SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पुसणकोश : १५७ त्रिभुवनानन्द-दक्ष भद्र और एक पुत्री ज्योतिप्रभा हुई। आरम्भ की अधिकता के कारण रौद्रध्यान से मरकर यह सातवें नरक गया था। मपु० ५७.८९-९५, ६२.२५-३०, ४३-४४, १११-११२, पपु० ४६.२१३, हपु० ६०.५१७- ५१८, पापु० ४.८५, वीवच० ३.७१, १०६-१३१ यह अपने पूर्वभव में पुरूरवा भील था । मुनिराज से अणुव्रत ग्रहण कर मरण करने से सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वहाँ से चयकर यह भरत चक्रवर्ती का मरीचि नामक पुत्र हुआ। इसने मिथ्यामार्ग चलाया था। इसके बाद यह चिरकाल तक अनेक गतियों में भ्रमण करता रहा । पश्चात् राजगृह नगर के राजा विश्वभूति का पुत्र विश्वनन्दी हुआ। इसके पश्चात् महाशुक्र स्वर्ग में देव और तत्पश्चात् त्रिपृष्ठ की पर्याय में नारायण हुआ। आगामी दसवें भव में यही तीथंकर महावीर हुआ। मपु० ५७.७२, ८२,६२.८५-९०, ७४.२०३-२०४, २४१-२६०, ७६. ५३४-५४३ (२) आगामी उत्सर्पिणी काल का आठवां नारायण । मपु० ७६.४८९, हपु० ६०.५६७ (३) तीर्घकर श्रेयांसनाथ का मुख्य प्रश्नकर्ता । मपु० ७६.५३० 'त्रिभुवनानन्द–विदेह क्षेत्र के पुण्डरीक नगर का चक्रवर्ती सम्राट् । इसके बाईस हजार पुत्र थे और एक पुत्री अनंगशरा थी। अनंगशरा ने अपने ऊपर आयी हुई विपत्ति के कारण सल्लेखना धारण कर ली थी । उस अवस्था में वन में एक अजगर उसे खा रहा था। यह समाचार सुनकर जब यह वन में उसके पास पहुँचा तो उसे वैराग्य हो गया और अपने पुत्रों के साथ यह दीक्षित हो गया । पपु० ६४. ५०-५१, ८५-९० दे० अनंगशरा त्रिमूर्धन्-राम का पक्षधर एक नृप । पपु० १०२.१४५ त्रिलक्षण-द्रव्य । इसके तीन लक्षण होते है-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य । हपु० २.१०८ त्रिलोक कण्टक-एक हाथी । रावण ने इसे वश में कर इसका यह नाम रखा था। इसके तीनों लोक मण्डित हुए थे अतः दशानन ने बड़े हर्ष से इसका त्रिलोकमण्डन नाम रखा था। पपु० ८.४३२, ८५.१६३ पूर्वभव में यह पोदनपुर के निवासी अग्निमृख ब्राह्मण का मृदुमति नामक पुत्र था। इसने शशांकमुख गुरु से जिनदीक्षा धारण कर ली थी। एक दिन यह आलोक नगर आया यहाँ लोगों ने इसे मासोपवासी चारण ऋद्धिधारी मुनि समझकर इसकी बहुत पूजा की । यह अपनी झूठी प्रशंसा को चुपचाप सुनता रहा । इस माया के फलस्वरूप इसे अगले जन्म में हाथी होना पड़ा था। मुनि देशभूषण से इसी हाथी ने अणुव्रत धारण किये थे । इसने एक मास का उपवास किया था । अपने आप गिरे हुए सूखे पत्तों से दिन में एक बार पारणा की थी। चार वर्ष तक उग्र तप करने के पश्चात् सल्लेखना पूर्वक मरण करने से यह ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ था। पपु० ८५.११८-१५२, ८७.१-७ त्रिलोकमण्डन-इस नाम की एक हाथी । पपु० ८.४३२ दे० त्रिलोक कण्टक त्रिलोकसारव्रत-एक व्रत । इसमें क्रमशः ५, ४, ३, २, १, २, ३, ४, ३, २,१ । इस प्रकार कुल ३० उपवास तथा ११ पारणाएं की जाती हैं । हपु० ३४.५९-६१ त्रिलोकाप्रशिखामणि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१९० - त्रिलोकीय-इक्कसवें तीर्थकर नमिनाथ के पूर्वभव के पिता । पपु० २०.२९-३० त्रिलोकोत्तम-जम्बद्वीप में पूर्व विदेह क्षेत्र के पुष्कलावती देश में स्थित विजयाध पर्वत का एक नगर । मपु० ७३.२५-२६ त्रिलोचन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. २१५ त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम । मपु० १.९९, २.३१-३२, ४.१६५, ११.३३, हपु० २१.१८५ त्रिवर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । मपु० ७४.४९३ त्रिशिखर-नभस्तिलक नगर का राजा एक दुष्ट विद्याधर । यह वसुदेव द्वारा मारा गया था। पु० २५.४१, ६९-७० त्रिशिरस्-(१) खरदूषण का पक्षधर एक विद्याधर । पपु० ४५.८६-८७ (२) एक देश । लवणांकुश और मदनांकुश ने इस देश को जीता था । पपु० १०१.८२, ८६ (३) कुण्डलगिरि के वज्रकूट का निवासी एक देव । हपु० ५. ६९० (४) रूचक पर्वत के स्वयंप्रभकूट की एक देवी । हपु० ५.७२० (५) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३७ त्रिभृग-एक महानगर । यहाँ पाण्डव अपने वनवास के समय में आये थे । हपु० ४५.९५, पापु० १३.१०१ त्रिषष्टिपुरुष-त्रेसठ शलाका-पुरुष । ये हैं चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलभद्र । मपु० १. १९-२०, हपु० १.११७ श्रीनित्रय जीव-स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त जीव । इनकी आठ लाख कुल कोटियाँ तथा उत्कृष्ट आयु उनचास दिन की होती है । हपु० १८.६०, ६७ त्रुटिरेणु-आठ संज्ञा-संज्ञाओं का एक त्रुटिरेणु । हपु० ७.३८ त्र्यक्ष-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१५ त्र्यम्बक-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२१५ त्वष्टियोग–ब्रह्मयोग । मपु० ७१.३८ थलचर-जलचर, थलचर और नभचर के भेद से तीन प्रकार के जीवों में पृथिवी पर विचरनेवाले जीव । मपु० १०.२८ वक्ष-(१) सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. (२) तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का पौत्र । यह सुव्रत का पुत्र और इलावर्धन का पिता था। इसने इला नाम की रानी से उत्पन्न मनो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy