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________________ चन्दनपावप-चन्द्रचिह्न जैन पुराणकोश : १२१ सीता नदी के दक्षिणी तट पर बसे वत्स नामक देश में है। जीवन के के अन्त में इसे ही राज्य सौंपकर पद्मगुल्म विरक्त हो गया था। मपु० ५६.२-३, १५-१६ चन्दनपादप-राम का एक सिंहरथारोही सामन्त । यह रावण के विरुद्ध लड़ा था। पपु० ५८.९-११ चन्दनपुर-भरतक्षेत्र के दक्षिणी तट पर स्थित एक नगर । विद्याधर महेन्द्र यहाँ का राजा था। हपु०६०.८१ । चन्दनवन-एक नगर । अमोघदर्शन यहाँ का राजा था । हपु० २९.२४ चन्दना-बैशाली के राजा चेटक और उसकी रानी सुभद्रा की सातवीं पुत्री। इसे वनक्रीडा में आसक्त देखकर सुवर्णाभनगर का राजा मनोवेग विद्याधर हरकर ले गया था किन्तु अपनी स्त्री के भय से इसे महा अटवी में छोड़ गया । कालक नामक भील ने इसे भीलराज सिंह को दिया । कामासक्त सिंह ने अपनी माँ के समझाने पर इसे अपने मित्र मित्रवीर को दे दिया। मित्रवीर से कौशाम्बी के सेठ वृषभदत्त ने इसे ले लिया। सेठानी भद्रा ने सशंकित होकर इसे बहुत ताड़ना दी। मिट्टी के पात्र में कांजी मिश्रित कोदों का भात इसे भोजन में में दिया। केशराशि कटवाकर और बेड़ियाँ डालकर इसे एक कमरे में कैद भी कर दिया था। यह सब कुछ होने पर भी यह धर्म पर अडिग रही। दैव योग से महावीर आहार के लिए आये । इसने पड़गाह कर आहार में वही नीरस भोजन दिया किन्तु शील के प्रभाव से वह नीरस भोजन सरस हो गया । इसके बन्धन खुल गये । शरीर सर्वांग सुन्दर हो गया। पंचाश्चर्य होने पर सभी ने इसकी सराहना की। अन्त में महावीर से दीक्षा लेकर इसने तप किया। तप के प्रभाव से यह महावीर के संघ में गणिनी बनी। आयु के अन्त में यह स्त्रिलिंग छेदकर अच्युत स्वर्ग में देव हुई। मपु० ७४.३३८-३४७, ७५.३-७, ३५-७०, १७०, १७७, हपु० २.७०, वीवच० १.१-६, १३.८४-९८, तीसरे पूर्वभव में यह सोमिला नाम की एक ब्राह्मणी थी, दूसरे पूर्वभव में कनकलता नाम की राजपुत्री और पहले पूर्वभव में पद्मलता नाम की राजपुत्री हुई थी। मपु० ७५.७३, ८३, ९८ चन्द्र-(१) महाकान्तिधारी, आकाशचारी, दिन-रात का विभाजक एक ग्रह-चन्द्रमा । यह एक शीतलकिरणधारी ज्योतिष्क देव है। मपु० ३. ७०-७१, ८६,१२९, १३२, १५४, पपु० ३.८१-८४ (२) एक हृद-सरोवर । यह नील पर्वत से साढ़े पांच सौ योजन दूर नदी के मध्य में स्थित है। मपु० ६३.१९९, हपु० ५.१९४ (३) कुशास्त्रज्ञ, पंचाग्नि-तप कर्ता एक तापस । यह सोम तापस और उसकी पत्नी श्रीदत्ता का पुत्र था। इसने पंचाग्नि तप किया था। इसके फलस्वरूप यह मरकर ज्योतिर्लोक में देव हुआ। मपु० ६३.२६६-२६७ (४) आगामी तीसरे काल का प्रथम बलभद्र । मपु०७६.४८५, हपु० ६०.५६८ (५) रुचकगिरि का दक्षिण दिशावर्ती एक कूट । हपु० ५.७१० (६) एक देव । हपु० ६०.