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________________ पुण्यास्रवकथाकोशम् [२-१ः अस्य कथा- अत्रैव भरतेऽयोध्यायां राजानौ राम-लक्ष्मीधरौ स्वपुरबहिःस्थितमहेन्द्रोद्यानवासिनः सकलभूषणकेवलिनो वन्दितुमीयतुः समय॑ वन्दित्वोपविविशतुः । धर्मश्रुतेरनन्तरं विभीषणोऽप्राक्षीत् केन पुण्यफलेन सहस्राक्षौहिणीबलाधीशो रामप्रियः सुग्रीवोsजनीति । आह देवः- अत्रैव भरते श्रेष्ठपुरे राजा छत्रच्छायो देवी श्रीदत्ता, श्रेष्ठी पद्मरुचिरधिगमसदृष्टिश्चत्यालयाद् गृहमागच्छन् मार्ग युवा पतितं वृषभमद्राक्षीत् । तस्मै पञ्चनमस्कारान् ददौ । तत्फलेन छत्रच्छाय-श्रीदत्तयोर्नन्दनो वृषभध्वजनामा व्यजनिष्ट राज्येऽस्थात् । एकदा गजारूढो नगरे लीलया परिभ्रमन् वृषभपतनस्थानमपश्यन्मूछितो जातिस्मरो भूत्वा तूष्णों स्वभवनमियाय, तत्पुरुषपरिज्ञानार्थ अतिविचित्रं जिनभवनमकार्षीत् तत्रैकदेशे पतितवृषभरूपं पञ्चनमस्कारकथकरूपसहितं च। तत्रैकं विचक्षणपुरुषमस्थापयत् ‘य इमं विस्मितोऽवलोकयति' स मत्सकाशे आनेतव्यः' इति । तथावलोकितं पद्मचिं तदन्तिक' संनिनाय । राजा तमपृच्छत् किमिति तं वृषभं विलोक्य विस्मितोऽसि । स आह-मया पतितवृषभस्य पञ्चनमस्कारा दत्ताः। स क्वोत्पन्न इति तद्दर्शनात्तं स्मृत्वावलोकितवानहमिति निरू इसकी कथा- इसी भरत क्षेत्रके भीतर अयोध्या पुरीमें राजा राम और लक्ष्मण राज्य करते थे। एक समय वहाँ सकलभूषण केवली आकर नगरके बाहिर महेन्द्र उद्यानमें स्थित हुए । राम और लक्ष्मण उनकी वन्दनाके लिए गये । ज्होंने उनकी पूजा व वन्दना करके धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् विभीषणने पूछा कि हे भगवन् ! हजार अक्षौहिणी प्रमाण सेनाका स्वामी सुग्रीव किस पुण्यके फलसे रामका स्नेहभाजन हुआ है। केवली बोले--- इसी भरत क्षेत्रके भीतर श्रेष्ठपुर नामक नगरमें छत्रछाय नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम श्रीदत्ता था। वहाँ एक पदमरुचि नामका सेठ रहता था । वह अधिगमसम्यग्दृष्टि था। एक दिन उसे चैत्यालयसे घर वापिस आते हुए मार्गमें एक बैल दिखा । वह किसी अन्य बैलसे लड़ते हुए गिरकर मरणोन्मुख हुआ था। सेठने उसे इस अवस्थामें देखकर पंचनमस्कारमंत्र दिया। उसके फलसे वह राजा छत्रछाय और रानी श्रीदत्ताके वृषभध्वज नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। समयानुसार वह राजपदपर प्रतिष्ठित हुआ। एक समय वह हाथीके ऊपर चढ़कर नगरमें घूमते हुए उस स्थानपर पहुँचा जहाँ कि पूर्वोक्त बैल गिरकर मरणको प्राप्त हुआ था । उस स्थानको देखते ही उसे जातिस्मरण हो जानेसे मूर्छा आ गई। सचेत होनेपर वह चुपचाप अपने भवनमें पहुँचा। उसने उक्त वैलको पंचनमस्कार मंत्र देनेवाले पुरुषको ज्ञात करनेके लिए वहाँ एक अनुपम जिनभवन बननाया। इसके भीतर एक स्थानमें उसने पंचनमस्कार मन्त्रको देते हुए पुरुषके साथ उस बैलकी मूर्ति बनवाकर वहाँ एक विद्वान् पुरुषको नियुक्त कर दिया । उसे उसने यह जतला दिया कि जो पुरुष इस मूर्तिको आश्चर्यके साथ देखे उसे मेरे पास ले आना । तदनुसार वह पद्मरुचिको देखकर उसे राजाके पास ले गया। राजाने उससे पूछा कि उस बैलको देखकर आपको आश्चर्य क्यों हो रहा था । सेठने कहा कि मैंने एक गिरे हुए बैलको पंचनमस्कार मंत्र दिया था। न जाने वह कहाँ उत्पन्न हुआ है। इसको देखनेसे मुझे उसका स्मरण हो आया है। इसीलिए मैं उसे आश्चर्यके साथ देख रहा था। इस प्रकार सेठके कहनेपर उसे वृषभध्वजने १.फ विस्मितो विलोकयति । २.फ पदमरुचिस्तदन्तिक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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