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________________ goraवकथाकोशम् [ १-८ : पञ्चशतसहस्रभटाः प्रकटीभूतास्तैः श्वशुरदत्तभृत्यैश्च' कतिपयदिनै राजगृहमवाप । तदागमनं परिज्ञाय चिलातीपुत्रो नष्ट्वा दुर्गमाश्रितः । श्रेणिको राजाजनि । राज्ये स्थिरे जाते नन्दिग्रामग्रहणार्थे भृत्यान् प्रेषितवान् यदा तदा प्रधानैः किमित्युक्ते स एकग्रामो मया विनाश्यते । तस्योपरि वैरमस्तीति । तर्हि दोषं व्यवस्थाप्य विनाशनीय इति तैरुक्तस्तत्र मेषः प्रस्थापितोऽस्य यथेष्टं ग्रासो दातव्यः, कृशः पुष्टश्च भवति चेद्युष्मान् विनाशयामीति । तदागमनेन ब्राह्मणा दुःखिता जातास्तदैवेन्द्रदत्तः सपरिवारस्तत्र प्राप्तः । तद्वृत्तान्तं विज्ञायाभयकुमारेण समुद्धीरिताः । व्याघ्रद्वयमध्ये बद्धो यदि पुष्टो भवति तौ समीपे क्रियेते, यदि कृशस्तदा दूरं विधीयेते इति तन्मान एव कतिपयदिनैस्तस्य दर्शितः । ततोऽभयकुमारस्य पादयोर्लग्नाः विप्राः, यावदस्माकं शान्तिर्भवति तावत्त्वयात्र स्थातव्यमिति । प्रतिपन्नं तेन । अन्यदा विप्राणामादेशो दत्तः कर्पूरवापिका आनेतव्येति । अभयकुमारोपदेशेन तत्समीपवर्तिनः कस्यचिदुक्तचोदन्तो राज्ञो निद्रावसरः कथनीय इति । ग्रामे यावन्तो बलीवर्दा महिषाश्च तेषां युगकन्धराणां मालां कृत्वा राजगृहाद् बहिः स्थिताः । तन्निद्रावसरे तूर्यादि निनादैरन्तः प्रविष्टा देव, ३६ इस प्रकार ससुर से कहकर जब राजगृह जानेके लिए उत्सुक हुआ तब वे गुप्त पाँच लाख सुभट प्रगट हो गये । इस प्रकार वह इन सुभटों और ससुर के द्वारा दिये गये सेवकों के साथ कुछ दिनों में राजगृह नगर में जा पहुँचा। उसके आगमनको जानकर चिलातीपुत्र भागकर दुर्गके आश्रित हुआ । तब श्रेणिक राजा हो गया । राज्यके स्थिर हो जानेपर जब श्रेणिकने नन्दिग्रामको ग्रहण करने के लिए सेवकोंको भेजा तब मन्त्रियों के पूछनेपर उसने कहा कि उस एक गाँवको मुझे नष्ट करना है, उसके ऊपर मेरी शत्रुता है । इसपर मन्त्रियोंने कहा कि जब उसे नष्ट ही करना है तो कुछ दोषारोपण करके नष्ट करना चाहिए । तब श्रेणिकने वहाँ एक मेढ़ेको भेजकर यह सूचना करायी कि इसे इसकी रुचि के अनुसार घास दिया जाय । परन्तु यदि वह दुर्बल अथवा पुष्ट हुआ तो मैं आप trist नष्ट कर दूँगा । इस प्रकार की राजाज्ञाको पाकर नन्दिग्रामके ब्राह्मण दुःखी हुए। इसी समय वहाँ परिवार के साथ इन्द्रदत्त आ पहुँचा । उपर्युक्त राजाज्ञाके वृत्तान्तको जानकर अभयकुमारने उन ब्राह्मणों को धैर्य दिलाया, उसने उक्त मेढ़ेको दो व्याघ्रोंके बीच में बाँध दिया । यदि वह पुष्ट होता दिखता तो उन व्याघ्रोंको उसके कुछ समीप कर दिया जाता था और यदि वह दुर्बल होता दिखता तो उक्त व्याघ्रोंको कुछ दूर कर दिया जाता था। इस प्रकार कुछ दिनों तक उसके शरीरका प्रमाण उतना ही दिखलाया गया । इससे वे ब्राह्मण अभयकुमारके चरणोंमें गिर गये । उन सबने अभयकुमारसे प्रार्थना की कि जब तक हम लोगोंका उपद्रव दूर नहीं होता है तब तक आप यहीं रहें । अभयकुमार ने इसे स्वीकार कर लिया। दूसरी बार राजाने ब्राह्मणों को कर्पूरवापीके लाने की आज्ञा दी । तब अभयकुमारके उपदेशसे राजाके समीपवर्ती किसी मनुष्यसे यह वृत्तान्त कहकर उससे श्रेणिकके सोनेके समयको बतला देनेके लिए कहा । गाँवमें जितने बैल और भैंसा थे उनकी युगग्रीवाओंकी माला बनाकर वे ब्राह्मण वहाँ गये और राजप्रासाद के बाहिर स्थित गये । पश्चात् वे राजाके सोनेके समयमें वादित्रोंके शब्दों के साथ राजप्रासादके भीतर प्रविष्ट १. कतैः स्वसुरेंद्रदत्त व ते स्वसुरदत्त पशतैः श्वसुरदत्तं । २. फ परिज्ञात्वा । ३. प पुत्र दृष्ट्वा दुर्ग व पुत्रो नष्टादुग्रं श पुत्रस्तं दृष्ट्वा दुर्गं । ४. प तैरुक्तौ फ तैरुक्तैः ब तैरुक्त श तैरुक्तो । ५. प चोदत्तो ब चौदत्तो । ६. प तुर्यादि श भूर्यादि । ७. पश रंतरं प्रविष्टा । ८. श देहेव । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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