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________________ प्रस्तावनाका हिन्दीसार आधार है कि प्रमेयकमलमार्तण्डके टिप्पणका सन्धिवाक्य मूल ग्रन्थके साथ मिल गया है । अतः उसके सम्बन्धमें बहुत सावधानी बरतनेकी आवश्यकता है। दूसरे, एक ही कालमें एक ही नामके कुछ अनेक ग्रन्थकार होनेकी भी सम्भावना है । तीसरे, जो इस कथाकोशकी संस्कृत गद्यको पढ़ेगा, वह विश्वास नहीं कर सकता कि इसी ग्रन्थाकारने न्यायशास्त्रके महान ग्रन्थजिनकी शैली बड़ी प्रखर प्रांजल है, रचे होंगे । इस कथाकोशकी संस्कृत गद्यमें जो अनेक विशेषताएँ तथा दोष हैं दोनों न्यायग्रन्थोंमें उनका अभाव है। यदि इस कथाकोशकी कुछ प्रतियाँ और भी उपलब्ध हों तो प्रभाचन्द्र के सम्बन्धमें अन्तिम रूपसे कुछ और भी विवरण दिया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016058
Book TitleKathakosha
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorA N Upadhye
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages216
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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