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________________ १५२ : जैन पुराणकोश तपनीयनिभ-साय तपनीयनिभ-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. इसका विस्तार आठ लाख तैंतीस हजार तीन सौ तैंतीस योजन और १९८ एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। इसकी जघन्य तप-भावना-शक्ति को न छिपाते हुए शरीर द्वारा किया गया मोक्ष स्थिति दस सागर तथा उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागर और एक सागर __ मार्ग के अनुरूप उद्यम । मपु० ६३.३२४, हपु० ३४.१३८ के पाँच भागों में दो भाग प्रमाण है। यहाँ नारकियों को अवगाहना तप-शुद्धि-एक व्रत । इसमें अनशन आदि बाह्य तपों के क्रमशः दो, एक, पचहत्तर धनुष होती हैं। मपु० १०.३१, हपु० ४.८३, १३८, १५६ एक, पाँच, एक और एक इस प्रकार ग्यारह तथा प्रायश्चित्त आदि २०९, २६५-२८६, ३३३ अन्तरंग तपों के क्रमशः उन्नीस, तीस, दस, पांच, दो और एक इस तमक-चौथी नरकमि के पंचम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों प्रकार सड़सठ-कुल अठहत्तर उपवास किये जाते हैं । इनमें एक उपवास दिशाओं में अड़तालीस और विशिाओं में चवालीस श्रेणीबद्ध बिल के बाद एक पारणा की जाती है। इसमें कुल एक सौ छप्पन दिन होते हैं । हपु० ४.८२, १३३ लगते हैं । हपु० ३४.९९ तमसा-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड की एक नदी। यहाँ भरतेश की सेना तपाचार-पंचाचार में चतुर्थ आचार । इसमें बाह्य और आभ्यन्तर दोनों आयी थी। मपु० २९.५४ प्रकार के तप किये जाते हैं। इससे संयम की रक्षा होती हैं। मपु० तमस्तमःप्रभा-नरक की सातवीं पृथिवी। अपरनाम महातम प्रभा। २०.१७३, पापु० २३.५८ मपु०१०.३१, पपु० ११.७२ हपु० २.१३६, ४.४५ तपाराधना-चतुर्विध आराधनाओं में चौथी आराधना। इसमें दोनों तमिन-विजया की एक गुहा । यह पर्वत की चौड़ाई के समान लम्बी, प्रकार के तप और संयय का पालन किया जाता है। पापु० १९. आठ योजन ऊँची, बारह योजन चौड़ी है। उसके कपाट वज-निर्मित २६३, २६७ है । इसके तल प्रदेश में सिन्धु नदी बहती है। मपु० ३२.६-९, हपु० तपित-मेघा नामक तीसरी नरकभूमि के द्वितीय प्रस्तार का इन्द्रक ११.२१ बिल । इसकी चारों दिशाओं में छियानवें एवं विदिशाओं में बानवें तमोन्तक-चारुदत्त का मित्र । हपु० २१.१३ श्रेणीबद्ध बिल है । हपु० ४.८०-८१, ११९ तमोपह-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.२०५ तपोल्पा-एक विद्या । यह रावण को सिद्ध थी । पपु० ७.३२७ तमोबाण-अन्धकार का प्रसार करनेवाला बाण । इसे भास्कर-बाण से तप्त-(१) तीसरी नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी प्रभावहीन किया जाता है । मपु० ४४.२४२ चारों दिशाओं में सौ और विदिशाओं में छियानवें श्रेणीबद्ध बिल तमोरि-भरतेश द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २४.३६ है। हपु० ४.८०, ११८ तरंगमाला-दधिमुख नगर के राजां गन्धर्व और रानी अमरा की छोटी (२) एक ऋद्धि। इससे तपस्वी उत्कृष्ट तप करता है। मपु० पुत्री । यह चन्द्र लेखा और विद्युत्प्रभा की छोटी बहिन थी। तीनों ११.८२ बहिनों का विवाह राम से किया गया था। पपु० ५१.२५-२६, ४८ तप्तचामीकरच्छवि-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० तरंगवेग-एक विद्याधर । इसने श्रीभूति पुरोहित की पुत्री वेदवती को २५.१९८ तप्तजला-पूर्व विदेह की एक विभंगा नदी। यह नदी निषध पर्वत से उसके पूर्वभव में (हथिनी की पर्याय में) मरणासन्न अवस्था में णमोनिकलकर सीता नदी की ओर जाती है। मपु० ६३.२०६ हपु० ५. कार मंत्र सुनाया था, जिसके प्रभाव से वह श्रीभूति पुरोहित की २४० वेदवती नाम की पुत्री हुई । पपु० १०६.१३८-१४१ तप्तजम्बूनवयुति-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० तरंगिणी-एक नदी। इसके साथ वेगवती नदी मिलती है। हपु०४६.. २५.२०० तप्ततप्त-तप सम्बन्धी एक ऋद्धि । यह अत्यग्र तप करने से प्राप्त होती तरलप्रतिबन्ध-मोती की एक लड़ी-हार । मपु० १६.५४ है। मपु० ३६.१५० तरलप्रबन्ध-हार यष्टि । मपु० १६.४७ तमःप्रभा-छठी नरकभूमि । अपरनाम मधवी। यह सोलह हजार योजन तर्पण-पांच फणोंवाले नागराज द्वारा स्वर्णार्जुन वृक्ष के नीचे प्रद्य म्न मोटी है। इसमें पांच कम एक लाख बिल है जिसमें बाईस सागर को दिये गये पाँच बाणों में एक बाण । मपु० ७२.११८-११९ उत्कृष्ट आय के धारी तथा दो सौ पचास धनष शरीर की ऊँचाई तलवर-आरक्षण (पुलिस) का वरिष्ठ अधिकारी। मपु० ४६.२९१, वाले नारकी रहते हैं । यहाँ अति तीव्र शीत वेदना होती है। मपु० ३०४ १०.३१-३२, ९०.९४, हपु० ४.४३-४६, ५७-५८ ताडवी-विकृत शरीरधारिणी एक पिशाची। कंस ने कृष्ण को मारने के लिए इसे भेजा था । कृष्ण ने इसे देखते ही मार डाला था। हपु० तम-पांचवीं धूमप्रभा नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार का इन्द्रक बिल । इसकी चारों दिशाओं में छत्तीस और विदिशाओं में बत्तीस श्रेणीबद्ध बिल है । इसकी पूर्व दिशा में निरुद्ध, पश्चिम में अतिनिरुद्ध, दक्षिण ___ ताण्डव-उद्यत नृत्य । तीर्थंकरों के कल्याणकों के समय इन्द्र स्वयं यह में विमर्दन और उत्तर में महाविमर्दन नाम के चार महानरक है। नृत्य करता है। इसके कई भेद हैं उनमें पुष्पांजलि प्रकीर्णक भी एक ४९ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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