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________________ २० पुण्यानवकथाकोशम् [ १-६ : ब्रह्मोत्तरं गतः। तद्देशवर्तिनो जना देवोऽयमेतन्माहात्म्याद्रोगादिकमस्मिन् देशे न जातमिति तबिम्बं विधाय पूजयितुं लग्नाः। स विनायकोऽभूत् भरतभट्टारकः संयमफलेन चारणाद्यनेकर्द्धिसंयुक्तो विहृत्य केवलमुत्पाद्य निर्वाणं गतः इति भूषणो यदि जिनपूजनचेतसैवंविधं विभवं लभते ' स्म नित्यं जिनपूजकस्य किं प्रष्टव्यमिति ॥५॥ गोपो विवेकविकलो मलिनोऽशुचिश्च राजा बभूव सुगुणः करकण्डुनामा । दृष्ट्वा जिनं भवहरं स सरोजकेन नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥६॥ अस्य वृत्तस्य कथा श्रोणकस्य गौतमस्वामिना यथा कथिताचार्यपरम्परयागता संक्षेपेण कथ्यते । अत्रैवार्यखण्डे कुन्तलविषये तेरपुरे राजानौ नोलमहानीलौ जातौ । श्रेष्ठी वसुमित्रो भार्या वसुमती तद्गोपालो धनदत्तः । तेनैकदाटव्यां भ्रमता सरसि सहस्रदलकमलं दृष्टं गृहीतं च । तदा नागकन्या प्रकटीभूय तं वदति सर्वाधिकस्येदं प्रयच्छेति। तदनु स कमलेन सह गहमागत्य श्रेष्ठिनं तवृत्तान्तं निरूपितवान् । तेन राज्ञो भाषितम् । राज्ञा गोपालेन श्रेष्ठिना च सह सहस्रकूटजिनालयं गत्या जिनमभिवन्द्य सुगुप्तमुनि च ततो [राज्ञा] पृष्टो मुनिः कः सर्वोत्कृष्टः इति । तेन जिनो निरूपितः। श्रुत्वा गोपालो जिनाग्रे स्थित्वा हे सर्वोस्कृष्ट, कमलं गृहाणेति देवस्योपरि निक्षिप्य गतः। है, इसके माहात्म्यसे इस देशमें रोगादि नहीं उत्पन्न हुए हैं' ऐसा मानकर उसकी मूर्ति बनाकर पूजामें तत्पर हो गये। वह विनायक (गणेश) हुआ। भरत भट्टारक संयमके प्रभावसे चारण आदि अनेक ऋद्धियोंसे सम्पन्न होते हुए केवलज्ञानको उत्पन्न करके मुक्तिको प्राप्त हुए। इस प्रकार भूषणने जब जिनपूजामें मन लगाकर इस प्रकारके विभवको प्राप्त किया तब जिनभगवान्की पूजा करनेवाले श्रावकका क्या पूछना है ? वह तो महाविभवको प्राप्त करेगा ही ॥५॥ वह विवेकसे रहित ग्वाला मलिन और अपवित्र होकर भी कमल पुष्पके द्वारा संसारके नाशक जिन भगवान्की पूजा करके उत्तम गुणोंसे युक्त करकण्डु नामक राजा हुआ है। इसलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥६॥ गौतम स्वामीने इस कथाको जिस प्रकार श्रेणिकके लिए कहा था उसी प्रकार आचार्यपरम्परासे आई हुई उसको यहाँ मैं संक्षेपसे कहता हूँ। इसी आर्यखण्डके भीतर कुन्तल देशमें स्थित तेरपुरमें नील और महानील नामक दो राजा थे। वहाँ वसुमित्र नामका एक सेठ था । उसकी पत्नीका नाम वसुमती था। उसके धनदत्त नामका एक ग्वाला था । एक समय उस ग्वालाने वनमें घूमते हुए तालाबमें सहस्रदल कमलको देखकर उसे ले लिया। तब नागकन्याने प्रगट होकर उससे कहा कि जो सबसे अधिक हो उसके लिए यह कमल देना। तत्पश्चात् उसने कमलके साथ घर आकर इस वृत्तान्तको सेठसे कहा । सेठने उस वृत्तान्तको राजासे कहा। तब राजाने सेठ और ग्वालाके साथ सहस्रकूट जिनालयमें जाकर जिन भगवान्की और तत्पश्चात् सुगुप्त मुनिकी वंदना की। पश्चात् राजाने मुनिसे पूछा कि हे साधो ! लोकमें सर्वश्रेष्ठ कौन है । मुनिने कहा कि सर्वश्रेष्ठ जिन १. श लभ्यते । २. फ ब सगुणः । ३. ब अतोऽग्रे 'तद्यथा' इत्येतदधिकं पदमस्ति । ४. ब -प्रतिपाठोऽयम् । प श परंपरायामागता, फ परंपरायागतो। ५. श भेरपुरे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016057
Book TitlePunyasrav Kathakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size10 MB
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