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________________ ७२ पुण्यात्रवकथाकोशम् [२-५, १३ : व्याघुटयते चेन्मम पतनं 'युष्माभिश्चेद् युष्माकम् , किं क्रियते ।ऊचुस्ते वयं विगतपुण्या मृताश्चेत् किम्, त्वं चिरजीवी भवेति । स बभाण- अहमेको मृतश्चेत् किम् , यूयं गच्छतेति पदाङ्गुलीभूमौ प्रस्थाप्य शक्तिं कृत्वा छागोऽवाङ्मुखः कृतः । तं चटित्वा भूधरमारुह्य छागान् बन्धयित्वा तरुतले चारुदत्तः सुप्त्वा यावदुत्तिष्ठति तावद्वद्रदत्तेन षट छागा मारिताः । चारुदत्तस्य छागं मारयन् रुद्रदत्तः चारुदत्तेन निन्दितः । तस्मै पञ्चनमस्कारा दत्ताः । सर्वे भस्त्रिकाप्रवेशं कृत्वा यावत्तिष्ठन्ति तावद् भेरुण्डास्तान् गृहीत्वा गताः । चारुदत्तं गृहीत्वा गतभेरुण्ड एकाक्षः अन्यैः कदर्थितः समुद्रमध्ये भस्त्रिका निक्षिप्य तान् भेरुण्डान् पलाययित्वा पुनर्गृहीतवान् । एवं चतुर्थे वारे रत्नद्वीपस्थरत्नपर्वतचूलिकायां व्यवस्थाप्य भतयितमद्यमं यावत्करोति तावन्निर्गतश्चारुदत्तः। अन्ये अन्यत्र नीताः। चारुदत्तेन भ्रमता गुहास्थो मुनिरालोक्य वन्दितः। धर्मवृद्धयनन्तरं मुनिरुवाच-कुशलोऽसिं चारुदत्त । तदा तेन साश्चर्येण भणितम्-क्व भगवता दृष्टोऽहम् । सोऽहममितगतिवियच्चरो भायों मोचयित्वा बहुकालं राज्यानन्तरं दोक्षितवान् इति स्वरूपं निवेदितं तेन । अत्रान्तरे इस समय यदि मैं वापिस होता हूँ तो मेरा पतन निश्चित है और यदि आप लोग वापिस होते हैं तो आपका पतन निश्चित है। अब क्या किया जाय ? तब उन लोगोंने चारुदत्तसे कहा कि हम लोग पुण्यहीन हैं, अत एव यदि हम मर जाते हैं तो हानि नहीं है। किन्तु तुम पुण्यात्मा हो । अतः तुम चिरजीवी होओ। यह सुनकर चारुदत्त बोला कि मेरे एकके मरनेसे कितनी हानि हो सकती है ? कुछ भी नहीं । अत एव आप लोग आगे जावं । यह कहकर चारुदत्तने पाँवकी अँगुलियोंको भूमिमें स्थिर स्थापित करके बलपूर्वक अपने बकरेको लौटाया । फिर उसके ऊपर चढ़कर वह पर्वतके ऊपर पहुँच गया। पश्चात् रुद्रदत्त आदि भी उस पर्वतके ऊपर पहुँच गये । उन सबने बकरोंको वहींपर बाँध दिया। उस समय चारुदत्त वहाँ एक वृक्ष के नीचे सो गया। इस बीच में रुद्रदत्तने छह बकरोंको मार डाला। तत्पश्चात् वह चारुदत्तके बकरेको मार ही रहा था कि इतनेमें चारुदत्त जाग उठा । उसने इस दृश्यको देखकर रुद्रदत्तकी बहुत निन्दा की। पश्चात् उसने उसे पंचनमस्कारमन्त्र दिया। फिर वे सब मसकोंके भीतर प्रविष्ट होकर स्थित हो गये। इतनेमें भेरुण्ड पक्षी आये और उन मसकोंको लेकर उड़ गये। चारुदत्तको लेकर जो भेरुण्ड पक्षी उड़ा था वह एकाक्ष ( काना ) था । अन्य पक्षियोंके द्वारा पीड़ा पहुँचानेपर उसकी चोंचसे चारुदत्तकी भस्त्रा समुद्र में जा गिरी। तब उसने अन्य पक्षियोंको भगाकर उसको फिरसे उठा लिया। इस क्रमसे वह चौथी वारमें उसे लेकर रत्नद्वीपके भीतर स्थित रत्नपर्वतके शिखरपर पहुँच गया। जैसे ही वह उसे वहाँ रखकर खानेके लिए उद्यत हुआ वैसे ही चारुदत्त उसे फाड़कर बाहिर निकल आया। अन्य पक्षी उन भस्त्राओंको दूसरे स्थानमें ले गये । चारुदत्तने घूमते हुए एक गुफामें विराजमान मुनिराजको देखकर उनकी बंदना की। धर्मवृद्धि देनेके पश्चात् मुनिराज बोले कि हे चारुदत्त, कुशल तो है। इससे चारुदत्तको आश्चर्य हुआ। उसने मुनिराजसे पूछा कि भगवन् ! आपने मुझे कहाँ देखा है ? उत्तरमें मुनिराज बोले कि मैं वही अमितगति विद्याधर हूँ जिसको तुमने छुड़ाया था। उस समय मैंने धूमसिंहसे अपनी पत्नीको छुड़ाकर बहुत समय तक राज्य किया। १. ब श पत्तनं । २. फ ब गच्छंत्विति । ३. प ब श पदांगुली भूमौ । ४. फ चटित्वा भूधरमारुह्यागताः । छागान् । ब चटित्वा गत्वा भूधरमारुह्य छागं । ५. ब कुशल्यसि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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