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________________ १२६ जैन पुराणकोश (२) त्रिशृंग नगर के राजा प्रचण्डवाहन और उसकी रानी विमलप्रभा की नवीं पुत्री इसने और इसकी सभी बहिनों ने युधिष्ठिर को ही अपना पति माना था। बाद में इसके बनवास आदि का समाचार मिलने पर ये सब अणुव्रत धारण करके श्राविका बन गयी थीं । हपु० ४५.९५-९९ चर्या - परीषह - पादत्राण की मन, वचन और काय से भी इच्छा न रखते हुए चलने में होनेवाले कष्ट को सहन करना । मपु० ३६.१२० चल - रावण का एक पराक्रमी नृप । पपु० ५७.५८ चलद्योति - राम की सेना का एक प्रधान । इसने तथा इसके साथी अन्य प्रधानों ने राक्षस सेना को क्षत-विक्षत कर दिया था। पपु० ७. ७५-७६ चलांग - रावण का एक पराक्रमी योद्धा । पपु० ५७.५७-५८ चषक - प्याला ( कटोरा ) ।ये भाजनांग जाति के कल्पवृक्षों से प्राप्त होते थे । मपु० ९.४७ चाणूर - कृष्ण द्वारा हत कंस का एक मल्ल । मपु० ७०.४९३ हपु० ३६.४०, ४३, पापु० ११.५९ चाण्डाली एक विद्या अर्ककीर्ति के पुत्र अमित को यह विद्या सिद्ध थी । मपु० ६२.३९५ -- चान्द्रायण - एक व्रत । मपु० ६३.१०९ इसमें चन्द्र गति की वृद्धि तथा हानि के क्रम में बढ़ते और घटते ग्रास लिये जाते हैं । अमावस्या के दिन उपवास, अनन्तर प्रतिपदा को एक कवल, द्वितीया के दिन दो कवल, इस प्रकार एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए चतुर्दशी के दिन चौदह कवल का आहार पूर्णिमा के दिन उपवास, फिर चन्द्रमा की कलाओं अनुसार प्रतिदिन एक-एक ग्रास कम करते हुए अन्त में अमावस्या के दिन पुनः उपवास किया जाता है । इस प्रकार इकतीस दिन में यह व्रत पूर्ण होता है । हपु० ३४.९० के चन्द्रचर्या - मुनि की आहारचर्या जैसे चन्द्रमा धनी और निर्धन सबके यहाँ चाँदनी फैलाता है वैसे ही मुनि भी आहार के लिए निर्धनधनिक सभी के घर जाता है। वृषभदेव इसी चर्या से आहार लेते थे । मपु० २०.६७-६८, हपु० ९.१४४, १७३ चापरत्न - सीता के स्वयंवर में प्रकट हुआ धनुष । पपु० १.७९ चामर - दे० चमर । मपु० ५.२, १७.१०७ चामीकर यंत्र - जलक्रीड़ा में काम में आनेवाला स्वर्णमय यन्त्र ( पिच - कारी) मपु० ८.२३ चामुण्ड सिंहविक्रम के पश्चात् हुआ लंका का एक राक्षसो नृप । पपु० ५.३९६ चार -- गुप्तचर । ये राजा की आँख होते हैं । मपु० ४.१७०, हपु० ५०.११ चारण - (१) चारण ऋद्धिधारी मुनि । मपु० ९.९६ (२) मेरु के नन्दन वन की दक्षिण दिशा में स्थित एक भवन । हेपु० ५.३१५ धारणचरित धातकीखण्ड के विदेह क्षेत्र में स्थित गन्धन देश का Jain Education International चर्या - परीषह - चार एक मनोहर वन । यहाँ पिहितास्रव मुनि का विहार हुआ था । मपु० ६.१२६-१३१ चारणप्रिय - प्रमद वन के सात वनों में पाँचवाँ वन । यह वन पापापहारी है । इसमें चारणऋद्धिधारी मुनिराज स्वाध्याय-रत रहते हैं । पपु० ४६.१४१-१४३, १५० चारणयुगल - भरतक्षेत्र का एक नगर । यहाँ सुयोधन नाम का राजा राज्य करता था । मपु० ६७.२१३ चारणोतुं गकूट – सम्मेदगिरि का उत्तुंग शिखर । मपु० ६९.९० चारित्र-आत्मा के हित के लिए किया हुआ आचरण । यह दो प्रकार का होता है - सागार और अनागार । इसमें सागार चारित्र गेहियों के लिए होता है और अनागार चारित्र मुनियों के लिए। पपु० ३३.१२१, ९७.३८ अनागार चारित्र मोक्ष का साधन है। इसमें समताभाव आवश्यक है। यह जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक होता है तभी कार्यकारी है। इनके बिना यह कार्यकारी नहीं होता । इसके सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्ममापराय और यथाख्यातये पाँच भेद होते हैं। ईर्यादि पाँच समितियों मन-वचनकाय निरोध कृत त्रिगुप्तियों और क्षुधा आदि परीषहों को सहन करना इसकी भावनाएँ हैं । मपु० २१.९८, २४.११९-१२२, पु० २.१२९, ६४.१५-१९ चारित्रमोह - मोहनीय कर्म का एक भेद । जीव इसके उपशम, क्षय और क्षयोपशम से चारित्र प्राप्त करता है । जो चारित्र धारण नहीं कर पाते वे सम्यक्त्व के प्रभाव से देवायु का बन्ध करते हैं । जो जीव संयतासंयत अर्थात् देश चारित्र को धारण करते हैं वे सौधर्म से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के कल्पों में देव होते हैं । पु० ३.१४५-१४८ चारित्रभावना - पांच समितियों और तीन गुप्तियों का पालन करना तथा बाईस परीषहों को सहना । मपु० २१.९८ चारित्र शुद्धि - एक व्रत। इसमें तेरह प्रकार के चारित्र की शुद्धि के लिए निम्न प्रकार से उपवास करने की व्यवस्था है-अहिंसा महाव्रत१२६ उपवास, सत्य महाव्रत ७२ उपवास, अचौर्य महाव्रत ७२ उपवास, ब्रह्मचर्यं महाव्रत १८० उपवास, अपरिग्रह महाव्रत २१६ उपवास, रात्रिभोजन त्याग १० उपवास, गुप्ति महाव्रत २७ उपवास, समिति महाव्रत ५३१ उपवास, इस प्रकार इस व्रत में १२३४ उपवास और उतनी ही पारणाएं की जाती हैं । हपु० ३४.१००-१०९ चारित्राचार - तेरह प्रकार के चारित्र का पालन । यह ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पाँच आचारों में तीसरा आचार है । चारित्राचार में पाँच समितियों, पाँच महाव्रतों और तीन गुप्तियों का पालन आवश्यक होता है । मपु० २०.१७३, पापु० २३.५७ चारित्राराधना-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप — इन चतुविध आराध नाओं में तीसरी आराधना । इसमें पाप कर्मों से निवृत्ति और आत्मा के चैतन्य रूप में प्रवृत्ति होती है । पापु० १९.२६३-२६६ चारु - (१) एक देश । यहाँ के राजा को अनंगलवण और लवणांकुश ने पराजित किया था । पपु० १०१.८१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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