१०८ (७) अभिचन्द्र का कीर्तिमान् ज्येष्ठ पुत्र । हपु० ४८.५२ (८) राजा उग्रसेन का कनिष्ट पुत्र । हपु० ४८.३९ (९) सौधर्म युगल का तृतीय इन्द्रक पटल । हपु० ६.४४ दे० सौधर्म (१०) विद्याधर शशांकमुख का पुत्र और चन्द्रशेखर का पिता । पपु० ५.५० (११) जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के पद्मक नगर का एक धनिक । यह गणितज्ञ रम्भ का शिष्य था । इसने अपने मित्र आवलि को मारा था। मरकर यह बैल हुआ । पपु० ५.११४-११९ (१२) रावण का सिंहरथारोही एक सामन्त । पपु० ५७.४५-४८ (१३) लक्ष्मण के अढ़ाई सो पुत्रों में एक विख्यात पुत्र । पपु० ९४. २७-२८ (१४) दुर्योधन का एक सुशिक्षित सन्देशवाहक । यह द्रुपद को यह सन्देश देने के लिए गया था कि वह द्रौपदी का विवाह किसी क्षत्रिय राजा से ही करे। पापु० १५.११८-१२० चनाकवेष-चन्द्रक यन्त्र । राजा द्रुपद ने अपनी कन्या द्रौपदी के इच्छुक राजकुमारों को इसी यन्त्र के वेधनार्थ आमंत्रित किया था । अपरनाम राधावेध । हपु० ४५.१२४-१२७ चन्द्रकान्त अन्धकवृष्णि के दसवें पुत्र तथा कृष्ण के पिता वसुदेव का पुत्र । यह सोमदत्त की पुत्री से उत्पन्न हुआ था। हपु० ४८.६० चन्द्रकान्तशिला-चन्द्रकान्त मणि से निर्मित एक शिला । समवसरण में लतावन के मध्य इन्द्रों के विश्राम के लिए ऐसी शिलाओं की रचना की जाती है । मपु० ६.११५, २२.१२७, ६३.२३६ तीर्थकर वर्द्धमान निष्क्रमण काल में शिविका से उतरकर इसी शिला पर बैठे थे और और वहीं उन्होंने जिनदीक्षा ली थी। ये शिलाएँ रात्रि में चन्द्रमा की किरणों का संस्पर्श पाकर द्रवीभूत होने लगती है । हपु० २.७, ७. ७५, वीवच० १२.८६-१०० चन्द्रकान्ता-(१) शूरसेन की भार्या । यह मथुरा निवासी सेठ भानु की पुत्रवधू थी । हपु० ३३.९६-९९ (२) लक्ष्मण को भार्या । पपु० ८३.९२-१०० चन्द्रकीति-(१) वज्रदन्त चक्रवर्ती के पांचवें पूर्वभव का जीव। यह अर्धचक्री का पुत्र और जयकीर्ति का मित्र था । मपु०७.७-८ (२) चम्पापुर का राजा। यह निःसंतान मरा था। मपु०७०. चन्द्रकुण्डल-नभस्तिलक नगर का राजा। इसकी पत्नी विमला से मार्तण्डकुण्डल उत्पन्न हुआ था। पपु० ६.३८४-३८५ चन्द्रगति-सीता के भाई भामण्डल का पुत्रवत् पालनकर्ता एकविद्याधर । यह चाहता था कि जनक की पुत्री सीता के साथ भामण्डल का विवाह हो जाय । पर ऐसा नहीं हो सका। जब इसे पता लगा कि सीता तो भामण्डल की बहिन है इसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और भामण्डल को अपना राज्य सौंपकर यह सर्वहित आचार्य के पास दीक्षित हो गया। पपु० २६.१३०-१३९, ३०.७-६३ चन्द्रचिह्न-कुरुवंशी राजा शान्तिचन्द्र का उत्तरवर्ती एक नृप । पापु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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