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________________ २-५, १३] २. एचनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५ तत्पुत्रौ सिंहग्रीव-वराहग्रोवौ सविमानौ तं वन्दितुमागतौ । वन्दित्वोपवेशने क्रियमाणे यतिनोक्तं चारुदत्तस्य इच्छाकारं कुरुतमिति । कृते तस्मिन् कोऽयमिति पृष्ट कथितस्वरूपो मुनिः। अस्मिन् प्रस्तावे द्वो कल्पवासिनौ चारुदत्तं प्रणतावनन्तरं मुनिम् । सिंहग्रीवेण गृहस्थस्य प्रथमं नमस्कारकरणं' किमिति पृष्टे तत्र छागचरदेव आह-वाराणस्यां विप्रसोमशर्मसोमिलयोरपत्ये भद्रा सुलसा च शास्त्रमदगर्विते कुमावेव परिव्राजके बभूवतुः । तत्प्रसिद्धिमाकण्य याज्ञवल्क्यनामा भौतिको वादार्थो वाराणसी गतः । वादे जितया सुलसया सह सुखेन स्थितः । पुत्रप्रसूत्यनन्तरमेव पिप्पलतरोरधो निक्षिप्य गतौ मातापितरौ। भद्रया स बालः पिप्पलादनामा वर्धितः पाठितश्च । तेनैकदा भद्रा । किमिति ममेदं नामेति । तया स्वरूपे निरूपिते स तत्र गत्वा पितरं वादे जित्वा स्वरूपं निरूपितवान् । तदाहं पिप्पलादशिष्यो वाग्वलिः नाम गुरूक्तशास्त्रेसमर्थनार्थ वादे रौद्रध्याने सति नरकं गतः। ततोऽजो जातः षड्वारान् यज्ञ एव हुतः। सप्तमे वारे टक्कदेशेऽजो जातश्चारुदत्त दत्त पञ्चनमस्कारफलेनाहं सौधर्मे जातः । इतरोऽप्यतत्पश्चात् जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकारसे मुनिराजने चारुदत्तको अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाया । इस बीचमें वहाँ उनके सिंहग्रीव और वराहग्रीव नामके दो पुत्र विमानसे मुनिराजकी वंदना करनेके लिए आये। वंदना करनेके पश्चात् वे बैठ ही रहे थे कि मुनिराजने उनसे चारुदत्तको इच्छाकार करने के लिए कहा । तब इच्छाकार करनेके पश्चात् उन्होंने मुनिराजसे पूछा कि ये कौन हैं ? इसपर मुनिराजने पूर्व वृत्तान्तको सुनाकर चारुदत्तका परिचय कराया। इस प्रस्तावमें दो स्वर्गवासी देवोंने आकर पहिले चारुदत्तको और तत्पश्चात् मुनिराजको नमस्कार किया। इस विपरीत क्रमको देखकर सिंहग्रीवने उनसे मुनिके पूर्व गृहस्थको नमस्कार करनेका कारण पूछा । उत्तरमें भूतपूर्व बकरेका जीव, जो देव हुआ था, इस प्रकारसे बोलावाराणसी नगरीमें ब्राह्मण सोमशर्मा और सोमिलाके भद्रा और सुलसा नामकी दो कन्यायें थीं। उन्हें अपने शास्त्रज्ञानका बहुत अभिमान था। उन दोनोंने कुमार अवस्थामें ही संन्यास ले लिया था। उनकी कीर्तिको सुनकर याज्ञवल्क्य नामका तापस उनसे विवाद करनेकी इच्छासे वाराणसी पहुँचा। उसने शास्त्रार्थमें सुलसाको जीत लिया। तब वह उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ समय के पश्चात् जब उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ तब वे दोनों उसे पीपलके वृक्षके नीचे रखकर चले गये । तब भद्राने उस पुत्रको पिप्पलाद नाम रखकर वृद्धिंगत किया और पढ़ाया भी। एक दिन बालकने भद्रासे अपने पिप्पलाद नामके सम्बन्धमें पूछा। तब भद्राने उसे पूर्व वृत्तान्त सुना दिया । उसे सुनकर वह वहाँ गया। उसने अपने पिताको वादमें जीतकर उससे अपना वृत्तान्त कह सुनाया। उस समय मैं उस पिप्पलादका वाम्बली नामका शिप्य था। मैं शास्त्रार्थमें गुरुके कहे हुए शास्त्रोंका समर्थन किया करता था। इस प्रकार रौद्रध्यानसे मरकर मैं नरकमें पहुँचा । फिर वहाँसे निकलकर मैं छह बार बकरा हुआ और यज्ञमें ही मारा गया । सातवीं बार मैं टक्क देशमें बकरा हुआ और चारुदत्तके द्वारा दिये गये पञ्चनमस्कारमन्त्रके प्रभावसे फिर सौधर्म स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ हूँ। १. प श कारणं । २. ब वाढलि: गुरुकुशास्त्र । Jain Education Interional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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