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________________ कुलंधर-कुश जैन पुराणकोश : ९३ पश्चात पूजा करने, दान आदि देने तथा अपने कुल के अनुसार असि, मसि आदि छः कर्मों में से किसी एक के द्वारा आजीविका करने को कुलचर्या कहते हैं । इसे कुल भी कहा गया है। मपु० ३८.५५-६३, १४२-१४३, ३९.७२ कुलंघर-(१) रजोवलो नगरी का निवासी एक कुलपुत्रक । इसी नगरी का निवासी पुष्पभुति इसका मित्र था। कारणवशात् इनमें शत्रुता उत्पन्न हो गयी, फलतः यह पुष्पभूति को मारना चाहता था, किन्तु मुनि से धर्मोपदेश सुनकर शान्त हो गया था। राजा ने परीक्षा लेकर इसे मण्डलेश्वर बना दिया था। पुष्पभूति भी इसके वैभव को देखकर श्रावक हो गया और मरकर तीसरे स्वर्ग में देव हुआ। यह भी मरकर इसी स्वर्ग में गया । पपु० ५.१२४-१२८ । (२) मथुरा नगरी का निवासी एक ब्राह्मण । यह रूपवान् तो था किन्तु शीलवान् न था । एक बार राजा के न रहने पर इसे देखकर कामासक्त हुई उसकी रानी ने सखी के द्वारा इसे अपने निकट बुलाया। यह रानी के पास आसन पर बैठा ही था कि राजा वहाँ आ गया और उसकी कुचेष्टा को देखकर रानी के बहुत कहने पर भी उसने इसे नहीं छोड़ा। राज-सेवक इसे निग्रहार्थ नगर के बाहर ले जा रहे थे कि इसने किसी साधु को देखकर नमन किया और निर्ग्रन्थ गाधु बनने की स्वीकृति भी साधु को दी। साधु की प्रेरणा से इसे छोड़ दिया गया और यह भी बन्धनों से मुक्त होते ही श्रमण हो गया । इसने कठिन तपश्चर्या की और मरने पर यह सौधर्म स्वर्ग के ऋतु विमान का स्वामी हुआ । पपु० ९१.१०-१८ कुलधर-(१) तृतीय काल के अन्त में और कर्म भूमि के प्रारम्भ में हुए युगादिपुरुष अनेक वंशों के संस्थापक होने से ये इस नाम से प्रसिद्ध हुए । मपु० ३.२१२, १२.४ दे० कुलकर (२) वृषभदेव का एक नाम । मपु० १६.२६६ कलपत्र-वंश-परम्परा आदि के उत्कीणित उल्लेखों से युक्त ताम्रपत्र तथा अन्य अभिलेख । मपु० २.९९ कुलपर्वत-जम्बूद्वीप में स्थित सात क्षेत्रों के विभाजक कुलाचल। ये कुलाचल पूर्व से पश्चिम तक फैले हुए हैं और संख्या में छः है । इनके नाम हैं-हिमवन्, महाहिमवन् निषध, नील, रुक्मिन् और शिखरिन् । महापुराण में महामेरु (मन्दिर) को जोड़कर सात कुलाचल बताये हैं। मपु० ६३.१९३, पपु० ३.३२-३७, १०५.१५७-१५८ कलपुत्र-भावी चौबीस तीर्थकरों में सातवें तीर्थंकर । मपु० ७६.४७८ कुलभूषण---तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासनकाल में उत्पन्न सिद्धार्थनगर के राजा क्षेमंकर और उसकी महादेवी विमला का द्वितीय पुत्र तथा देशभूषण का अनुज । ये दोनों भाई विद्या प्राप्त करने में इतने दत्तचित्त रहते थे कि परिवार के लोगों का भी इनको पता नहीं था। एक दिन इन्होंने एक झरोखे से देखती एक कन्या देखी। कामासक्त होकर दोनों उसकी प्राप्ति के लिए एक-दूसरे को मारने को तैयार हुए ही थे कि बन्दीजनों से उन्हें ज्ञात हुआ कि जिसके लिए वे दोनों लड़ रहे है वह उनकी ही बहिन है। यह जानकर अपने भाई सहित यह विरक्त हो गया। दोनों भाइयों ने दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली तथा आकाश-गामिनी ऋद्धि प्राप्त कर अनेक तीर्थ क्षेत्रों में इन्होंने विहार किया। पपु० ३९.