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________________ ६३ : २- १,१० ] २. पश्वनमस्कारमन्त्रफलम् २ पिते तेनात्मसमः कृतः । स वृषभध्वजः उभयगतिसुखमनुभूय सुग्रीवोऽभूत्, पद्मरुचिः परं-परया राम आसीत् इति पशुरपि तत्प्रभावेनैवंविधोऽभवदन्यः किं न स्यात् ॥ १ ॥ [ १० ] कपिश्च संमेदगिरौ स चारणैविबोधितः पञ्चपदैर्द्विलोकजम् । सुखं स भुक्त्वा भवति स्म केवली ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ||२|| अस्य कथा - - अत्रैव भरते सौरीपुरे राजान्धकवृष्टिः । तत्पुरबाह्यस्थगन्धमादननगे ध्यानस्थस्य सुप्रतिष्ठितमुनेः सुदर्शनाभिधो देवो दुर्धरोपसर्गमकरोत्तदा स मुनिरभवत्केवली । अन्धकवृष्टिस्तं पूजयित्वाभिवन्द्य पृच्छति स्म भवदुपसर्गस्य किं कारणमिति । स आहसर्वज्ञः । तथाहि— जम्बूद्वीपभरते कलिङ्गदेशनिवासिकाञ्चीपुरे वैश्यों सुदत्तसूरदत्तौ वाणिज्येन बहु द्रव्यं समुपाज्यं स्वपुरप्रवेशे क्रियमाणे शौल्किकभयाद् बहिरेकोभाभ्यां द्रव्यं भूमिक्षिप्तं पूर्णम् । केनचिद् दृष्टोत्खन्य गृहीतम् । तन्निमित्तं परस्परं युद्ध्वा मृतौ प्रथमनर के जाती । ततो मेषौ बभूवतुः, तथैव युद्ध्वा मृतौ । गङ्गातटे वृषभौ भूत्वा तथैव मृतौ । संमेदे मर्कटौ । अपने समान कर लिया । वह भूतपूर्व बैलका जीव वृषभध्वज दोनों गतियों (मनुष्य और ईशानकल्पवासी देव ) के सुखको भोगकर सुग्रीव हुआ है और पद्मरुचि सेठ परम्परासे राम हुआ है । इस प्रकार जब उस मंत्र के प्रभावसे पशु भी ऐसी उत्तम अवस्थाको प्राप्त हुआ है तब अन्य मनुष्यों के विषय में क्या कहा जाय ? वे तो उत्तम सुखको भोगेंगे ही ॥ २ ॥ सम्मेद पर्वतके ऊपर चारण ऋषियोंके द्वारा प्रबोधको प्राप्त हुआ वह बन्दर चूँकि पंचनमस्कार मंत्र के प्रभाव से दोनों लोकोंके सुखको भोगकर केवली हुआ है, अतएव हम उस पंचनमस्कार मंत्रमें अधिष्ठित होते हैं ॥२॥ इसी भरत क्षेत्र के भीतर सौरीपुरमें राजा अन्धकवृष्टि राज्य करता था । एक समय इस नगरके बाहिर गन्धमादन पर्वतके ऊपर सुप्रतिष्ठित मुनि ध्यानमें स्थित थे । उनके ऊपर किसी सुदर्शन नामक देवने घोर उपसर्ग किया । इस भीषण उपसर्गको जीतकर उक्त मुनिराजने केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया । यह जानकर अन्धकवृष्टिने वहाँ जाकर उनकी पूजा और वन्दना की । तत्पश्चात् उसने उनके ऊपर किये गये इस उपसर्गके कारणको पूछा केवली बोले- जम्बूद्वीप । । सम्बन्धी भरत क्षेत्र के भीतर कलिंग देशमें एक कांचीपुर नगर उसमें सुदत्त और सूरदत्त नामके दो सेठ रहते थे । उन्होंने बाहिर जाकर व्यापार में बहुत-सा धन कमाया। जब वे वापिस आये और अपने नगर में प्रवेश करने लगे तब उन दोनोंने कर ( टैक्स ) ग्राहक अधिकारीके भयसे उस सब धनको एक स्थानमें भूमिके भीतर गाड़ दिया । उक्त धनको गाड़ते हुए उन्हें किसीने देख लिया था । सो उसने भूमिको खोदकर उस सब धनको निकाल लिया। तत्पश्चात् जब वह धन उन्हें वहाँ नहीं मिला तब वे एक-दूसरे के ऊपर सन्देह करके उसके निमित्तसे लड़ मरे । इस प्रकार मरकर वे प्रथम नरकमें नारकी उत्पन्न हुए। वहाँ से निकलकर वे मेंढ़ा हुए और उसी प्रकार परस्परमें लड़कर मरणको प्राप्त हुए। फिर वे गंगा नदीके किनारेपर बैल हुए और पूर्वके १. फ सुचारणविबोधितः । २. फ शुल्क । ३. फ ब म्यां पूर्ण कलसं निक्षिपंती केन चिदृष्ट्वोऽन्यगृहीतं, "म्यां पूर्णकलसं निक्षिपंतौ केनचिद्दृष्ट्वोखन्य । ब For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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