SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यात्रवकथाकोशम् [१-६ : विद्याच्छेदः कृतः। तदनु मया सा प्रणम्योपशान्ति नीता। ततो हे स्वामिनि, मम विद्याप्रसादं कुर्वित्युक्ते तयोक्तं- हस्तिनागपुरे पितृवने यं द्रक्ष्यसि बालं तद्राज्ये तव विद्याः सेत्स्यन्ति, याहीत्युक्ते सोऽहं मातङ्गवेषेणेमं रक्षन् स्थित इति । तदनु संतुष्टया बालः समर्पितः, त्वं वर्धयैनमिति । ततस्तेन काञ्चनमालाया समर्पितः । स च करयोः कण्डूयुक्त इति करकण्डुनाम्ना पालयितुं लग्ना। सा पद्मावती गान्धारी या ब्रह्मचारिणी तामाश्रिता। तया सह गत्वा समाधिगुप्तमुनि दीक्षां याचितवती । तेनाभाणि- न दीक्षाकालः प्रवर्तते । पूर्व वारत्रयं यद् व्रतं खण्डितं तत्फलेन त्रिर्दुःखमासीत् । तदुपशमे पुत्रराज्यं वीक्ष्य तेन सह तपो भविष्यतीत्युक्ते संतुष्टा पुत्रं विलोक्य ब्रह्मचारिणीनिकटे स्थिता । स बालस्तेन सर्वकलाकुशलः कृतः। तौ खेचर-करकण्डू पितृवने यावत्तिष्ठतस्तोवजयभद्र-वीरभद्राचार्यो समागतो। तत्र नर-कपाले मुखे लोचनयोश्च वेणुत्रयमुत्पन्नमालोक्य केनचिद्यतिनोक्तमाचार्य प्रति 'हे नाथ, किमिदं कौतुकम् ।' आचार्योऽवदद्योऽत्र राजा भविष्यति तस्याङ्कुशच्छत्रध्वजदण्डाः स्युरिति श्रुत्वा केनचिद्विप्रेणोन्मूलिता । तस्मात्करकण्डुना गृहीताः। कियहिनेषु तत्र बलवाहनो नाम राजाऽपुत्रको मृतः । परिवारेण विधिना हस्ती राशोदिया। तत्पश्चात् मैंने प्रणाम करके उसे शान्त किया। उससे मैंने प्रार्थना की कि हे देवि ! कृपाकर मेरी विद्याओंको मुझे वापिस कर दीजिए । इसपर उसने कहा कि जा, हस्तिनापुरके श्मशानमें तू जिस बालकको देखेगा उसके राज्यमें तेरी विद्याएँ तुझे सिद्ध हो जावेंगी। वही मैं बालदेव विद्याधर चाण्डालके वेषमें इसकी रक्षा करता हुआ यहाँपर स्थित हूँ। उसके यह कहनेपर पद्मावतीने सन्तुष्ट होकर 'इसको तुम वृद्धिंगत करो' कहकर उस बालकको उसे दे दिया । तत्पश्चात् उसने उसे अपनी पत्नी काञ्चनमाला (कनकमाला) को दे दिया । वह बालक चूंकि दोनों हाथोंमें कण्डु (खाज ) से संयुक्त था, अतएव उसका करकण्डु नाम रखकर वह भी उसके परिपालनमें संलग्न हो गई। उधर पदमावती गान्धारी नामकी जो ब्रह्मचारिणी थी उसके आश्रयमें चली गई । पश्चात् उसने उक्त ब्रह्मचारिणीके साथ जाकर समाधिगुप्त मुनिसे दीक्षाकी प्रार्थना की । तब मुनि बोले- अभी दीक्षाका समय नहीं आया है । तुमने जो तीन बार व्रतको खण्डित किया है उसके फलसे तुम्हें तीन बार दुःख हुआ। व्रतभंगसे उत्पन्न पापके उपशान्त होनेपर पुत्रके राज्यको देखकर उसके साथ तेरा तप होगा। इसको सुनकर पद्मावतीको बहुत सन्तोष हुआ। तब वह पुत्रको देखकर ब्रह्मचारिणीके समीपमें स्थित हो गई। बालदेवने उस बालकको समस्त कलाओंमें निपुण कर दिया। इधर वह विद्याधर और करकण्डु ये दोनों श्मशानमें ही स्थित थे कि वहाँ जयभद्र और वीरभद्र नामक दो आचार्य उपस्थित हुए । वहाँ किसी मनुष्यके कपालमें एक मुखमेंसे और दो दोनों नेत्रोंमेंसे इस प्रकार तीन बाँस उत्पन्न हुए थे। इनको देखकर किसी मुनिने आचार्यसे पूछा कि हे नाथ ! यह कौन-सा कौतुक है। आचार्य बोले कि यहाँ जो मनुष्य राजा होगा उसके ये तीन बाँस अंकुश, छत्र और ध्वजाके दण्ड होंगे। इस मुनिवचनको सुनकर किसी ब्राह्मणने उन्हें उखाड़ लिया। उस ब्राह्मणसे उन्हें करकण्डुने ले लिया। कुछ दिनोंमें वहाँ बलवाहन नामक राजाकी मृत्यु हुई। वह पुत्रसे रहित था। इसलिए १. प यं द्रक्ष्यशि, फ यद्रक्षसि, श यद्रक्ष्यसि । २. फ ब्रह्मचारिणीं। ३. फ श समाधिगुप्ति । ४. फ ततो। ५. ५ श यावत्तिष्ठतिस्ताव० । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy