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________________ ताप - त्रियंग्गति है। इसमें पुष्प-क्षेपण करके नृत्य किया जाता है । मपु० १४.१०६, ११४, २१.१३९ ताप - असातावेदनीय का आस्रव । हपु० ५८.९३ तापन - (१) नागराज द्वारा प्रद्य ुम्न को प्रदत्त पाँच बाणों में एक बाण । मपु० ७२.११८-११९ (२) तीसरी बालुकाप्रभा नरकभूमि के चतुर्थ प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में अठासी और विदिशाओं में चौरासी श्रेणिबद्ध बिल हैं । हपु० ४.८०-८१, १२१ तापस - भरतक्षेत्र के पश्चिम में स्थित आर्यखण्ड का एक देश । यहाँ भरतेश का एक भाई राज्य करता था। जब भरतेश ने उसे अपने अधीन करना चाहा तो वह इसे छोड़कर दीक्षित हो गया था । हपु० ११.७१-७३ तापी - भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी । भरत की सेना इस नदी - को पार करके आगे बढ़ी थी। मपु० ३०.६१, पपु० ३५.२ तामसास्त्र — अन्धकारोत्पादक एक बाण । इसे भास्करबाण से प्रभावहीन किया जाता है । मपु० ४४.२४२, पपु० १२.३२८, हपु० ५२.५५ तामित्र – पाँचवीं नरकभूमि के पंचम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में बीस और विदिशाओं में सोल्ट विद बिल है। इसका विस्तार चार लाख छियासठ हजार छः सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण होता है । इसकी जघन्य स्थिति एक सागर और एक सागर के पाँच भागों में तीन भाग प्रमाण तथा उत्कृष्ट स्थिति सत्रह सागर प्रमाण है। यहाँ नारकी एक सौ पच्चीस धनुष ऊंचे होते हैं हृ० ४.८२, १४२, २१३, २८९-२९०, ३३५ तामित्र गुहक - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी विजयार्ध पर्वत के नौ कूटों में सातवाँ कूट । यह मूल में छः योजन, मध्य में कुछ कम पाँच योजन और ऊपर कुछ अधिक तीन योजन है । हपु० ५.२७, २९ तागृहकूट ऐरावत क्षेत्र के मध्य में स्थित विजपा के नौ कूटों में तीसरा कूट । हपु० ५.११० ताम्रचूल - भूतरमण नामक वन का भूत जाति का एक व्यन्तर । मपु० ६३. १८६ ताम्रलिप्त - एक नगर । यहाँ अमितगति व्यापार के लिए आया था । हपु० २१.७६ ताम्रलिप्ति - ऐलेय के द्वारा अंग देश में बसाया गया एक नगर । हपु० १७.२० ताना- भरतक्षेत्र के पूर्व आर्यंखण्ड की एक नदी । यहाँ भरतेश की सेना आयी थी । मपु० २९.५० तार- चौथी पंकप्रभा नरकभूमि के द्वितीय प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में साठ और विदिशाओं में छप्पन श्रेणिबद्ध बिल हैं । हपु० ४.८२, १३० तारक -- (१) दूसरा प्रतिमारायण । यह अवसर्पिणी के चौथे काल में भरतक्षेत्र स्थित गोवर्द्धन नगर के राजा श्रीधर का पुत्र हुआ था । २० Jain Education International जैम पुराणकोश : १५३ द्विपृष्ठ के गन्धगज के लोभ में पड़कर यह अपने ही चक्र से मारा गया और नरक में जा गिरा था। पूर्वभवों में यह विध्यशक्ति नाम का राजा था। चिरकाल तक अनेक योनियों में भ्रमण कर वर्तमान भव में द्वितीय प्रतिनारायण हुआ । मपु० ५८.९१, १०२-१०४, ११५ १२४, पपु० २०.२४२-२४४, हपु० ६०.२९१, वीवच० १८. १०१ ११४- ११५ (२) नक्षत्र - समूह । यह ज्योतिरंग जाति के वृक्षों की प्रभा के क्षय से सन्मति नामक दूसरे कुलकर के समय में दिखायी देने लगा था । इससे दिन-रात का विभाजन होने लगा था । मपु० ३.८४-८६ (३) अर्जुन का एक शिष्य एवं मित्र । वनवास के समय सहायवन में स्थित पाण्डवों पर दुर्योधन द्वारा आक्रमण किया गया था। उस समय इसने दुर्योधन को नागपाश से बाँध लिया था । पापु० १७.६६, १००-१०७ तारा -- ( १ ) ईशावती नगरी के राजा कार्तवीर्य की रानी । यह चक्रवर्ती सुभोम की जननी थी । पपु० २०.१७१-१७२, हपु० २५.११ (२) किष्किन्धपुर के राजामुद्दीन की रानी पद्मरागा इसकी पुत्री थी । पपु० १९.२, १०७-१०८ ताराधरायण - महेन्द्रनगर के राजा विद्याधर महेन्द्र का मन्त्री । पपु० १५.३६ सायकेतु कृष्ण ० ५१.१९ तायव्यूह - गरुड़ व्यूह । पापु० ३.९७, १९.१०४ । तार्ग उत्तरविशा का एक देश यहाँ भगवान् महावीर का विहार हुआ था । हपु० ३.६ ताल - एक घनवाद्य (मंजीरा) । मपु० १२.२०९ तालीवन — ताड़ के वृक्षों का वन । यह दक्षिण भारत में था । मपु० २९.११८, ३०.१५ तिगंध-जम्बूद्वीप के कुलाचलों के मध्य में स्थित कमल- विभूषित सोलह हदों में तीसरा हृद अपरनाम तिछि मपु० ६३.१९७, हपु० ५.१२०-१२१ तिन्दुक — तेंदूवृक्ष | तीर्थंकर श्रेयान् (श्र यांस) ने इसी वृक्ष के नीचे निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण की थी । पपु० २०.४७ तिरस्करिणीदिति और अदिति द्वारा नाम और विनमि को दी हुई सोलह विद्या निकायों की विद्याओं में एक विद्या । हपु० २२.६३ तिर्यक्लोक – लोक का मध्यभाग । इसका विस्तार एक राजु है । यह असंख्यात वलयाकार द्वीपों और समुद्रों से शोभायमान है । ये द्वीप और समुद्र क्रम से दुगुने दुगुने विस्तार से युक्त हैं। हिमवत् आदि छः कुलाचलों, भरत आदि सात क्षेत्रों और गंगा-सिन्धु आदि चौदह नदियों से युक्त एक लाख योजन चौड़ा जम्बूद्वीप इसके मध्य में स्थित है। यह तनुवातवलय के अन्त भाग पर्यन्त पृथिवीतल के एक हजार योजन नीचे से लेकर निन्यानवें हजार योजन ऊँचाई तक फैला हुआ है । मपु० ४.४० ४१ ४५-४९, पपु० ३.३०-३१, हपु० ५.१ तिर्यग्गतितियंचगति इस गति को भावाचारी, पर-लक्ष्मी के अपहरण में आसक्त, आठों प्रहर भलक, महामूर्ख, कुशास्त्रज्ञ, व्रतील आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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