१५८-१७५ तप करते हुए इन्हें सर्प और बिच्छुओं ने घेर लिया था। राम और लक्ष्मण ने सर्प आदि को हटाकर इनकी पूजा की थी। अग्निप्रभ देव के द्वारा उपसर्ग किये जाने पर राम और लक्ष्मण ने ही इनके इस उपसर्ग का निवारण किया था। दोनों को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई । पपु० ३९.३९-४५, ७३-७५, ६१.१६-१७ कुलवर्धन-मथुरा के राजा मधु का पुत्र । यह पुरुषार्थी और पराक्रमी था। इसने अनेक स्थानों पर विजय प्राप्त की थी। हपु० ४३.२०० २०४ कुलवाणिज-नन्दिग्राम का निवासी । उज्जयिनी नगरी के सेठ धनदेव और सेठानी धनमित्रा से उत्पन्न नागदत्त ने अपनी बहिन अर्थस्वामिनी का विवाह इससे किया था। यह नागदत्त के मामा का पुत्र था। मपु० ७५.९५-९७, १०५ कुलवान्ता-शिखापद नगर की एक स्त्री । यह अत्यन्त कुरूप और दरिद्र थी। समाज में उसका बड़ा तिरस्कार होता । मरने से एक मुहूर्त पूर्व उसके शुभमति का उदय हुआ । उसने अनशन व्रत लिया। मरकर वह स्वर्ग में क्षीरधारा नाम की एक किन्नर देवी हुई। वहाँ से च्युत होकर यह पुरुष पर्याय में आयी और इसका नाम सहस्रभाग हुआ। पपु० १३.५५-६० कुलविद्या-पितृ-पक्ष और मातृ पक्ष से प्राप्त होनेवाली विद्या । विद्याधरों की विद्याएँ दो प्रकार की होती हैं-पितृपक्ष और मातृपक्ष से प्राप्त होनेवाली विद्याएँ तथा तपस्या से प्राप्त विद्याएँ। मपु० १९.१३ कुलानुपालन-क्षत्रियों के कुलानुपालन, बुद्धिपालन, निज रक्षा, प्रजारक्षा, और समंजसपना इन पाँच धर्मों में प्रथम धर्म । इसमें कुल के आम्नाय और कुलोचित आचरण की रक्षा की जाती है । मपु० ४२.४-५ कुलाल-कुम्भकार । प्राचीन भारत में इसे समाज का अत्यन्त उपयोगी अंग माना जाता था। मपु० ३.४ कुलावधिक्रिया-उपासकाध्ययन सूत्र में कहे गये द्विजों के दस अधिकारों में दूसरा अधिकार-अपने कुल के आचार की रक्षा करना । इस क्रिया के न होने से द्विज का कुल बदल जाता है। मपु० ४०.१७४-१७५, १८१ कुलिंगी-कुशास्त्रों से प्रभावित व्यक्ति । यह कलुषित क्रियावान्, दम्भी, अनेक मिथ्या क्रियाओं में विश्वास करनेवाला और मृगचर्म आदि का सेवन करनेवाला होता है । मपु० ३९.२८, पपु० ११९.५८-६० कुलित्थ-इस नाम का एक धान्य । मपु० ३.१८८ कुलिश-वज्रायुध । यह सैन्य शस्त्र है । हपु० ३८.२२ कुवली ---बदरी-फल (बेर) । मपु० ३.३० कविन्द-जुलाहा। प्राचीन भारत में इसका बड़ा महत्व था। मपु० ४.२६ कुश-(१) आर्यखण्ड के मध्य भाग का एक देश । हपु० ११.७५ (२) राम के पुत्र मदनांकुश का संक्षिप्त और प्रचलित नाम । पपु. १००.२१ Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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