसका वध करा देना, आग लगा देना, किसी वस्तु को छिपा देना या नष्ट करा देना इत्यादि अनेक बातें इस उपाय के अन्तर्गत आती हैं । अपराधियों के लिए यही प्रयुज्य होता है । मपु० ६८.६२-६५, पु० ५०.१८ (४) कर्मभूमि से आरम्भ में योग और क्षेम व्यवस्था के लिए हा, मा, और धिक् इस त्रिविध दण्ड की व्यवस्था की गयी थी । मपु० १६.२५० (५) चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक अजीव रत्न। यह सैन्यपुरोगामी और एक हजार देवों द्वारा रक्षित होता है । भरतेश के पास यह रत्न था । मपु० २८.२-३, ३७. ८३-८५ (६) इन्द्र विद्याधर का पक्षधर एक योद्धा । पपु० १२.२१७ (७) महाबल का पूर्व वंशज एक विद्याधर । यह मरकर अपने ही भण्डार में अजगर सर्प हुआ था । मपु० ५.११७-१२१ दण्डक - (१) कर्म कुण्डल नगर का राजा। इसकी रानी परिव्राजकों की भक्त थी । एक समय इस राजा ने ध्यानस्थ एक दिगम्बर मुनि के गले में मृत सर्प डलवा दिया था, जिसे बहुत समय तक मुनि के गले में ज्यों का त्योंडला देख कर यह बहुत प्रभावित हुआ था। राजा की मुनि Jain Education International दक्षिण-दत्त भक्ति से रानी का गुप्त प्रेमी परिव्राजक असंतुष्ट हुआ। उसने निर्धन्य होकर रानी के साथ व्यभिचार किया । कृत्रिम मुनि के इस कुकृत्य से कुपित होकर इस ग्रुप ने समस्त मुनियों को पानी में दिया था। एक मुनि अन्यत्र चले जाने से मरण से बच गये थे। राजा के इस भूतिकृत्य को देखकर मुनियर को क्रोध आ गया और उनके मुख से हा निकला कि अग्नि प्रकट हो गयी और उससे सब कुछ भस्म हो गया। पपु० ४१.५८ (२) दक्षिण का एक पर्वत । पपु० ४२.८७-८८ (३) दण्डक देश का एक राजा । पपृ० ४१.९२ दे० दण्डकारण्य दण्डकारणिक — दण्ड देनेवाला अधिकारी । मपु० ४६.२९२ दण्डकारण्य - कर्णरवा नदी का तटवर्ती एक वन । इसके पूर्व यहाँ दण्डक नाम का देश तथा दण्डक नाम का ही राजा था। इसी राजा के कृत्य से देश वन में परिवर्तित हुआ तथा राजा के नाम के कारण वह इस नाम से सम्बोधित किया गया । मपु० ७५.५५४, पपु० ४०.४०-४१, ४४-४५. ९२-९७, दे दण्डक दण्डक्रीडा - दण्ड से खेला जानेवाला खेल । मपु० १४.२०० दण्डगर्भ भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगर के राजा मधुक्रीड का प्रधानमन्त्री । मपु० ६१.७४-७६ दण्डधार - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पैंतालीसवाँ पुत्र । पापु० ८. १९८ दण्डनीति- प्रशासन विद्या। यह प्रशासन को चार विद्याओं में एक विद्या है । मपु० ४१.१३९ दण्डभूतदिति और अदिति द्वारा नमि और विनमि विद्याषरों को प्रदत्त सोलह निकायों की विद्याओं में एक विद्या । पु० २२.६५ । यह सेना के आगे चलता है । चारों ओर खाई खोदी थी। दण्डरत्न — चक्रवर्ती का एक निर्जीव रत्न सगर के पुत्रों ने इसी से कैलास के मपु० २९,७, पपु० ५.२४७ - २५० दण्डापक्षगण - दिति और अदिति द्वारा नमि और विनमि विद्याधरों को प्रदत्त सोलह निकायों की विद्याओं में एक विद्या । पु० २२.६५ दस - (१) सातवें नारायण । अपरनाम दत्तक । यह वाराणसी नगरी के राजा अग्निशिख और उसकी दूसरी रानी केशवती का पुत्र तथा सातवें बलभद्र नन्दिमित्र का छोटा भाई था। यह तोर्थंकर मल्लिनाथ के तीर्थ में उत्पन्न हुआ था। इसकी आयु बत्तीस हज़ार वर्ष, शारीरिक अवगाहना बाईस घनुष और वर्ण इन्द्रनील मणि के समान था। विद्याबलीन्द्र इसके भद्रक्षीर नामक हाथी को लेना चाहता था । घर-नृप उसे न देने पर इसके साथ उसका युद्ध हुआ । युद्ध में बलीन्द्र ने इसे मारने के लिए चक्र चलाया था किन्तु चक्र प्रदक्षिणा देकर इसकी दाहिनी भुजा पर पर आ गया। इसने इसो चक्र से बलीन्द्र का सिर काटा था । अन्त में यह मरकर सातवें नरक गया। आयु में इसने दो सौ वर्ष कुमारकाल में, पचास वर्ष मण्डलीक अवस्था में, पचास वर्ष दिग्विजय में व्यतीत कर इकतीस हजार सात सौ वर्ष तक राज्य किया था । ये दोनों भाई इससे पूर्व तीसरे भव में अयोध्या नगर के राजपुत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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